रविवार, 27 दिसंबर 2009

युवा दखल: साहित्यकार की जगह सडक नहीं होती


पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार युवा संवाद की पहल पर रविवार को शहर के तमाम जनसंगठनों ने पुराने हाईकोर्ट से शहर के हृदयस्थल महाराज बाडे पर पोस्ट आफ़िस की सीढियों के सहारे बने स्थायी मंच से आमसभा का आयोजन किया। रैली में शामिल 75 लोगों की संख्या सभा में दूनी हो गयी। लोग पूरे उत्साह से नारे लगा रहे थे-- कामगार एकता-ज़िन्दाबाद, महंगाई को दूर करो, लेखकों, ट्रेडयूनियनकर्मियों, महिलाओं और वक़ीलों की एकता-- ज़िन्दाबाद, शिक्षा, रोटी और रोज़गार-तीनों बनें मौलिक अधिकार, कैसी तरक्की कौन ख़ुशहाल- कारें सस्ती महंगी दाल!

सभा को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने मंहगाई को राष्ट्रीय आपदा घोषित किये जाने, शिक्षा, रोटी और रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाये जाने तथा नयी आर्थिक नीति वापस लेने की मांग की। एटक के राजेश शर्मा, कैलाश कोटिया, युवा संवाद के अजय गुलाटी, स्त्री अधिकार संगठन कि किरण, सीटू के श्याम कुशवाह, इण्डियन लायर्स एसोशियेशन के गुरुदत्त शर्मा तथा यतींद्र पाण्डेय, ग्वालियर यूनाईटेड काउंसिल आफ़ ट्रेड यूनियन्स के एम के जायसवाल, एम पी मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव यूनियन के राजीव श्रीवास्तव, आयुष मेडिकल एसोसियेशन के डा अशोक शर्मा, डा एम पी राजपूत, जन संघर्ष मोर्चे के अभयराज सिंह भदोरिया, नगर निगम कर्मचारी यूनियन के अशोक ख़ान, प्रलेसं के भगवान सिंह निरंजन सहित तमाम वक्ताओं ने इस संयुक्त मोर्चे को वक़्त की ज़रूरत बताते हुए संघर्ष की लौं तेज़ करने का संकल्प किया। संचालन युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय ने किया।

लेकिन जहां एक तरफ इन तबकों ने अपनी व्यापक एकता का परिचय दिया, शहर के मूर्धन्य काग़ज़ी शेर उर्फ़ साहित्यकार इससे दूर ही रहे। एक साहब को जब हमने फोन लगाया तो उत्तर मिला-- ''अरे भाई यह हमारा काम नहीं है। साहित्यकार की जगह सडक नहीं होती।'' आप को क्या लगता है?

रविवार, 6 दिसंबर 2009

सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ साझा अभियान

धार्मिक कट्टरपंथ तथा आतंकवाद एक दूसरे के पूरक हैं। छः दिसंबर भारतीय संविधान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव पर आधारित हमारी परम्परा के चेहरे पर बदनुमा दाग़ है। आर एस एस और उसके आनुसांगिक संगठनो ने सत्ता के लोभ में देश के भीतर जो धार्मिक उन्माद पैदा कर लोगों के बीच साम्प्रदायिक विभाजन किया वही आज आतंकवाद के मूल में है। मनमोहन सिंह कहते हैं की माओवाद देश के सम्मुख सबसे बड़ा खतरा है पर वास्तविकता यह है कि हमारे सम्मुख सबसे बड़ा खतरा धार्मिक कट्टरपंथ है। यह बातें आज युवा संवाद की पहलकदमी पर दिसंबर को आयोजित साम्प्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डा मधुमास खरे ने कही।


उल्लेखनीय है कि युवा संवाद, संवाद, स्त्री अधिकार संगठन , प्रगतिशील लेखक संघ, आल इंडिया लायर्स एसोशियेशन, जनवादी लेखक संघ, बीमा कर्मचारी यूनियन, गुक्टू, इप्टा सहित शहर के तमाम जनसंगठनों ने छः दिसंबर को सांप्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस के रूप मे मनाते हुए फूलबाग स्थित गांधी प्रतिमा पर संयुक्त बैठक आयोजित की।


बैठक में इन संगठनों के प्रतिनिधियों ने भारत तथा दुनिया भर में बढते आतंकवाद पर चिंता जताते हुए कहा कि इसके मूल में आर्थिक विषमतायें ही प्रमुख हैं। अजय गुलाटी ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि आज अंबेडकर की पुण्यतिथि है और उन्होंने बहुत पहले धर्म के अमानवीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा था कि अगर कभी हिन्दु राष्ट्र बना तो वह दलितों और महिलाओं के लिये विनाशकारी होगा। अशोक पाण्डेय ने कहा कि इस धार्मिक राजनीति के केन्द्र में न मनुष्य है न इश्वर बस सत्ता है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग और आर एस एस दोनों अंग्रेज़ों की सहयोगी थीं और बाद में देशभक्त हो गयीं। डा प्रवीण नीखरा ने शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन पर ज़ोर दिया तो ज्योति कुमारी तथा किरन ने धर्म के महिला विरोधी स्वरूप पर ध्यान खींचते हुए कहा कि हर दंगा स्त्री के शरीर पर हमले से शुरु होता है।


डा पारितोष मालवीय, अशोक चौहान, जितेंद्र बिसारिया, पवन करण, राजवीर राठौर, ज़हीर कुरेशी, फ़िरोज़ ख़ान सहित अनेक लोगों ने बहस में हिस्सेदारी की। अंत में पास एक साझा प्रस्ताव में साम्प्रदायिकता विरोधी ताक़तों को मज़बूत करने तथा शीघ्र मंहगाई पर जनजागरण के लिये एक अभियान चलाने पर सहमति बनी।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

महेश कटारे को कथाक्रम सम्मान



कथाक्रम-आयोजन का प्रारंभ करते हुए शैलेन्द्र सागर ने अपनी मां को याद किया जिन्होंने पिछले दिनों दुनिया को अलविदा कह दिया था। शैलेन्द्र सागर ने अपनी मां पर बेहद मार्मिक संपादकीय ‘कथाक्रम’ के
सितंबर अंक में लिखा था। यह पहला अवसर था जब मां की गैर मौजूदगी में कथाक्रम का आयोजन हो रहा था। कथाकार देवेन्द्र ने कथाकार महेश कटारे के व्यक्तित्व और लेखन परयह कहते हुए प्रकश डाला- महेश गांव में रहकर कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियों में आजादी के बाद के गांव की स्थिति की तस्वीर है। वे मार्क्सवादी दृष्टि से नहीं, बल्कि अपने अनुभवों से कहानियों में हो रहे बदलाव को पकड़ते हैं। इनके यहां न कूत्रिम परिवेश है, न बनावटी किस्म के चरित्र। पुरस्कार समारोह सत्र का संचालन कर रही मीनू अवस्थी ने इसे रेखांकित किया कि महेश ने इक्कीसवीं सदी के जटिल मां के चरित्र को अपनी कहानियों के जरिए अभिव्यक्त किया है।
पुरस्कार ग्रहण करने के बाद महेश कटारे ने कहानी को रात के सन्नाटे में बात बुनने की कला बताया। उन्होंने कहा- मेरी इच्छा है कि मेरी कहानी मुनादी की आवाज में बदल जाए। मेरी कहानियों की स्त्री कभी हार नहीं मानती। यह पुरस्कार मेरे लिए गांव की गर्वीली गरीबी को जीने जैसा है। अगर तुम अतीत पर गोली चलाओगे तो भविष्य तुम पर गोली बरसाएगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं हत्यारे और अन्यायी को कभी प्रतिष्ठित नहीं होने दूंगा। मौजूदा दौर में यह करना पड़ेगा कि लेखक द्घायल क्रौंच पक्षी की मां के साथ खड़ा है या शिकारी के हिंसक स्वार्थ के साथ। अब हम उतावले समय में जी रहे हैं। रातों-रात करोड़पति बनने के सपने बेचे जा रहे हैं। एक ही देश के दो टुकड़े समृद्ध इंडिया और बदहाल भारत। इंडिया को यह मंजूर नहीं कि भारत उसकी बराबरी में खड़ा हो सके।
‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने महेश कटारे को कथाक्रम सम्मान दिए जाने को चंबल का लखनऊ पर हुए हमले का नाम बताया। उन्होंने कहा कि महेश कटारे को देखकर अद्म गोंडवी याद आते हैं जो गांव में किसानी करते हुए कविताई करते हैं। सर्वप्रथम ‘मुर्दा स्थगित’ जैसी कहानी से महेश ने हिन्दी जगत का ध्यान अपनी और आकर्षित किया। महेश से मुझे बहुत उम्मीदें हैं। फूलन देवी जैसे चरित्र पर इनको कोई उपन्यास लिखना चाहिए।
प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने महेश कटारे की तुलना प्रेमचंद से की। कहानियां भी शहरी दृष्टि से लिखी गई मालूम होती हैं। गांव के नजरिये से ग्रामीण यथार्थ की कहानी तो महेश कटारे ने ही लिखी है, वो भी भाषा की ताजगी और चरित्र की बोल्डनेस तथा विविधता के साथ। इनके पास भाषा के साथ-साथ चरित्रों की भी ताकत है। छछिया पर छाछ थीम पर हिन्दी में कोई दूसरी कहानी नहीं लिखी गई। मुझे अफसोस है कि मैंने महेश कटारे को बड़ी देर से पढ़ा।
कथाकार शेखर जोशी को हैरानी इस बात की थी कि अदबी नजाकत वाले शहर में ठेठ गंवई मिजाज के लेखक महेश कटारे का सम्मान हो रहा है। जमीन से जुड़े लेखकों की उपेक्षा कर साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाने को न्याय नहीं कहा जा सकता। स्त्री-विमर्श के दौर में महेश कटारे की ‘बच्चों को सब कुछ बता दूंगी’ कहानी एक नया द्वार खोलती है।

आखर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

इस हिम्मत की बहुत ज़रूरत है



इतिहास विजेताओं का ही होता है अक्सर



और साहित्य का इतिहास? एक वक़्त था जब इसमे वो दर्ज़ होते थे जिनके कलाम से उनका समय आलोकित होता था। वे जो अपने वक़्त के साथ ही नहीं बल्कि ख़िलाफ़ भी होते थे…वो जो बादशाह के मुक़ाबिल खडे होकर कह सकते थे-- संतन को कहां सीकरी सो काम।



पर अब शायद इतना इंतज़ार करने का वक़्त नहीं किसी के पास। सो वही दर्ज़ होगा जिसके हाथों में पुरस्कार होगा, गले में सम्मान की माला और दीवारों पर महान लोगों के साथ सजी तस्वीर। और सब तरफ़ इतिहास में दर्ज़ होने की आपाधापी के बीच किसे फ़िक्र है अपने वक़्त की या फिर उन ताक़तों की जो एक टुकडा पुरस्कार के बदले न जाने क्या-क्या छीन लेते हैं।



अभी दिल्ली के एक बेहद गंभीर और प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी से बातचीत हो रही थी तो अपने पुराने दोस्त हबीब तनवीर से हुई बातचीत का खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि जब इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने उनसे राज्यसभा की सदस्यता के लिये प्रस्ताव दिया तो पांच मिनट थे फ़ैसला करने को…और तीसरे मिनट में वह ललच गये। तो जब मेरे उन मित्र से अभी कुछेक साल पहले यही प्रस्ताव दोहराया गया तो उन्होंने बस पहले ही मिनट में तय कर लिया -- नहीं। पर इतिहास? वहां तो हबीब साहब ही दर्ज़ होंगे ना?



ऐसे माहौल मे जब मुझे एक मित्र ने बताया कि युवा रचनाकार अल्पना मिश्र ने उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रस्तावित एक पुरस्कार ( जो उनके साथ बुद्धिनाथ मिश्र को भी मिला है) यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ''मुझे किसी राजनेता से पुरस्कार नहीं लेना'' तो मेरा सीना गर्व से चौडा हो गया। न तो अल्पना जी से मेरी कोई जानपहचान है ना ही उनकी कहानियों का कोई बहुत बडा प्रशंसक रहा हूं, लेकिन उनके इस कदम ने मुझे इतनी खुशी दी कि अब वह अगर एक भी कहानी न लिखें तो भी मै उनका प्रशंसक रहुंगा। इसलिये भी कि उन्होंने इस बात का कोई शोरगुल नहीं मचाया न ही किसी आधिकारिक पत्र का
इंतज़ार किया। यह सामान्य सी लगने वाली बात अपने आप में असामान्य है।



अल्पना आपकी इस हिम्मत के लिये मै आपको सलाम करता हूं।



इस ज़िद को बनाये रखियेगा…आपका एक आत्मसमर्पण न जाने कितनों को कमज़ोर बना देगा !


*** अभी अल्पना जी ने बताया है कि यह पुरस्कार राज्य सरकार का नहीं है अपितु किन्हीं धनंजय सिंह जी द्वारा अपने किसी रिश्तेदार की स्मृति में दिया जाना है जिसे उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री या संस्कृति मंत्री के हाथ से दिया जाना है।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

युवा दखल: साहित्य का आधिक्य और पुरस्कारों की लालीपाप



पिछले दिनों अन्यान्य कारणों से पुरस्कार और उनसे जुड़े तमाम विवाद बहसों के केन्द्र में रहे। वैसे भी इस साहित्य विरोधी माहौल में जब साहित्य कहीं से जीवन के केन्द्र में नही है, बहसों के मूल में अक्सर साहित्य की जगह कुछ चुनिन्दा व्यक्ति, पुरस्कार और संस्थायें ही रहे हैं। पाठकों के निरंतर विलोपन और इस कारण साहित्य के स्पेस के नियमित संकुचन ने वह स्थिति पैदा की है जिसमे व्यक्तियों के प्रमाणपत्र निरंतर महत्वपूर्ण होते गए हैं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नही कि पूरा साहित्य उत्तरोत्तर आलोचक केंद्रित होता चला गया और पुरस्कार तथा सम्मान रचना का अन्तिम प्राप्य।

यहाँ यह भी देखना ज़रूरी होगा कि हिन्दी में लेखन का अर्थ ही साहित्य रचना होकर रह गया। अगर कोई कहे के वह हिन्दी का बुद्धिजीवी है तो सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि वह या तो कवि है, या आलोचक या उपन्यासकार या फिर यह सबकुछ एकसाथ। हिन्दी का पूरा बौद्धिक परिवेश साहित्य लेखन के इर्दगिर्द सिमटा रहा है और इतिहास, दर्शन, अर्थशाष्त्र, राजनीति आदि पर अव्वल तो गंभीर बात हुई ही नहीं और अगर कुछ लोगों ने की भी तो आत्मतुष्ट साहित्य बिरादरी ने उसे हमेशा उपेक्षित ही रखा। इसका पहला अनुभव मुझे समयांतर के दस साल पूरे होने पर पंकज बिष्ट जी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज में हुआ जहां केन्द्र में रखी विशाल मेज़ पर साहित्य के बडे नामों और नये पुराने संपादकों का कब्ज़ा था और सामाजार्थिक विषयों पर वर्षों से पत्रिका में नियमित लिखने वाले तमाम वरिष्ठ लोग परिधि पर स्थित कुर्सियों में सिमटे थे। इनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें अपने-अपने विषयों के बौद्धिक जगत में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। यह एक ऐसी की पत्रिका के कार्यक्रम का दृश्य था जो मूलतः साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह हिन्दी के बौद्धिक परिवेश का एक स्पष्ट रूपक है।

इसका परिणाम यह है कि अन्यान्य विषयों में हिन्दी का बौद्धिक परिवेश अत्यंत एकांग़ी और लचर रहा है। परीकथा के पिछले अंक में गिरीश मिश्र का प्रो अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया जवाब इस पूरे परिदृश्य को बडी बेबाकी से परिभाषित करता है। यह आश्चर्यजनक तो है ही कि पूरा हिन्दी जगत बाज़ारीकरण जैसी भ्रामक और निरर्थक शब्दावली का प्रयोग करता है, नवउदारवाद और नवउपनिवेशवाद जैसे शब्दों का प्रयोग समानार्थी रूप में प्रयोग किया जाता है और भी न जाने क्या-क्या।
यही नहीं, अन्य विषयों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दी में सारे पुरस्कार बस साहित्य के लिये आरक्षित हैं। पत्रकारिता को छोड दें तो हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में अन्य विषयों पर लिखने वालों के लिये न तो कोई प्रोत्साहन है न पुरस्कार। तमाम चर्चाओं, परिचर्चाओं और कुचर्चाओं के क्रम में साहित्येतर विषय सिरे से गायब रहते हैं।
यह किस बात का द्योतक है? साहित्य की सर्वश्रेष्ठता का या हिन्दी के बौद्धिक दारिद्र्य का?

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

बीकानेर में उदास हैं रिक्शे, तांगे, ठेले वाले...


जन कवि हरीश भादाणी का 2 अक्‍टूबर, 2009 को निधन हो गया। मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

हरीश भादाणी जनकवि थे, यह तो सभी जानते हैं। क्या दूसरा भी कोई जनकवि है? शायद होगा, लेकिन मुझे नहीं पता। मैंने तो अपने जीवन में एक ही जनकवि देखा है-हरीश भादाणी। जो ठेलों पर खड़े होकर मजदूरों के लिए हाथों से ललकारते हुए गाते थे- बोल मजूरा, हल्ला बोल...।
भादाणी जी से मेरे लगभग तीस-पैंतीस साल पुराने आत्मीय रिश्ते रहे हैं। उनकी यादों के इतने बक्से हैं कि उन्हें तरतीबवार खोल भी नहीं सकता। बात 1980 की है। वे अलवर आए, तब हम ‘पलाश’ नाम की एक साहित्यिक संस्था चलाते थे। हम उनका काव्य पाठ रखना चाहते थे, लेकिन अगले दिन दोपहर को उनको जाना था। हमारी अब तक धारणा यही रही है कि काव्य पाठ और गजलों के कार्यक्रम शाम को ही होते हैं। हमने इस धारणा को तोड़ा। सुबह नौ बजे सूचना केन्द्र में उनका काव्य पाठ रखा और कार्यक्रम को नाम दिया-‘कविता की सुबह।‘ आश्चर्य तब हुआ जब सुबह-सुबह लोग बड़ी संख्या में उन्हें सुनने आ गए। तब लगा, सचमुच भादाणी जी जनकवि हैं। सर्दियों की वह गुनगुनी सुबह कविताओं से महक उठी।
एक अद्भुत घटना मैं जीवन में कभी नहीं भूलता। बात लगभग 25 साल पुरानी है। मैं अपनी बहन के शिक्षा विभाग संबंधी एक कार्य को लेकर पहली बार बीकानेर गया। ट्रेन से उतरते ही स्टेशन के बाहर जो होटल सबसे पहले नजर आई, उसमें ठहर गया। कमरे में सामान रख कर नीचे आया तो पास में चाय के एक ढाबे पर भादाणी जी कुछ मित्रों के साथ ठहाके लगा रहे थे। मुझे देखा तो पहचान गए। बोले-‘यहां क्यों ठहरे हो, सामान उठाओ और घर चलो।‘ मैं संकोचवश उन्हें मना करता रहा। उन्होंने ज्यादा जिद की तो मैंने कहा कि अभी मैंने होटल वाले को एडवांस पैसे दे दिए हैं, कल सुबह घर आ जाऊंगा। अपना पता समझा दें। वे बोले, ‘किसी भी रिक्शे, तांगे वाले को बोल देना, वह घर पहुंचा देगा।‘
अगले दिन सुबह मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब सडक़ चलते एक तांगे वाले को रोक कर मैंने भादाणी जी के घर चलने को कहा तो वह उत्साह से भर उठा और होटल से मेरा सामान तक खुद उठा कर लाया। घर पहुंच कर मेरे जिद करने के बावजूद उसने किराये का एक पैसा भी नहीं लिया। तब मेरी पहली बार आंखें खुलीं, जनकवि इसे कहते हैं। ऐसा कवि ही लिख सकता है, ‘रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, थाली में परोस ले, हां थाली में परोस ले, दाताजी के हाथ मरोड़ कर परोस ले।‘
मैं भादाणी जी के घर दो-तीन दिन रुका। उनका वह स्नेह और आत्मीय मेजबानी मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकता। भादाणी जी ने एक बार एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनका एक गीत है, ‘मैंने नहीं, कल ने बुलाया है... आदमी-आदमी में दीवार है, तुम्हें छेनियां लेकर बुलाया है, मैंने नहीं, कल ने बुलाया है।‘ भादाणी जी एक मित्र के घर गए तो इस गीत के बारे में उनकी बच्ची ने कहा, ‘दद्दू, आपकी एक कविता हमारी पाठ्यपुस्तक में है।‘ उन्होंने पूछा, ‘मास्टर जी ने कैसी पढ़ाई।‘ बच्ची बोली, ‘बहुत अच्छी पढ़ाई। उन्होंने पढ़ाया कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को मिलने के लिए बुला रहा है।‘ मुझे और मेरे जैसे कई मित्रों को लगता है कि भादाणी जी के गीत और कविताओं के साथ शिक्षकों ने ही अन्याय नहीं किया है, बड़े शिक्षकनुमा आलोचकों ने भी अन्याय किया है। बड़े आलोचक जिसे चाहें, उसे उठा कर आसमान पर बिठा देते हैं, लेकिन वे हरीश भादाणी के आसमान को छू तक नहीं पाए। भादाणी जी की रचनाओं का मॉडल कहीं दूसरा देखने को नहीं मिलता। उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी। वे अपने किस्म के कवि थे। अपने ढंग से जिए और अपने ढंग से चले गए। मेडिकल कॉलेज को देह दान कर गए ताकि उनकी देह भी जनता के काम आए। वे ऐसे जन थे, ऐसे जनकवि थे। मैंने कोई दूसरा जनकवि नहीं देखा। बीकानेर में आज जरूर रिक्शे, तांगे और ठेले वाले भी उदास होंगे और अपने कवि के लिए आंसू बहा रहे होंगे।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

इस ख़तरनाक समय में



ज्ञानरंजन के इस्तीफे और अन्य विवादों को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव का प्रो. कमला प्रसाद का बयान


भोपाल 23 सितंबर, 2009 विगत कुछ दिनों प्रकाशित पत्रिकाओं-समाचार पत्रों के कुछ लेखों तथा हमारे सम्मानित लेखक ज्ञानरंजन की टिप्पणियों ने प्रलेस से संबंधित सांगठनिक स्तर पर कुछ सवाल पैदा किए हैं। प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि उठाए गए सवालों के बारे में वस्तुस्थिति स्पष्ट करूं। सवाल हैं कि प्रमोद वर्मा संस्था्न द्वारा आयोजित ‘प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह’ में प्रलेस की भागीदारी क्यों हुई? प्रगतिशील वसुधा ने गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से फोर्ड फाउण्डे्शन की राशि से प्रदत्त कबीर चेतना पुरस्कार चुपके-चुपके क्यों ले लिया?

पहले प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के बारे में बातें करें। इस आयोजन में जलेस-प्रलेस और जसम के अलावा अन्य महत्वपूर्ण लेखकों को आमंत्रित किया गया था। संस्थान की ओर से भेजे गए पहले निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्हें आमंत्रण भेजा गया था। दूसरे और आखिरी निमंत्रण पत्र में वे नाम थे जिन्होंने आने की स्वीकृति दी थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि जिनकी स्वीकृति नहीं मिली उन्हें छोड़ दिया गया। जहां तक प्रमोद वर्मा का सवाल है, वे मार्क्सवादी और मुक्तिबोध, परसाई के साथी थे। वे प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मण्डल में रहे हैं। छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही, इसलिए बहुत से लेखकों से उनके वैचारिक पारिवारिक रिश्ते थे। विश्वरंजन तब उसी क्षेत्र में पदस्थ होने के कारण प्रमोद जी की मित्र मण्ड्ली में थे। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान बना-तो उसमें रूचि से वे सहयोगी बने। छत्तीसगढ़ के अनेक लेखकों के साथ आजकल वे इसके अध्यक्ष हैं। निर्णय का अधिकार अकेले उन्हें ही नहीं है। पृष्ठभूमि के रूप में इसे जानना जरूरी है। इस कार्यक्रम की घोषणा हुई तो मैंने छत्तीसगढ़ प्रलेस के साथियों से पूछा कि क्या स्थिति है? छत्तीसगढ़ के साथियों ने सलाह दी कि प्रमोद वर्मा पर कार्यक्रम प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से है। सरकारी अनुदान नहीं है, इसलिए आना चाहिए। स्वीकृति देने वाले लेखकों में मैंने अनेक वैचारिक साथियों और संगठनों में शामिल लेखकों के नाम देखे तो जाना तय किया। समारोह में आने वालों में छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण लेखकों के अलावा खगेंद्र ठाकुर, अशोक वाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, कृष्ण मोहन, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे नाम थे। कृष्ण मोहन और श्री भगवान सिंह को आलोचना पुरस्कार भी दिया गया था। अच्छी बात यह हुई कि प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन हुआ।

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री और कुछ नेताओं के आने तथा विवादास्पद वक्तव्य देने पर वहां आए लेखकों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई, और इनका आक्रामक उत्तर लोगों ने अपने-अपने वक्तव्यों में दिया। पूरे आयोजन में प्रमोद वर्मा की विचारधारा ‘मार्क्सवाद’ बहस का आधार बनी रही। इसी दौरान कहीं से चर्चा में सुनाई पड़ा कि एक मित्र लेखक ने ‘पब्लिक एजेण्डा' में विश्वरंजन अर्थात डी.जी.पी.छत्तीसगढ़ के सलवा जुडुम के समर्थन और नक्सलपंथियों के विरोध में छपे इंटरव्यू को मुद्दा बनाकर कार्यक्रम में शामिल होना स्थगित किया है। उस समय तक लोगों ने ‘पब्लिक एजेण्डा’ का इंटरव्यू नहीं देखा था। इसके अलावा, सीधे भाजपा शासित सरकारी कार्यक्रम न होने के कारण लोग इसमें आए थे। उन्हें पहले से पता था कि सलवा जुडुम भाजपा सरकार के एजेण्डे में है। आमंत्रित लेखकों ने प्रमोद वर्मा स्मृति के पूरे आयोजन को लेकर कुछ आपत्तियां दर्ज कराईं। संस्थान के साथियों को परामर्श दिया गया कि इसे हमेशा सत्ता के प्रमाण से अलग रखा जाए।

छत्तीसगढ़ के जलेस-प्रलेस के साथियों तथा वामपंथी राजनीतिक दलों ने लगातार सलवा जुडुम के मसले पर सरकार का विरोध किया है। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद उनकी रिहाई के लिए हुए आंदोलन में ये सभी लेखक शामिल रहे हैं। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में यह प्रमुख मुद्दा था। याद रखना होगा कि अपनी-अपनी तरह से हत्यारी नीतियां छत्तीसगढ की ही नहीं अन्य भाजपा शासित राज्यों की भी हैं। मध्य‍प्रदेश में पिछले छह वर्षों में अल्पसंख्यकों पर सैंकड़ों अत्याचार और हत्याएं हुईं हैं। प्रलेस के लेखकों ने यहां लगातार सरकारी कार्यक्रमों का समय-समय पर विरोध और यथासमय बहिष्कार किया है। एक सूची प्रकाशित की जानी चाहिए कि मध्यप्रदेश में और इन सारे प्रदेशों के सरकारी कार्यक्रमों में किनकी-किनकी कहां-कहां भागीदारी रही है। मैं नहीं मानता कि गैर सरकारी प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शामिल होने मात्र से लेखकों का हत्यारों के पक्ष में खड़ा होना कहा जाएगा।

साथियों की ओर से उठाया गया अन्य सवाल वसुधा के फोर्ड फाउण्डेशन की राशि से कबीर चेतना पुरस्कार लेने का है। मैं यह स्पष्ट कर दूं कि संस्था़न से स्पष्ट जानकारी के बाद कि यह पुरस्कांर राशि संस्थान की ओर से है फोर्ड फाउण्डेशन की ओर से नहीं, संपादकों ने चुपके-चुपके नहीं, एक समारोह में यह पुरस्कार प्राप्त किया है। लोग जानते हैं कि गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान इलाहाबाद केंद्रीय विश्वंविद्यालय का एक प्रभाग है। दलित संसाधन केंद्र उसकी एक इकाई है। दलित संसाधन केंद्र की ओर से विगत कई वर्षों से दलितों की स्थितियों पर अध्ययन होता रहा है। संस्थान द्वारा दलितों के बारे में दस्तावेजीकरण के अलावा इलाहाबाद तथा भोपाल जैसे अन्य शहरों में केंद्र की संगोष्ठियां हुईं हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी का कौन-सा महत्वपूर्ण लेखक है जो इन कार्यक्रमों में नहीं गया और मानदेय स्वीकार नहीं किया। जहां तक कबीर चेतना पुरस्कार की बात है, पहले हंस और तद्भव ने ये पुरस्कार लिए हैं। इनके संपादक भी संगठनों के हिस्से हैं। प्रगतिशील वसुधा लगातार दलित साहित्य प्रकाशित करती रही है। एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था, इसलिए निर्णायकों ने इस पत्रिका की पात्रता तय की है। प्रलेस से सीधी जुड़ी होने के कारण प्रगतिशील वसुधा का ऑडिटेड आय-व्यय खुले पन्नों में है। कभी भी देखा जा सकता है।

दोनों सवालों का तथ्यात्मक ब्यौरा पेश करने के बाद मेरा कहना है कि आज की परिस्थितियों में जिस तरह सांप्रदायिक शक्तियों का जाल देश में फैल रहा है, समूची मानवीय संस्कृति का बाज़ारीकरण हो रहा है, मूल्यों को तहस-नहस करने की साजिश है, उस समय अपने-अपने संगठन को अधिक क्रांतिकारी अथवा व्यक्तिगत रूप से स्वयं को अति-शुद्ध सिद्ध करने की कोशिश सांस्कृतिक आंदोलन की एकजुटता खण्डित करेगी। मर्यादाएं टूटने के बाद आंदोलन छूट जाएगा और लोग व्यक्तिगत हमलों पर उतर आएंगे। माना कि अब लेखकों के संगठन प्रेमचंद कालीन नहीं हैं, हो भी नहीं सकते। पर आज की परिस्थितियों में जो संभव है, हो रहा है। जरूरत पड़ने पर इनका जुझारू रूप देखा जा सकता है। इनके बिना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर आवश्‍यक सामूहिक पहल की कल्पना असंभव होगी। विरोधी शक्तियां इन्हें तोड़ना चाहती हैं। कदाचित इनके विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई तो वह दिन खतरनाक होगा।

रविवार, 9 अगस्त 2009

भिलाई में प्रेमचन्द जयंती का आयोजन


प्रगतिशील लेखक संघ दुर्ग-भिलाई के वरिष्ठ कवियों और लेखको की उपस्थिति में बी.एस.पी. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सेक्टर 8 भिलाई में 31 जुलाई 2009 को प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर प्रेमचन्द की कहानी "पूस की रात " पर चर्चा रखी गई .प्राचार्य बी.आर.देशलहरा ने आमंत्रित साहित्यकारों का स्वागत करते हुए प्रेमचन्द के साहित्य के महत्व पर प्रकाश डाला तथा छात्रा वीणा ने प्रेमचन्द का जीवन परिचय प्रस्तुत किया . छात्र शशांक ने कहानी "पूस की रात " का पाठ किया .वरिष्ठ कवि रवि श्रीवास्तव ने शाला की साहित्य परिषद का उद्घाटन करते हुए कहा कि पूस की रात में भारतीय किसानों की जिस स्थिति का वर्णन किया गया है वह आज भी यथावत है .कवि एवं समालोचक तथा सन्यंत्र के राजभाषा प्रमुख अशोक सिंघई ने कहा कि प्रेमचन्द अपनी कहानी में मानवीय सम्वेदना और सहज सम्प्रेषण के लिये याद किये जायेंगे .प्रलेस के अध्यक्ष तथा कथाकार लोकबाबू ने कहा कि पूस की रात भारतीय किसान की किसानी छूटने तथा उसके मज़दूर बनने कि नियति कथा है . हिन्दी के प्रमुख युवा कवि शरद कोकास ने 'वागर्थ' में प्रकाशित प्रेमचन्द की आत्मकथा से उनके शालेय जीवन का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि प्रेमचन्द की कथाओं मे आम आदमी ही नायक है .युवा शायर मुमताज़ ने कहा कि यह अच्छी बात है कि प्रेमचन्द की परम्परा में आज भी लेखन हो रहा है किंतु वह अपनी गरिष्ठता या कलात्मकता के मोहजाल मे असम्प्रेषणीय हो गया है.परिचर्चा के उपरांत श्रीमती संतोष झांजी,अशोक सिंघई,शरद कोकास. सचिव परमेश्वर वैषणव,विमल कुमार झा तथा मुमताज द्वारा काव्य-पाठ किया गया.शाला के वरिष्ठ व्याख्याता एल.डी.जोशी द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया ।

प्रस्तुति-शरद कोकास ,दुर्ग

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह जयपुर में


जवाहर कला केन्द्र एवं राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में ३१ जुलाई और १ अगस्त, २००९ को दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह आयोजित किया जा रहा है। इसमें प्रसिद्द कवि नरेश सक्सेना मुख्य अतिथि होंगे। विशिष्‍ट अतिथि के रूप में उर्दू के मशहूर शायर-आलोचक शीन. काफ़. निजाम और प्रसिद्ध कवि अनिल जनविजय, संपादक कविताकोश शिरकत करेंगे। जवाहर कला केंद्र के कृष्‍णायन सभागार में 31 जुलाई को सायं चार बजे उद्घाटन सत्र में प्रेमचंद के विविध आयाम विषयक संगोष्‍ठी होगी। इस सत्र की अध्‍यक्षता उर्दू के प्रखर आलोचक डॉ. मुदब्बिर अली जैदी करेंगे। इसके बाद रंगायन सभागार में प्रेमचंद की दो कहानियों का मंचन होगा। बड़े भाई साहब का निर्देशन युवा रंगकर्मी संदीप लेले करेंगे और कफन का निर्देशन वरिष्‍ठ रंगकर्मी मुकेश चतुर्वेदी, सवाई माधोपुर करेंगे।
1 अगस्‍त, 2009 को सायं चार बजे अतिथि कवि नरेश सक्‍सेना और अनिल जनविजय का कविता पाठ होगा। इस अवसर पर वरिष्‍ठ कवि ऋतुराज और डॉ. नंदकिशोर आचार्य भी उपस्थित रहेंगे। इसके बाद मुंशी प्रेमचंद की दो कहानियों का जयपुर के प्रसिद्ध रंगकर्मी ज़फर खान और वरिष्‍ठ अभिनेत्री किरण राठौड़ साभिनय पाठ करेंगे।
इस आयोजन में आप सब मित्रों सहित सादर आमंत्रित हैं।

रविवार, 5 जुलाई 2009

रचनाकार परम्परा को सहज कर उसमें कुछ नया जोड़ें: नन्द भारद्वाज




राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, जयपुर इकाई के तत्वावधान में रविवार 28 जून, 2009 की शाम राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर के सभागार में श्रीमती राज गुप्ता की ‘प्रखर हुआ जब मौन’ और श्रीमती रेणु जुनेजा की ‘अन्तर्मन के वातायन’ काव्य कृतियों पर चर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
हिन्दी एवं राजस्थानी के समर्थ कवि नन्द भारद्वाज ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि रचनाकार समाज की समृद्ध परम्परा को सहेजकर उसमें अपना कुछ नया जोडे़। उन्होंने आज की ज्वलंत चुनौतियों को गहराई से समझने और उसके समाधान के लिए सघन भावाभिव्‍यक्ति को माध्यम बनाने पर जोर दिया। भारद्वाज का मानना था कि दोनों कवयित्रियां भिन्नता रखते हुए भी काव्य प्रकृति, मन की संवेदना और बुनावट के स्तर पर एक-दूसरे की पूरक जान पड़ती हैं। उन्होंने कहा कि प्रकृति और मनुष्य के बीच अदृश्य रिश्ते को बेहतर ढंग से समझकर उसे वृहत्तर उद्देश्यों से जोड़ते हुए विस्तार देना कवि का महत्वपूर्ण कर्म है। दोनों कवयित्रियां इस दृष्टि से सही जमीन पर खड़ी हुई हैं जो एक शुभ संकेत है। नंद भारद्वाज ने रेणु जुनेजा के संग्रह का लोकार्पण भी किया।
इससे पूर्व राज गुप्‍ता और रेणु जुनेजा ने नई और संग्रह से चुनी हुई कविताओं का पाठ किया।
सुप्रसिद्ध कथाकार रत्नकुमार सांभरिया ने श्रीमती राज गुप्ता के काव्य संग्रह ‘प्रखर हुआ जब मौन’ पर चर्चा करते हुए कहा कि लगता है कवयित्री ने कुदरत के कहर से खूब संघर्ष किया है। उन्होंने राज गुप्‍ता के जीवन संघर्ष की चर्चा करते हुए कई कविताओं को उद्ध्रत करते हुए कहा कि दुःख, कठिनाईयां, खाइयों और हृास का हम अहसास कर सकते हैं पर उसका चेहरा हमें दिखाई नहीं देता। उनकी कविताएं बदलते मनुष्य को लेकर सवाल पर सवाल खड़े करती है।
जाने माने व्यंग्यकार एवं कवि फारूक आफरीदी ने कहा कि श्रीमती राज गुप्ता की कविताओं में ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में अपने वे जीवन अनुभवों की गहरी छाप दिखाई पड़ती है। श्रीमती गुप्ता की कविताओं में नारी चेतना के स्वर भी मुखर होकर उभरे हैं। इसी प्रकार रेणु जुनेजा के काव्य संग्रह ‘अन्तर्मन के वातायन’ की कविताएं समय और समाज सापेक्ष हैं। उनमें एक विशेष जिजीविषा के साथ जीवन से लड़ने के लिए संघर्ष के बीज साफ-साफ दिखाई पड़ते है। रेणु की कविताएं रिश्तों की भी सूक्ष्म पड़ताल करती है।
युवा कवि वियजसिंह नाहटा और कवयित्री सुश्री रश्मि भार्गव ने दोनों कवयित्रियों के संग्रहों पर अपनी टिप्पणियों में कहा कि आज के समय को वे बेहतर तरीके से रेखांकित करती हुई प्रतीत होती हैं। इन कविताओं में जीवन का गहरा मर्म छुपा हुआ है तथा सतत संघर्ष की अभिलाषा परिलक्षित होती है। रेणु जुनेजा की किताब पर उन्‍होंने कहा कि इन कविताओं में मानवमात्र के प्रति वात्‍सल्‍य, समाज की बेहतरी की आकांक्षा, अमानवीय के खिलाफ प्रतिरोध और जीवनानुभूतियों का सच्‍चा चित्रण है।
श्रीमती राज गुप्ता की काव्य कृति पर केप्टन के.एल. सिरोही ने तारादत्‍त निर्विरोध की टिप्पणी पढ़ कर सुनाई। उन्‍होंने राज गुप्‍ता के सामाजिक सेवा कार्यों की भी चर्चा की।
प्रारम्भ में प्रलेस जयपुर इकाई के सचिव ओमेन्द्र ने अतिथियों का स्वागत किया। अंत में इकाई अध्यक्ष गोविन्द माथुर ने आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन राज. प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने किया। इस अवसर पर बड़ी संख्या में जयपुर के गणमान्य कवि कथाकार, लेखक, पत्रकार एवं साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।

सोमवार, 22 जून 2009

हबीब तनवीर को श्रध्दांजलि

शुक्रवार ,१२जून को राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ एवं राजस्थान जन नाट्य संघ की ओर से रंगकर्मी हबीब तनवीर को स्मरण किया गया। वरिष्ठ रंगकर्मी रणवीर सिंह ने हबीब तनवीर के साथ व्यतीत की किये गए पलों का स्मरण करते हुए उन्हें आधुनिक थियेटर का महान व्यक्तिव बताया । नाट्य निर्देशेक सरताज नारायण माथुर एवं कवि नाटक लेखक नन्द किशोर आचार्य ने हबीब तनवीर के नाट्य कर्म को रेखांकित किया । गोविन्द माथुर, राजा राम भादू एवं किरण राठौड़ ने भी विचार व्यक्त किए । प्रलेस के महासचिव प्रेम चंद गाँधी ने सञ्चालन किया। अंत में दो मिनट का मौन रख कर, हबीब साहेब के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गयी.





रविवार, 26 अप्रैल 2009

साहित्य दिवस 2009 आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट


हम अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और विरासत को विकृत होने से बचाएं- जितेन्द्र भाटिया

साहित्यकार नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़े हों-

प्रो. अली जावेद

जयपुरः राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ एवं राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में अकादमी के सभागार में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना दिवस के अवसर पर 9 अप्रेल, 2009 को साहित्य दिवस का आयोजन किया गया। प्रतिष्ठित कथाकार एवं लेखक जितेन्द्र भाटिया के मुख्य आतिथ्य में आयोजित इस समारोह में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद विशिष्ठ अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्यकार डा. हेतु भारद्वाज ने की। आयोजन के पहले सत्र में ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषयक विचार गोष्ठी हुई तथा दूसरे सत्र में राजस्थान के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों ने यशवंत व्यास की अध्यक्षता में अपनी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया।

समारोह के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित कथाकार जितेन्द्र भाटिया ने कहा कि राजस्थान की एक पुरानी, समृद्ध, और सशक्त सांस्कृतिक परम्परा रही है, जो इधर बहुत तेजी से बदलती जा रही है और इसकी वजह मुख्‍य रूप से सांस्‍कृतिक आक्रमण के साथ साथ राजनैतिक भी है। पिछले कुछ समय से वे स्वयं अपने आप से एक सवाल करते रहे हैं कि वे क्यों लिखते हैं। यह बहुत मुश्किल सवाल है। एक सक्रिय लेखक के लिए इसको समझना और परखना बहुत जरूरी है। उस लेखक के लिए तो और भी जरूरी है जो यह दावा करता है कि वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। सक्रियता या रचनात्मकता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। कहीं अपने आपको जीवित रखने के लिए या अपने आपको सार्थक बनाये रखने और अपने इर्द-गिर्द का जो समाज है उसमें योगदान देने के लिए यह जरूरी है।

उन्होंने कहा कि उनके भीतर एक सामाजिक अपराध बोध है तथा उन साहित्यकारों के साथ भी शायद ऐसा ही होगा कि इस समाज ने जो दिया है यानी चीजों को समझने और विश्लेषण करने की तमीज दी है उसे हमने कितना वापस लौटाया। वे जब इस समीकरण पर उतरते हैं तो अपने को एक विचित्र अपराधगग्रस्तता में पाते हैं। एक व्यक्ति के निर्माण में समाज के बहुत से लोगों का योगदान होता है। शिक्षक, माता-पिता, पड़ोसी, मित्रों और अनेक लोगों के योगदान से आदमी समृद्ध होता है। इसलिए साहित्यकार के लिखने के पीछे एक सशक्त कारण है। इस अपराध भाव को समाज को परिवर्तित नहीं कर पाने या अपने समाज को उस तरह कार्यान्वित नहीं कर पाने की मजबूरी या छटपटाहट के तहत लेखक लिखता है। यह जरूरी नहीं कि इससे समाधान निकले लेकिन उसकी कोशिश बनी रहनी चाहिए।

भाटिया ने कहा कि जो अपनी स्मृति को याद रखता है उसे हम अविष्कारक मान सकते हैं और जो अपनी स्मृति, अपने इतिहास, समाज की सारी विसंगतियों (जो पूर्वजों ने झेली हैं) को भूलता है तो वह कहीं अपने आपको भूलता है और कहीं वह उस अविष्कार का ह्रास करता है। यह बहुत जरूरी है कि हम इस चीज को आत्मसात करें। इसे सरलीकृत तरीके से देखने की जरूरत नहीं है जो विसंगतियां नैतिक तौर पर या तमाम दूसरी चीजों में दिखाई देती हैं।

भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ का उदाहरण देते हुए जितेन्द्र भाटिया ने बताया कि 1947 में विभाजन के 20 वर्ष बाद उनकी रचनाओं में वे चीजें बहुत सलीके से आई जिसको वे अपने भीतर दबाए हुए थे। उनकी रचनाओं में हो-हल्ला नहीं है या किसी आंदोलनकर्ता जैसा व्यवहार नहीं दिखता। वह स्वतः और शनैः-शनैः रचनाओं में उतरता है। इसलिए हमें अपने प्रदेश की संस्कृति और परम्परा को सूक्ष्म दृष्टि से समझने-देखने की जरूरत है। इसे पूरी तरह सामन्ती कहकर नकार नहीं सकते। उनमें से ऐसे तत्व ढूंढने की जरूरत है जो कहीं हमें जोड़ती अथवा समृद्ध करती है। उन्हें ढूंढे बगैर हम प्रगतिशील सोच आगे नहीं बढ़ा पायेंगे। हमें चीजों को विकृत करने वालों के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा। हमें स्मृति और आविष्कार का इस्तेमाल अपनी परम्परा और संस्कृति को समझने के लिए करना चाहिए क्योंकि जो लोग इसके ठेकेदार बने हैं उनके इरादों में बेईमानी और खोट है और वे राजनीति के तहत चीजों के देखते हैं। वे संस्कृति में भी राजनीति ढूंढेंगे। हमारी परम्परा में जो चिन्ह हैं उन्हें देखने समझने की जरूरत है। आज के समाज में चीजे जिस तरह विकृत हो रही हैं उसे रोकना होगा तभी हम अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और विरासत को बचा सकते हैं।

विशिष्ट अतिथि नेशनल कौंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू के पूर्व निदेशक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद ने कहा कि लोकतंत्र में चीजों का जो राजनीतिकरण होता है वह हमारे समाज और नई पीढ़ी में न केवल भ्रामक पैदा करता है बल्कि घातक भी है। उन्होंने कहा कि भगतसिंह इस मुल्क के ऐसे इंकलाबी नेता थे जिनका अधिकतर लेखन उर्दू में हुआ। ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा उन्होंने दिया। ऐसी अजीम शख्सियत को आप सिख समुदाय तक सीमित नहीं कर सकते। आजादी के 60 साल बाद भी आज हमारी पहचान जाति और धर्म के आधार पर हो तो चिंताजनक है। भगतसिंह ने धर्म और जाति से ऊपर उठकर देश की आजादी के लिए काम किया। इसी तरह बेगम हजरत महल ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के आगे झुकने की बजाय नेपाल मे शरण लेकर आजादी की मुहिम को जारी रखा।

प्रो. जावेद ने कहा कि आज जब हम प्रगतिशील लेखक के स्थापना दिवस पर चर्चा कर रहे हैं तो हमें प्रगतिशील आंदोलन को आज परिपेक्ष्य में अपनी सार्थक भूमिका निभाने के बारे में विचार करना होगा। इस आंदोलन को आज 73 साल हो गये। उस वक्त जब देश और दुनिया पर जंग का खतरा मण्डरा रहा था तब दो धाराओं ने काम शुरू किया था। एक तरफ राजनीति थी और दूसरी तरफ लेखक, शायर और बुद्धिजीवी वर्ग था जिसने सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए आन्दोलन में अपनी महती भूमिका निभाई। आज की चुनौतियों को देखते हुए हमें इस सांस्कृतिक आंदोलन को जनता के बीच ले जाना होगा। शहीद भगतसिंह और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के बाद देश की बेहबूदी, श्रम की निष्ठा, मजदूरों के हक और आम आवास की खुशहाली के जो सपने संजोए थे उन पर गौर करने की जरूरत है कि वे कितने साकार हुए। लेखकों, शायरों और बुद्धिजीवियों के सामने ये जिम्मेदारी है कि वे हकीकत को पेश करें और गरीब, मजदूर, किसान, युवा वर्ग और महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए आगे आयें।

उन्होंने कहा कि आजादी के बाद अगर यह हमारे सपनों का भारत होता तो शायद फैज़ अहमद फैज़ को यह नहीं कहना पड़ता-

ये दाग-दाग उजाला
ये शबगजीदा सहर
ये वो सहर तो नहीं
जिसकी आरजू लेकर
चले थे हम
कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दस्त में
तारों की आखिरी मंजिल।

फैज़ को यह भी कहना पड़ा था कि -

चले चलो कि
वो मंजिल अभी नहीं आई।

देश में इन हालातों पर फैज़ ही नहीं बल्कि इंकलाबी शायर मख्दूम मोहियुद्दीन ने भी इशारा किया था-

वो जंग ही क्या
वो अम्‍न ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराफ न हो
वो दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्वराज न हो
वो आजादी आजादी क्या
मजदूर का जिसमें जिक्र न हो।

प्रो. जावेद ने कहा कि यह अफसोस की बात है कि आजादी के छः दशक बाद भी हम सामंती समाज से आये जन प्रतिनिधियों को राजासाहब और रानी साहिबा जैसे सामन्ती संबोधन देते हैं। हमारी मानसिकता आज भी नहीं बदली। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलती तब तक इस दलदल से उभर नहीं सकते। इसलिए हमें अपनी परम्परा और विरासत को याद करते हुए नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़ा होना पड़ेगा।

उन्होंने चिंता दर्शाई कि आजादी के बाद हमने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की थी लेकिन उसके बदले में नफरत और आपस में बांटने वाले हालात मिले। हमारे पुरोधा लेखकों प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर, मख्दूम, निराला ने भी हमेशा धर्म की बेहतरीन परम्पराओं की ओर इशारा किया। आज हमें उनका अनुसरण करते हुए नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी। हमारे अदीब और शायरों में कबीर, तुलसी, गालिब और मीर की परम्परा को 1936 के बाद प्रगतिशील आंदोलन ने जिस तरह आगे बढ़ाया उसे गति देनी होगी।

प्रो. जावेद ने कहा कि आज हर चीज को हमने उपयोग की चीज मान लिया है और उपभोक्तावादी रवैया अपना लिया है। मल्टीनेशनल ताकतें तीसरी दुनिया के देशों के समाज और संस्कृति को उपभोक्तावादी बनाने में लगी हुई हैं। हम भी कहीं न कहीं उसका शिकार होते जा रहे हैं। हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं। फिल्मों ने भी यही काम किया है। आज ऐसे गीत और नृत्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो हमारी पूरी परम्परा को आहत करने वाले हैं। ऐसी अवस्था में हमें अपनी परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के बारे में विचार करने की जरूरत है तभी प्रगतिशील आंदोलन की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेजी तालीम के खिलाफ होने की जरूरत नहीं है लेकिन जो हमारे जीवन मूल्य हैं, वे तिरोहित नहीं होने चाहिए। भारतीय संस्कृति का नारा देने वाले चन्द लोग उसको धर्म के साथ जोड़ कर देखते हैं जबकि हमारी संस्कृति तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की रही है।

प्रो. जावेद ने कहा कि आज कदम-कदम पर हमें धर्म और जात-पात पर अपनी पहचान कराने की कोशिश की जा रही है। आज वक्त आ गया है कि हम उन जीवन मूल्यों को फिर से मजबूत करने की कोशिश करें जो हमारी शानदार विरासत का हिस्सा है। हमारा लेखक, कलाकार, शायर और बुद्धिजीवी अभी तक राजनीतिज्ञों की भांति भ्रष्ट नहीं हुआ है जिस तरह सियासत तो एक व्यापार और कैरियर हो गया है और वहां कोई प्रतिबद्धता नहीं रह गई है। साहित्यकारों को अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती के साथ व्यक्त करने की आवश्यकता है। हमें यह संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समाज को जाति और धर्म के आधार पर नहीं बंटने देंगे और नफरत नहीं फैलने देंगे। हमें अपनी कमजोरियों को दूर करना होगा। अगर हम अपने फर्ज को याद रखेंगे तो इस मकसद में जरूर कामयाब होंगे।

इससे पूर्व प्रमुख आलोचक एवं साहित्यकार राजाराम भादू ने ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषय पर बीज भाषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज साहित्यकारों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हमें लोकतंत्र की विसंगतियों के बीच अपने लेखन का दायित्व निभाते हुए समाज के प्रति अपनी सार्थक भूमिका को निभाने की महती आवश्यकता है। आज हालात जिस तरह से बदल रहे है उससे समाज को परिचत कराकर उन्हें जन-विरोधी ताकतों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करना होगा।

प्रगतिशील लेखक संघ, अजमेर के महासचिव अनन्त भटनागर ने कहा कि राजस्थान में स्वाधीनता के बाद साहित्य सृजना तो लोकतंत्र को प्रोत्साहित करने वाली हुई है और कहानी-कविता के माध्यम से जनवादी साहित्य भी रचा गया है और बहस-मुबाहिसों में भी लोकतंत्र केन्द्र बिन्दु रहा है। लेकिन लोक से रिश्ता बनाने में हमारे साहित्यकर्मी सफल नहीं हो पाये हैं। यह त्रासदी है कि वर्तमान में जैसा लोकतंत्र निर्मित होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया। कोई बड़ा जन आंदोलन निर्मित करने में भी हमारी साहित्यिक पीढ़ी को कामयाबी हासिल नहीं हुई है। राजस्थान में वर्तमान में साहित्य के जो आंदोलन चल रहे हैं या जो पहले भी चले हैं उनमें भी संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी बहुत कम रही है। साहित्यकारों की सुविधाभोगी प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। लोकतंत्रगामी शक्तियों के विरोध में या सूचना का अधिकार जैसे जन-आंदोलन और साहित्य आंदोलन के पक्ष में साहित्यकारों की भूमिका आज बढ़ाने की आवश्यकता है।

भटनागर ने कहा कि आज विचार और सृजन के व्यापकीकरण की जरूरत है। राजस्थान के जन आंदोलन विचार से बहुत अधिक समृद्ध करनेकी जरूरत है। विचार के प्रति लोगों में श्रद्धा है लेकिन साहित्य उसे सींचता तो वह एक बड़ा आंदोलन का रूप ले सकता था और उसका ज्यादा प्रभाव पड़ सकता था। हम किस तरह विचार को जन आंदोलन तक कैसे ले जा सकते हैं, इस पर चिंतन करने की जरूरत है।

उन्होंने कहाकि दुर्भाग्यवश पिछले 20 वर्षो में सामन्तवाद के साथ साम्प्रदायिकता का प्रसार हुआ है, जिसका विरोध करने में साहित्यकार पीछे रहे हैं। गुजरात हमारा पड़ौसी राज्य है। उसके साथ हमारे गहरे सांस्कृतिक संबंध भी रहे है लेकिन गुजरात की घटनाओं और विशेष रूप से साम्प्रदायीकरण के प्रति राजस्थान से प्रखर विरोध का स्वर नहीं उठ सका। राजस्थान को गुजरात बनाने की मुहिम भी इसीलिए तेजी से आगे बढ़ी है। इसे विरोध का स्वर देने में हमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है। ऐसे समय में हम जिस प्रगतिशील विचार से जुड़े हुए हैं उसके प्रसार और क्रियान्वयन में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोड़ा ने कहा कि राजस्थान में आजादी की लड़ाई तीन स्तरों पर लड़ी गई। यह लड़ाई एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ सामन्तवाद तथा तीसरी तरफ स्थानीय राजाओं और जागीरदारों से लड़ी गई लेकिन आजादी के बाद के 60 वर्षो में हमने लोक को शक्ति नहीं दी। लोकतंत्र के नाम पर तंत्र हावी होता रहा। हमारा सदियों तक यह सोच रहा है कि किसी तरह सस्ता निकालो। हमारे यहां छुआछूत की परम्परा रही जिससे बचने की कई गलियां निकाल ली गई। आजादी के बाद हमने कानून बनाये लेकिन उसमें भी बच निकलने की गलियां मौजूद हैं।

बोड़ा ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन राजाओं-सामान्तों से हमारा विरोध था, लोकतंत्र की स्थापना के बाद उन्हीं में से लोग निकल कर लोकतंत्र के नियामक बन गये। लोक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली चीज आर्थिक नीति होती है। इन नीतियों का नियंता ‘वी द पीपुल’ नहीं है। वोट देने के बाद लोक की 5 वर्षों के लिए सारी सार्वभौमिकता खत्म हो जाती है। नीतियां वह तय करता है जिसे हम चुनते हैं। होना तो यह चाहिए कि हम उसे बतायें कि नीतियां क्या होनी चाहिए। लोकतंत्र में लाॅबियां होती हैं लेकिन लोक की कोई सशक्त लाॅबी नहीं बन पाई। उद्योगपतियों, धनपतियों की लाॅबियां बनीं। इधर आर्थिक मंदी का दौर आया और चर्चा होने लगी कि सैंसेक्स गिर गया। सोचने की बात यह है कि इस सैंसेक्स की हमारी जी.डी.पी. में कितनी भागीदारी है। जी.डी.पी. को असली मदद तो लोक दे रहा है लेकिन उसकी कोई बात नहीं करता। कुल आबादी का 5 या 10 प्रतिशत वर्ग पूरे 90 प्रतिशत लोक का शोषण करता है।

वर्तमान समय में विचार की महत्वपूर्ण भूमिका बताते हुए बोड़ा ने कहाकि विचार को लोक पर प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है। यह दुखद है कि हमारी आर्थिक नीतियां बनाने वाले ये कहते हैं कि हमारा राष्ट्र समाजवादी है लेकिन हमें केपेटेलिस्ट टूल्स का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हमारा गला पकड़कर बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ हमारे साहित्य या संस्कृति ने कोई बड़़ा प्रयास नहीं किया। हम साहित्य की विधा कहानी-कविता के जरिए लोक की अस्मिता लौटाने में मदद करें और उसका सशक्तिकरण करें। आजादी के 60 वर्षों बाद भी जयपुर में किसी राजा की मूर्ति लगती है जबकि उसी राज परिवार के मुखिया को लोकतांत्रिक चुनाव में जनता ने हराया लेकिन हमने उसके पूर्वज की मूर्ति लगाने का विरोध नहीं किया। कहीं तो हमारा सरोकार नजर आना चाहिए। लोक को यह अहसास कराने की जरूरत है कि उसका नियंता और कोई नहीं वह स्वयं है। चिंता की बात है कि हमारे यहां सामन्तवाद ने लोकतंत्र के हथियार को अपना लिया है और लोक को दब्बू बनाये रखा है। आज विचार और साहित्य से जुड़े लोगों को प्रतिक्रियावादी लोगों का विरोध करने की जरूरत है। आज की व्यवस्था ने मीडिया का भी बेजा इस्तेमाल किया है। ऐसे समय में हमारी चुनौतियां और बढ़ जाती हैं।

पुरातत्वविद हरिशचन्द्र मिश्रा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमें मीडिया का साथ लेकर विचार को आगे बढ़ाना होगा। हमारा लोकतंत्र का जो मूल मंत्र था उसकी ओर नागरिकों को लौटाने के लिए साहित्यकारों की महती भूमिका है।

राजेश चैधरी (ब्यावर) ने कहा कि रचनाकर्म और सामाजिक सक्रियता अपने आप में महत्वपूर्ण है। जन आंदोलनों के साथ साहित्यकारों के जुड़ाव का प्रभाव दिखाई देना चाहिए। प्रबुद्ध लोगों को अपने रचनाकर्म के साथ जन आंदोलनों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय सहभागिता निभाने की जरूरत है।

राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के निदेशक डा. आर.डी.सैनी ने कहा कि हमारे यहां अभी भी सामन्ती तत्व मौजूद हैं। संस्थानों में लोकतंत्रीकरण की जरूरत है। लोकतंत्र में विचारों की स्वीकार्यता भी लोकतांत्रिक तरीकों से होती है। ये फैसले दबाव समूहों से होते हैं। अगर हमें अपने हक में फैसले कराने हैं तो दबाव समूह बनाना चाहिए। अध्यक्षता करते हुए राजस्थान प्रगतिषील लेखक संघ के अध्यक्ष डा. हेतु भारद्वाज ने कहा कि रचनाकार को शब्द और कर्म के बीच की दूरी कम करनी होगी और लोक से जीवंत संपर्क स्थापित करना होगा। उन्होंने कहा कि आज संाप्रदायिकता कई रूपों में सामने आ रही है और समाज में आपसी वैमनस्य और घृणा बढ रही है जिससे रचनाकर्म भी अछूता नहीं है। हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता प्रदर्षित करते हुए समाज को भी सावधान करना होगा।

साहित्य दिवस के दूसरे सत्र में प्रतिष्ठित पत्रकार एवं व्यंग्यकार यशवंत व्यास की अध्यक्षता में व्यंग्य पाठ का आयोजन किया गया। इसमें प्रदेश के प्रमुख व्यंग्यकारों यशवंत व्यास, सम्पत सरल, फारूक आफरीदी, अनुराग वाजपेयी, अजय अनुरागी, मदन शर्मा ने प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं का रसास्वादन किया। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि गोविन्द माथुर ने कविता पाठ और कथाकार श्याम जांगिड़ ने कहानी पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन अशोक राही ने किया।

राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने प्रारंभ में इस आयोजन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सांस्कृतिक कला रूपों से सम्बद्ध लेखक, कलाकार, पत्रकारों की भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका की आज आवश्यकता है। राजस्थान में कलाओं के लोकतांत्रिकीकरण के कुछ निजी स्तर पर प्रयास जरूर हुए हैं, लेकिन आज जो चुनौतियां देश और समाज के सामने हैं उनको मद्देनजर रखते हुए इन प्रयासों को बढ़ाना होगा। प्रगतिशील विचारधारा से जुडे़ लेखकों की जिम्मेदारी आज अधिक बढ़ गई है। उन्हें अपने लेखन के साथ जन-आंदोलनों में भी अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करना होगा।

रिपोर्ताजः फारूक आफरीदी, ई-750, गांधी नगर, न्याय पथ, जयपुर-302015 मो. 94143 35772

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

साहित्य दिवस पर दो सत्रों में संगोष्ठी और व्यंग्य रचना पाठ

जयपुर. राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ और राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में नौ अप्रेल को साहित्य दिवस समारोह मनाया जाएगा. अकादमी के झालाना डूंगरी स्थित सभागार में दो सत्रों में आयोजित होने वाले इस समारोह के पहले सत्र में प्रातः 11 बजे ‘साहित्य, संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान' विषय पर चर्चा होगी और दूसरे सत्र में जयपुर के प्रमुख ख्यातिनाम व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य रचनाओं का पाठ करेंगे. संघ के प्रदेश महासचिव प्रेमचंद गाँधी ने बताया कि हिन्दी के सुविख्यात कथाकार जितेंद्र भाटिया इस समारोह में मुख्य अतिथि होंगे, जबकि अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के उप-महासचिव अली जावेद विशिष्ट अतिथि होंगे.
प्रदेश के विभिन्न अँचलों की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत के अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर राजास्थान के शीर्ष साहित्यकार, लेखक और कलाकार गहन चर्चा करेंगे. इस चर्चा में अलवर से शम्भू गुप्त, अजमेर से अनंत भटनागर, सिरोही से माधव हाडा, हनुमानगढ़ से भरत ओला, चुरू से रामकिशन अडिग और मेड़ता से विजय सिंह नाहटा भाग लेंगे. राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डा. हेतु भारद्वाज इस सत्र की अध्यक्षता करेंगे.
दोपहर भोजन के बाद अपराह्न 2.30 बजे व्यंग्य रचना पाठ सत्र आयोजित होगा, जिसमें प्रदेश के प्रमुख महत्वपूर्ण व्यंग्यकार फारूक आफरीदी, संपत सरल, पूरण सरमा, अनुराग वाजपेयी, अजय अनुरागी और डा. यश गोयल अपनी रचनाओं का पाठ करेंगे. प्रसिद्ध व्यंग्यकार और पत्रकार यशवंत व्यास इस सत्र की अध्यक्षता करेंगे और अशोक राही सत्र का संचालन करेंगे.
साहित्य दिवस का इतिहास
नौ अप्रेल, 1936 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मलेन हुआ था, जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की थी. इस अवसर पर ही मुंशी प्रेमचंद ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था 'साहित्य का उद्देश्य', जो आज भी साहित्य की दुनिया में अपना अलग महत्त्व रखता है. नौ अप्रेल को ही महान साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन का जन्म दिवस भी है. राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने नौ अप्रेल को साहित्य दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की थी, जिसे अब पूरे देश में मनाया जाता है.

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

नौ अप्रेल को है साहित्य दिवस


नौ अप्रैल को प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मलेन लखनऊ 1936 में हुआ था। इसी की याद में नौ अप्रैल को 'साहित्य दिवस' के रूप में मनाया जाता है। राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने इस की शुरुआत की थी। इस बार मनाये जाने वाले 'साहित्य दिवस समारोह' के लिए राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ की राज्य समिति के सदस्यों को भेजे गए परिपत्र का विवरण यहाँ प्रस्तुत है।

हर वर्ष की भांति हम इस वर्ष भी प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना दिवस 9 अप्रेल, 2009 को मनाने जा रहे हैं। इस वर्ष हम ‘साहित्य-संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विशय पर केंद्रित कार्यक्रम करने जा रहे हैं। हमारा मानना है कि समस्त कलानुशासन स्वायत्त होते हुए भी परस्पर एक दूसरे से न केवल गहरे जुड़े होते हैं, बल्कि कई मायनों में समाज को एक स्वस्थ और लोकतांत्रिक अंतर्दृष्टि प्रदान करने में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। हमारे प्रदेश की बहुरंगी संस्कृति, लोक कलाएं, आधुनिक कलाएं और बहुभाषी साहित्यिक विरासत इस दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है और कई मामलों में अन्य प्रदेशों से बहुत आगे भी। इस बार के साहित्य दिवस आयोजन में हम प्रदेश की इसी समृद्ध विरासत के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए यह जानने का प्रयास करेंगे कि आज के हालात में हमारी महान विरासत की क्या स्थिति है और पूरे प्रदेश में व्यापक स्तर पर इस संबंध में क्या कुछ किये जाने की आवश्यकता है। दो सत्रों में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में दूसरे सत्र में प्रदेश के प्रमुख व्यंग्यकारों का रचना पाठ भी होगा। पहली बार प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले जयपुर में व्यंग्य रचनाओं का पाठ कार्यक्रम होने जा रहा है। आपसे अनुरोध है कि हमेशा की तरह अपनी सक्रिय सहभागिता से आयोजन को सफल बनाएं। कार्यक्रम की विस्तृत सूचना आपको जल्द ही निमंत्रण पत्र द्वारा भेजी जा रही और ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर दी जायेगी।
जून, 2009 में हम दो दिवसीय, वृहद राज्य स्तरीय लेखक सम्मेलन करने जा रहे हैं और इस सम्मेलन में प्रदेश की सभी भाषाओं के लेखक भाग लेंगे। पहली बार प्रलेस प्रदेश के तमाम लेखकों को एक मंच पर लाने जा रहा है। यह आयोजन किसी नगर के बजाय एक रमणीक प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थल पर करने की योजना है, जिसके बारे में जल्द ही सूचित किया जाएगा।

मंगलवार, 24 मार्च 2009

मखदूम की कुछ और तस्वीरें

पिछली पोस्ट में किए गए वादे के मुताबिक इस बार हम मखदूम मोहिउद्दीन साहेब की कुछ और तस्वीरें यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। यहाँ मखदूम की तीन फोटो हैं और मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा बनाई गई तीन नायब पेंटिंग्स भी। आशा है आपको यह पसंद आएँगी।





मकबूल फ़िदा हुसैन ने मखदूम की शख्सियत और शायरी से प्रभावित होकर कुछ पेंटिंग और स्केच बनाए थे, यहाँ पेश हैं तीन तस्वीरें।















एक कलाकार की नज़र में मखदूम।







अगर आप मखदूम मोहिउद्दीन की ज़िन्दगी और शायरी के बारे में और जानना चाहते हैं तो वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित 'सरमाया' पढ़ें, जिसे नुसरत मोहिउद्दीन और स्वाधीन ने संपादित किया है। यह हिन्दी में एक प्रकार से 'मखदूम समग्र' है।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

मखदूम मोहिउद्दीन की तस्वीरें

दोस्तों,
पिछले दिनों हमने जयपुर में जब प्रगतिशील लेखक संघ की और से मखदूम जन्मशती कार्यक्रम आयोजित किया तो मीडिया के कई दोस्तों ने नेट पर मखदूम साहब की तस्वीरें तलाशीं, तो उन्हें निराशा हुई। हमने भी सोचा किइस बारे में कुछ किया जाना चाहिए, सो मखदूम साहब के सुपुत्र नुसरत से गुजारिश कीउन्होंने जो तस्वीरें हमें उपलब्ध कराईं, उन में से कुछ तस्वीरें यहाँ पोस्ट कर रहें हैं। अगली बार कुछ और तस्वीरें दोस्तों के लिए उपलब्ध करायेंगे।
अपने ही ख्यालों में गम हैं मखदूम साहब।
एक अन्तरंग दोस्त से बतियाते हुए मखदूम। दोस्तों की एक महफ़िल में मखदूम।
एक खूबसूरत दोस्त के साथ मखदूम।
शायर दोस्तों के बीच मखदूम।
आंध्र विधानसभा के अपने सदस्य मित्रों के बीच मखदूम मोहिउद्दीन।
एक जनसभा को संबोधित करते हुए मखदूम।
मखदूम के साथ उनकी परम मित्र, कवयित्री और आंध्र विधानसभा की सदस्य इंदिरा राजगीर बातचीत में मशगूल हैं।
महानचित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन की कूंची से बना एक रेखाचित्र, इस पर उर्दू में मखदूम की शायरी भी अंकित है।
इस चित्र में मखदूम के साथ उनके अजीज दोस्त राज बहादुर गौड़ और अन्यमित्र बैठे हैं। मखदूम साहब की कुछ और तस्वीरें अगली पोस्ट में देखियेगा।

सोमवार, 16 मार्च 2009

प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों का साझा ब्लॉग


दोस्तों,

देश के सबसे पुराने और विशाल लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ की देशव्यापी गतिविधियों की सूचनाएँ और महत्वपूर्ण जानकारियाँ साझा करने के उद्देश्य से इस ब्लॉग को बनाया गया है। अगर आप प्रगतिशील लेखक संघ के पदाधिकारी हैं या कार्यकर्त्ता हैं तो कृपया अपनी ईकाई की ज़रूरी जानकारियाँ इस ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं। इसके लिए एक बार ब्लॉग मोडरेटर से संपर्क करना होगा और आपको सदस्यता मिल जायेगी। यह बिल्कुल मुफ्त है। इस ब्लॉग पर आगामी कार्यक्रमों की सूचनाएँ, अपने इलाके की साहित्यिक खबरें, लेखकों के बारे में ज़रूरी जानकारियाँ, सम्मान-पुरस्कार की खबरें, लेखकों की हारी- बीमारी, नईकिताब, नई पत्रिका, नए अंक, लेखक की यात्राएँ, सहयोग-समर्थन की जानकारियां, यानी वो तमाम सूचनाएँ, जो लेखक समुदाय के लिए उपयोगी हो सकती हैं, आप इस ब्लॉग पर पोस्ट कर सकते हैं। तो देर किस बात की, अभी सदस्यता के लिए आपके इस नाचीज़ साथी को एक ईमेल लिखिए, और ज़रूरी लगे तो एक बार फ़ोन लगा लीजिये, मेरा मोबाइल नंबर है 9829190626

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

इन्कलाबी शायर मख़्दूम मोहिउद्दीन का जन्म शताब्दी समारोह



मखदूम की जिन्दगी और उनकी शायरी में कोई अन्तर्विरोध नहीं था-नुसरत


मखदूम में अपने समय को जांचने और परखने की अद्भुत क्षमता थी-स्वाधीन


मख़्दूम हमारे साहित्य का शानदार सरमाया है-कृष्ण कल्पित



जयपुरः राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ और राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में 8 मार्च, 09 को अकादमी सभागार में हिन्दुस्तान के इन्कलाबी शायर और स्वतंत्रता सेनानी मख़्दूम मोहिउद्दीन की जन्म शताब्दी श्रद्धापूर्वक मनाई गई।
मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित शायर और मख़्दूम मोहिउद्दीन के सुपुत्र नुसरत मोहिउद्दीन ने उनके जीवन के अछूते और अंतरंग संस्मरण सुनाते हुए बताया कि मख़्दूम की बातचीत का अंदाज अनूठा और प्रभावित करने वाला था। उन्होंने कहा कि मख़्दूम की जिन्दगी और उनकी शायरी में कोई अन्तर्विरोध नहीं था। वे जो देखते थे उसका अक्स उनकी शायरी में प्रतिबद्धता के साथ झलकता था। वे बच्चों को बताते थे कि हम अपराधी के रूप में जेल यात्रा नहीं करते थे बल्कि गरीबों को उनका हक और किसानों को उनकी जमीनें दिलाने के लिए जेल जाते हैं।
अपना संस्मरण सुनाते हुए नुसरत ने बताया कि एक बार हिन्दुस्तान की मशहूर महिला कव्वाल शकीला बानो भोपाली उन दिनों हैदराबाद आई हुई थीं और मख़्दूम मोहिउद्दीन की लिखी गजल को अपनी आवाज में सजाने के लिए रियाज कर रही थी। हमें उनसे मिलने की चाहत हुई तो अपने वालिद मख़्दूम साहब को बिना बताये ही उनका शेरवानी शूट पहनकर उस होटल में पहुंच गये जहां शकीला जी ठहरी हुई थीं। कुछ देर बाद जब मख़्दूम साहब वहां आये तो हमें देखकर हैरत में पड़ गये और अपने ही अंदाज में कहने लगे, ’तो जनाब आप यहां पहुंच गये। ये सूट तो मुझे पहनकर आना था। खैर, आप लोग शकीला जी से मिल लिए हैं और आपका मकसद पूरा हो गया है तो अब घर चले जाएं और यह सूट एहतियात से हैंगर में लगाकर रख दें। उनकी बात सुनते हुए हम पसीना-पसीना हो रहे थे।’
नुसरत ने बताया कि मैंने प्रेम विवाह किया जिससे घर वाले नाराज थे। अपने पिता को जब यह बात पता चली तब वे जेल में थे। उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा कि फिक्र मत कीजिए और मेरे दोस्त राज बहादुर गौड़ से मिलिए जो आपको सरपस्ती देंगे। उनकी सरपरस्ती में ही शादी हुई थी, लेकिन हम शादी के बाद अपने घर नहीं गये। जब पिता मख़्दूम साहब जेल से छूटे तो वे हमें लेकर घर आये। बच्चों के साथ उनका हमेशा अच्छा सलूक रहता था। वे जहां भी जाते या रहते तो वहां के वाकियात, रहन-सहन, खानपान की बातें हमसे किया करते थे। मख़्दूम साहब बेशक आम लोगों की लड़ाई में साथ खड़े हुए रहते थे, लेकिन परिवार के लोगों और बच्चों से भी बराबर जुड़े रहते थे। हमने उन्हें दिली तौर पर कभी अपने से अलग महसूस नहीं किया।
नुसरत ने मख़्दूम की स्मृति में लिखी एक नज्म की ये पंक्तियां सुनाते हुए अपनी बात पूरी की-
दिन से महीने और फिर बरस बीत गयेफिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती हैफिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती हैफजाओं में आसमानों मेंमुझे यूं महसूस होता हैजैसे तू हयात बन गया हैऔर मैं मर गया हूं।
हैदराबाद से आये समारोह के मुख्य वक्ता, प्रतिष्ठित कवि और ’हिन्दी साहित्य संवाद’ के सम्पादक शशिनारायण स्वाधीन ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब उपनिवेशवाद से लड़ाई चल रही थी तब मख़्दूम मोहिउद्दीन ’अंधेरा’ नज्म कह रहे थे। आजादी की लड़ाई के समापन पर नये सूरज के स्वागत के प्रति गिरिजा माथुर ने भी हमें सावधान किया था। यह एक मोहभंग के समय की ओर संकेत था - ’आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना’ और मख़्दूम खुले रूप में कह रहे थे -
रात की तलछटें हैं, अंधेरा भी है, सुबह का कुछ उजाला, उजाला भी हैहमदमों हाथ में हाथ दोसूए मंजिल चलोमंजिलें प्यार की मंजिले दार की कूए दिलदार की मंजिलेंदोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो।
स्वाधीन ने मख़्दूम और मुक्तिबोध के साहित्य की शाश्वतता पर विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि हर तरफ जब अंधेरा था तब उसके खिलाफ हमारे यहां मख्दूम और मुक्तिबोध जैसे दो बड़े रचनाकार संघर्ष कर रहे थे। इन दो क्रांतिकारी और युग परिवर्तनकारी कवियों का सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक संघर्ष अलग-अलग भूगोल और स्थितियों से जुड़ा रहा, लेकिन इनके मूल संघर्ष की धारा, साम्राज्यवाद के विरुद्ध कहीं अधिक निकट और पास-पास देखी जा सकती है। मख़्दूम को समझने के लिए देश, काल और इतिहास के साथ हमें कवि की संघर्ष भूमि-तेलंगाना के सशस्त्र संग्राम को भी समझना जरूरी है। इस संघर्ष में मख्दूम ने गरीब किसानों को निजामषाही और सामंतों-जागीरदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए खुद बंदूक उठाई थी और निजाम के साथ अंग्रेजों की सेना का भी मुकाबला किया था।
स्वाधीन ने कहा कि मख़्दूम मुक्तिबोध की तरह पहले अध्यापन से जुडे़। उन्होंने जीवन के प्रारम्भिक दिनों में निचले दर्जे की जिन्दगी का सामना किया, एक अनाथ बच्चे के रूप में मस्जिदों में झाड़ू लगाते हुए उन्होंने बचपन बिताया और बड़ी जद्दोजहद करते हुए तालीम हासिल की। जब उन्होंने अध्यापन शुरु किया तब वे अपने छात्रों को अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में रुसी साहित्य का अनुवाद करने की प्रेरणा देते थे। यह साहित्य उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध लोगों को तैयार करने वाला था। मख़्दूम क्लास रूम में पाठ्यपुस्तकों के पाठ की बजाय निजाम और जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध अधिक बोलते थे। बाहर उनकी ख्याति एक इन्कलाबी शायर के रूप में हो गई थी। एक दीक्षान्त सामारोह में निजाम उस्मान अली खान आमंत्रित थे। तब मख़्दूम के नेतृत्व में सैकड़ों छात्रों ने ’गाॅड सेव दी किंग’ राष्ट्रीय गीत को गाने से इंकार कर दिया था और मख़्दूम ने उसकी जगह अपना गीत ’धंसता है मेरेे सीने में जैसे बांस का भाला, वो पीला दुशाला सुनाया। गौरतलब है कि निजाम हरा साफा बांधते थे और पीला दुशाला ओढ़ते थे। इस घटना के बाद मख़्दूम ने काॅलेज से इस्तीफा दे दिया। सितम्बर 1939 में जब साम्राज्यवादी जंग हुई उस समय मख़्दूम ने इन्कलाबी नज़्म लिखी जिसमें आने वाली नई विश्वव्यवस्था की ओर बढ़ने की आशा थी।
स्वाधीन ने कहाकि मुक्तिबोध और मख़्दूम में अपने समय को जांचने और परखने की क्षमता मौजूद थी। प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण की अतल स्पर्शिता दोनों में थी। यह कहा जा सकता है कि मख़्दूम का कवि अवामी लड़ाइयों में शामिल था। निजामशाही साम्राज्य को उखाड़ फैंकने के लिए एक तरफ उन्होंने अभियान चलाया था वहीं अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगा रखी थी। वे अपनी कलम के साथ-साथ सशस्त्र घूमते थे और हुकूमत ने उनके सिर पर उस जमाने में पांच हजार का इनाम घोषित कर रखा था। मख़्दूम मोहिउद्दीन आज भी प्रासंगिक हैं और हमेषा रहेंगे।
सुपरिचित कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि हम उन खुशनसीब भारतीयों में से एक हैं जो मख़्दूम की शायरी पढ़ते हुए बड़े हुए और हमारे साहित्यिक संस्कार उन्हीं से प्रेरित रहे। मख़्दूम सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी शायर थे। उर्दू में रोमेंटिक रिवोल्यूशनरी धारा मख़्दूम साहब से शुरु हुई। ग़ज़ल और शायरी से मख़्दूम ने क्रांति जगाने का जैसा काम किया, इस तरह पहले किसी ने शायरी को क्रांति, आम आदमी और सड़क से नहीं जोड़ा। इसके बाद तो उर्दू शायरी में एक धारा ही चल पड़ी। मज़ाज़ जैसे शायर इसी कड़ी के शायर थे। मज़ाज़ को उर्दू का कीट्स कहा जाता है लेकिन मज़ाज़ से पहले मख़्दूम जैसे कीट्स उर्दू में पैदा हो चुके थे और वही धारा थी जो मज़ाज़ तक पहुंची। संस्कृत में जिसे वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल कहा जाता है, ऐसी ही शायरी मख़्दूम साहब की थी जिसका विस्तार जीवन में होता दिखाई देता है। अगर मख़्दूम की शायरी का ठीक-ठीक अक्स हिन्दी में खोजना हो तो वह निराला या नागार्जुन में मिलेगा। वैचारिक धरातल एक होते हुए भी मख़्दूम की शायरी और मुक्तिबोध की कविता की शक्लें अलग थीं। इतनी मौलिक, इतनी पैनी और सेंसिटिव शायरी करने वाले मख़्दूम ’एक चमेली के मंडवे तले दो बदन प्यार के लिए जल गये’ जैसी और क्रांति की कविता लिखने वाले शायर की तुलना मुक्तिबोध से करने के साथ-साथ क्रांतिकारी कवि नजरुल इस्लाम से भी की जानी चाहिए। मख़्दूम सिर्फ उर्दू के शायर नहीं थे। भारतीय कविता के आसमान में जो सितारे और नक्षत्र आज हम देख रहे हैं, उनमें मख़्दूम सबसे तेज चमकते सितारे हैं। आने वाले हजारों वर्षाें तक उनकी शायरी जिन्दा रहेगी। मुक्तिबोध का संघर्ष उनका मानसिक संघर्ष था, जबकि मख़्दूम साहब ने सड़क पर आकर राजशाही और साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
कल्पित ने कहा कि मख़्दूम ने ’ये जंग है जंगे आजादी, आजादी के परचम के तले’ और ‘फिर छिड़ी बात फूलों की रात है या बारात फूलों की’ जैसी शायरी की। कहते हैं कि रेगिस्तान में गर्मी और ठंड के तापमान में जो अन्तर है वह विस्तृत भूमि और विस्तृत वेदना मख़्दूम की शायरी में मिलती है जो मख़्दूम को बड़ा बनाती है। वे हमारे भारतीय साहित्य का शानदार सरमाया हैं।’
उन्होंने कहा कि प्रगतिशील आन्दोलन में मख़्दूम का जो योगदान है उसे हमें पाॅब्लो नेरुदा या विश्व के ऐसे ही महान रचनाकारों की तरह याद करना चाहिए। उनकी कविता में जो क्रांतिकारिता दिखाई देती थी वही उनके जीवन में झलकती थी। आज के दौर में किसी को रिवोलुशनरी कहना जबकि महाश्वेता देवी द्वारा ब्यूरोक्रेट्स को भी रिवोलुशनरी कहा जाता है, कुछ सोचने को विवश करता है। आज जब हमारे प्रगतिशील और जनवादी मित्रों को पूंजीपतियों के पुरस्कार लेने से फुरसत नहीं है, ऐेसे समय में मख़्दूम को याद करना एक सही पथ को याद करना है।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रमुख कवि और मीडियाकर्मी नन्द भारद्वाज ने कहा कि मख़्दूम और उस दौर के बहुत से कवि एवं लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आजादी की लड़ाई मंे किस तरह शायरों और अदीबों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सभी परिचित हैं कि राजस्थान में अंग्रेजी हुकूमत और देशी हुकूमत के खिलाफ एक जबर्दस्त लड़ाई यहां के लेखकों ने अपने स्तर पर लड़ी। वे आजादी की मशाल को बुलन्द किए रहे। उन्होंने कलम के माध्यम से आवाज उठाई और आंदोलनों में भी शामिल रहे।
राजस्थानी कवि आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वह लड़ाई की प्रकृति ही कुछ ऐसी थी जो जागरूक लोगों को स्वतः अपने से जोड़ लेती थी। उन लोगों का आजादी और लोकतंत्र को लेकर एक खूबसूरत सपना था। वह लड़ाई कोई छोटे मकसद या आजादी प्राप्त कर लेने से सब कुछ प्राप्त हो जायेगा, इस मकसद को लेकर नहीं थी बल्कि बेहतर हिन्दुस्तान, एक अच्छा देश और एक अच्छा भविष्य बनाना है, यह बात उनके दिमाग में थी। आजादी के बाद जब यह सपना बिखरने लगा तो चाहे मुक्तिबोध हों या मख़्दूम मोहिउद्दीन, तमाम फनकार-अदीब चुप नहीं रह सकते थे। ऐसे शायरों को याद करना हमारा फर्ज भी है और जरूरत भी।
भारद्वाज ने कहा कि हम अपनी इस विरासत को सहेजकर रखें, इससे सीखें और हम इसमंे क्या जोड़ सकते हैं, इस बात पर मिल-बैठकर विचार करें। इसी में इस आयोजन की सार्थकता है। प्यार की जो पवित्र भावना थी वह मख़्दूम की नज़्मों और ग़ज़लों में मौजूद थी। ऐसे शायर की विरासत को हम अपनी विरासत का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाएं तभी लेखन की सार्थकता है।
इस अवसर पर अली सरदार जाफरी द्वारा मख़्दूम मोहिउद्दीन के जीवन संघर्ष और उनकी शायरी पर निर्मित डेढ़ घण्टे की एक फिल्म का प्रदर्शन किया गया। जयपुर में जन्मे सिने जगत के मशहूर अभिनेता इरफान ने बखूबी मख़्दूम के किरदार की भूमिका निभाई है। इस फिल्म के साथ मख़्दूम मोहिउद्दीन की आवाज में शायरी भी समारोह में मौजूद श्रोताओं को सुनाई गई। समारोह के अन्त में यशस्वी उपन्यासकार-कथाकार स्व. यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र’ और जयपुर के सांसद स्व. गिरधारीलाल भार्गव को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धाजंलि दी गई।
प्रारंभ में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने मख़्दूम मोहिउद्दीन की शायरी, उनके जीवन संघर्ष और साहित्य जगत के लिए उनके योगदान पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। गंाधी ने कहा कि मख्दूम मोहिउद्दीन को आजकल लोग एक फिल्मी गीतकार की तरह जानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मख्दूम ने कभी फिल्म के लिए नहीं लिखा। मख्दूम की रचनाओं की ताकत और लोकप्रियता के कारण फिल्मकारों ने उनकी रचनाओं को फिल्मों में लिया। उनकी कुल जमा छह रचनाएं फिल्मों में ली गई हैं। मख्दूम ने तेलंगाना में किसानों के साथ जो संघर्ष किया उसे लेकर उर्दू के महान उपन्यासकार कृषन चंदर ने ‘जब खेत जागे’ उपन्यास लिखा, जिस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई। गांधी ने कहा कि मख्दूम की प्रमुख कृतियों में सुर्ख सवेरा, गुल-ए-तर और बिसात-ए-रक्स हैं। इस जन्मषताब्दी के मौके पर नुसरत और स्वाधीन ने ‘सरमाया’ नाम से मख्दूम समग्र संपादित किया जिसे वाणी प्रकाषन ने प्रकाषित किया है। मख्दूम ने जार्ज बर्नाड शा के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का उर्दू में ‘होष के नाखून’ नाम से और एंटन चेखव के नाटक ‘चेरी आर्चर्ड’ का ‘फूल बन’ नाम से रूपांतर किया। मख्दूम ने रवींद्रनाथ टैगोर और उनकी शायरी पर एक लंबा लेख भी लिखा। ‘फूल बन’ में भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की बेटी लीलामणि ने अभिनय किया, जो आंध्रप्रदेष की रंगमंच पर आने वाली पहली अभिनेत्री थीं।इस अवसर पर प्रमुख चित्रकार एकेष्वर हटवाल ने श्रद्धास्वरूप मख़्दूम का खूबसूरत चित्र तैयार कर प्रगतिशील लेखक संघ को भेंट किया, जिस पर श्रद्धासुमन अर्पित किये गये।

रिपोर्ताज -फारूक आफरीदी, उपाध्यक्ष , राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ,ई-750, न्याय पथ, गांधी नगर, जयपुर-302015 (राज.)मो.ः 94143 35772