बुधवार, 28 सितंबर 2011

जनप्रतिबद्ध भावनाओं की विचारशील कविताएँ

इंदौर। प्रगतिशील  लेखक संघ  व जनवादी  लेखक संघ की इंदौर इकायों  ने 25 सितंबर 2011 रविवार को देवी अहिल्या केन्द्रीय लायब्ररी के अध्ययन कक्ष में कवि श्री अनंत श्रोत्रिय के रचना पाठ का आयोजन किया। श्री अनंत श्रोत्रिय ट्रेड युनियन व कर्मचारी संगठनों से जुड़े रहे हैं। वे  प्रगतिशील विचाराधारा के प्रतिबद्ध कवि हैं और फिलहाल प्रगतिशील  लेखक संघ   की इंदौर इकाई के अध्यक्ष हैं। हाल ही में साहित्यक पत्रिका राग भोपाली ने अनंत श्रोत्रिय के रचनाकर्म पर एकाग्र एक अंक निकाला  है। श्री श्रोत्रिय ने "पूरब का सूरज" कविता सुनाकर कार्यक्रम की शुरुआत की।

उठेंगे कदम, जूझेंगे हम
साथ जूझता होगा जनजन
हाथ उठा मुट्ठी तानी
ताल मिली गरजा जनजन
उन्नीस सौ बयालीस, आर.एन.आय. का रिवोल्ट
उद्वेलित करते, गरजा जनजन
हुंकार भरता नभ, बना प्रेरणा
बढाओ कदम
पूरब में सूरज बिखेरे  लाली
उड़ावे गुलाल यही तो सपना
दिन विहँसा किरणें विकीर्ण
जनजन में जागी खुशियां.

उनके बाद प्रदीप मिश्र, विनीत तिवारी और प्रांजल श्रोत्रिय ने श्री अनंत श्रोत्रिय की चुनी हुई कविताओं का पाठ किया। पोस्टर, यह रास्ते, सर्वोदय, प्रामाणिक ज्ञान आदि कविताओं को काफी सराहना मिली। वरिष्ठ कथाकार श्री सनत कुमार ने श्री श्रोत्रिय के मालवी लेखन और गद्य लेखन पर अपना वक्तव्य केन्द्रित करते हुए कहा कि १९५० के दशक के शुरुआती वर्षों में श्री अनंत श्रोत्रिय का एक आलेख महाकवि निराला पर आया था और उसने मालवा के पाठकों को निराला से परिचित करवाया था. वह बहुत अच्छा आलेख था जिसमें साहित्य के वैज्ञानिक आधारों पर निराला की कविता का विवेचन किया गया था. उन्होंने ये भी कहा कि श्री श्रोत्रिय की कविता अवधारणात्मक वृत्ति  की प्रकृतिमूलक कविता है.   द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसी जटिल अवधारणा को भी उनहोंने कविता में पिरोया है।


हमारा अस्तित्व भी एक प्रश्न चिन्ह फिर क्यों कर यह सब वाद-विवाद,
जब सब कुछ है असत्य, अस्तित्वहीन तो यह माथापच्ची क्यों कर?

उन्होंने मालवी  जीवन के सुख-दु:ख, आशा-निराशा को बिना  लाउड हुए अभिव्यक्त किया है। उन्होंने मालवा  के जनकवियों के मूल्यांकन का महत्त्वपूर्ण काम किया है। उनके साथ मालवा के प्रगतिशील कवियों की एक पूरी परंपरा है जिनमें मान सिंह राही, रंजन,  प्राण गुप्त  और मजनू इंदौरी के नाम प्रमुख हैं. उनकी विरासत का सही मूल्यांकन होना अभी बाकी है। यह यात्रा मालवा में 60 वर्ष से विकसित हो रही है। श्रोत्रियजी की कविताओं में  प्रकृति  के रम्य चित्र हैं।

पानड़ा झर-झर झरी रिया
आमवा में लाग्या मोर
बागों फूल में की उठाया
हिरदा में उठे हिलोर
 लीली लीली चादर तणी खेत में
इतराती अरे (अलसी) अई-वई डोले

उन्होंने कहा कि श्रोत्रियजी की कुछ कविताएं तो केदारनाथ अग्रवाल  की याद दिलाती हैं। इस अवसर पर कवि ब्रजेश कानूनगो ने कहा कि श्रोत्रियजी की कविताओं में कला, शिल्प, और  बौद्धिकता  का इतना आग्रह नहीं है, जितना कि अभिव्यक्ति और सम्प्रेशनीयता  का। वे अपनी कविताओं के जरिए एक  प्रतिबद्ध कवि नज़र आते हैं। उनकी कविताएं रातनैतिक कविताएं हैं। कवि में वामपंथी एक्टिविस्ट साफ़ साफ़ दिखाई देता है। मनुष्यता व मनुष्य के पक्ष में अनंत जी की आकांक्षाएं अनंत हैं। वे 82 की उम्र में भी वामपंथी मूल्यों के प्रति सतत संघर्षरत हैं। उनका सकारात्मक कवि इस सफर को जारी रखना चाहता है। वे कहते हैं -

सफर लंबा है
मंजिल  समीप नहीं
इंसान ने फिर भी
कितना तय कर लिया रास्ता

लेखक, कवि एवं एक्टिविस्ट विनीत तिवारी ने कहा कि श्रोत्रिय जी की कवितायें उस दौर कि कवितायें हैं जब साधारण से साधारण कविता भी एक वैश्विक चेतना तक पहुँचने लगी थी. उस दौर में कपड़ा मिलों में काम करने वाले कवि भी सिर्फ अपनी तकलीफों या संघर्षों या घर परिवार के बारे में ही नहीं लिख रहे थे बल्कि वे एशिया के संघर्षरत अन्य देशों के बारे में या अंगोला या रूस, चीन की जनता के के बारे में भी लिख रहे थे और एक तरह का अंतरराष्ट्रीयतावाद उनमें विकसित हो रहा था. आज प्रतिष्ठित हो चुके कवियों के भीतर भी यह चेतना या तो नदारद है या बहुत कम मौजूद है. यह ज़रूर देखना चाहिए कि श्रोत्रियजी की कविताओं में शिल्प के प्रति असजगता है क्योंकि उन्होंने कवि कर्म को भी एक एक्टिविस्ट की ही तरह किया है. बहुत सारे दोहराव भी इन कविताओं में हैं लेकिन अपने समाज, राजनीति की जनपक्षधर समझ और वामपंथी सोच को इसमें साफ़ पारदर्शी तरह से देखा जा सकता है. उनकी कविता "पोस्टर" आम जन के भीतर विकसित होने वाली राजनीतिक समझ की प्रक्रिया की बानगी है-


दीवार पर चिपका पोस्टर
लाल नीले रंगों में छपा
इसके अक्षर समेटे हैं
बीज क्रांति के, संघर्ष के

कार्यक्रम में कवि राजकुमार कुंभज ने श्रोत्रियजी की कविताओं और उनके जीवन को जनान्दोलनों का अभिन्न हिस्सा बताया और कहा कि श्रोत्रियजी की कविताओं में मुक्तिबोध के बिंब व प्रतीक याद आते हैं जो मनुष्य जीवन की जटिलताओं को व्यक्त करते हैं। उनके कवि कर्म में सारी चीजें जनसंघर्ष से निकल कर आई हैं। वे जुलूस को देखते हुए दर्शक नहीं बल्कि जूझते हुए संघर्षरत योद्धा की तरह नज़र आते हैं। इस घनीभूत पीड़ा में भाषा उनकी कविता के पीछे पीछे आ रही है। उनके तमाम  प्रतीक कलावाद के निषेध में आते हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता इंदौर इप्टा के अध्यक्ष विजय दलाल ने की। इस अवसर पर चुन्नीलाल वाधवानी, विक्रम कुमार, अजय लागू , सुलभा लागू , विश्वनाथ कदम, केसरी सिंह चिढार , सारिका श्रीवास्तव आदि मौजूद थे। संचालन किया प्रलेस इंदौर के श्री एस. के. दुबे ने।
(रपट : एस.के. दुबे)

सोमवार, 5 सितंबर 2011

डा. ओडोलेन स्मेकल

चेक गणराज्य के हिन्दी कवि
मित्र डा. ओडोलेन स्मेकल
— डा॰ महेन्द्रभटनागर


सोवियत-संघ, चीन, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और चेकोस्लोवेकिया के हिन्दी- साहित्य प्रेमियों से सम्पर्क में आया; किन्तु सर्वाधिक निकटता मात्र चेकोस्लोवेकिया के डा. ओडोलेन स्मेकल से रही। यह एक संयोग मात्र है कि सर्वप्रथम किसी विदेशी विद्वान / लेखक से यदि परिचय हुआ तो वह डा. ओडोलेन स्मेकल से। उनसे प्रथम सम्पर्क भी अपने में विशिष्ट रहा। भारत में प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ विदेशों में भी जाती हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में नये प्रकाशनों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती हैं; जिनमें लेखक का पता तो नहीं, प्रकशक का पता रहता है। डा. स्मेकल ने किसी पत्रिका, सम्भवतः ‘नया पथ’ (लखनऊ) में मेरे रेखाचित्र / लघुकथा संग्रह ‘लड़खड़ाते क़दम’ की समीक्षा देखी-पढ़ी होगी। ‘लड़खड़ाते क़दम’ के प्रकाशक ‘स्वरूप ब्रदर्स’,खजूरी बाज़ार, इंदौर के माध्यम से उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया; पत्र भेजा। ग़नीमत है, प्रकाशक ने यह पत्र मेरे पते पर, पुनर्निर्देशित कर दिया। यों डा. स्मेकल से मेरा परिचय हुआ और पत्राचार शुरू हुआ। यह परिचय आश्चर्यजनक था; सुखद था।
डा. स्मेकल के प्रारम्भिक पत्र उपलब्ध नहीं। उनका 9 सितम्बर 1955 का पत्र ही, मेरे लिए सुरक्षित प्रथम पत्र है:

Czechoslovakia / 9th Sept.1955

My dear brother Mahendra,
I owe you an apology for my inability to write to you in response to your letter of July 18, 1955. I am writing this letter in English for type-writing facility.
Yes, I am in receipt of your poetry and thank you from the bottom of my heart. I am so enthusiastic about your poems, that I intend to write for our publicity an essay about you in connection with modern Hindi progressive poetry. For this purpose I should be grateful to you for same articles they have been written perhaps about you in several periodicals. I should like to have also some assistent material and names of main Hindi and Indian progressive poets in your group and a survey of trends in Indian poetry of modern times.
I have just translated some of the new poems you have sent me; when published somewhere, I shall give you notice. A propos, did you get my Czech periodicals of Novy Orient with your poems? It is a great pleasure that one or two poems of yours have been also broadcasted in CSR radio.
You are writing, my dear Indian bother, in last letter that ‘ap se ek zarui kam bhi hai’. What is the matter please? You may rest assured of my fulest co-operation in your effort. I would do all I can in helping you.
I wish you great success in your literary career and remain,

Your Czech brother
Odolen Smekal

I should be also grateful for some details of your ownडा. स्मेकल ने 'Novy Orient’ के जो दो अंक भेजे थे; जिनमें मेरी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हैं; मेरे पास सुरक्षित haडा. स्मेकल के फिर दो हिन्दी-पत्र रोमन लिपि में टाइप किये, मिले। जिनका नागरी-लिप्यन्तर निम्नांकित है :

चेकोस्लोवेकिया / दि. 18-10-1956

प्रिय भाई,
आपका 18 सितम्बर ‘56 का पत्र मिल गया था। अनेक - अनेक धन्यवाद। ‘अजन्ता’ नामक मासिक पत्र जिसमें मेरा संक्षिप्त परिचय छापा गया है मुझे नहीं मिला। भेजने के लिए मैं श्री यशपाल जी से प्रार्थना करूंगा। आपको अधिक कष्ट नहीं देना चाहता।
आप चेक भाषा सीखना चाहते हैं यह समाचार पढ़ कर मैं गद्गद हो उठा। इस में आपको भारत स्थित चेक राजदूतावास से सहयोग अवश्य मिलेगा। दो महीने के अन्दर में मेरी ‘हिन्दी पाठ्य-पुस्तक’ निकलेगी; जिसमें बहुत से हिन्दी-वाक्य चेक में अनूदित हैं। आपकी सुविधा व पढ़ने के लिए अवश्य भेज दूंगा। कठिनाई तो आपको ठीक उच्चारण में होगी। मुझे आशा है कि शायद इस वर्ष अध्ययन के लिए भारत जाऊंगा। फिर आपको स्वयं चेक भाषा पढ़ाऊंगा। यों आपके सहयोग से हम दोनों अपनी भाषाओं में साहित्य से अच्छे अनुवाद कर सकेंगे। ऐसा पक्का विश्वास है कि हमारी मैत्री हमारे सारे जीवन के लिए सुन्दर और लाभदायक होगी।
जहाँ तक आपकी कविताओं का प्रश्न है मैं नीचे रूपान्तरों की सूचना दे रहा हूँ। 26 जनवरी को भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारी आकाशवाणी में साहित्यिक प्रोग्राम में आपकी कविताएँ प्रसारित होंगी। इस आध घंटे वाले प्रोग्राम में कुछ और भारतीय कविताएँ शामिल होंगी, लेकन सब मेरे अनुवाद में।
आधुनिक हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन हम को समयाभाव से अनिश्चित काल के लिए स्थगित करना होगा।
अब मैं आपकी नयी कविताओं की राह देख रहा हूँ। अब तक अनूदित कविताओं की सूचना यह है:

हिम्मत न हारो!, काटो धान, बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे!, झुकना होगा, गाओ गान, दीप, चुनौती, परिवर्तन, एकाकीपन, बदलता युग, धरती की पुकार, परिवर्तन हो, खेतिहर, खेतों में, अभियान, मशाल, री हवा!, घटाएँ, दीपक, आज तो, नया प्रकाश, जीवन-पथ के राही से, मनुष्य जीवन, पतझड़ और वसंत, तुम्हारी याद, मिटाते चलो, दमित नारी, हम एक हैं , युद्ध-क्षेत्र पर, सोओ नहीं!, मेरे देश में।

यदि हलेक की कविता छपी हो तो कृपया भेजने का कष्ट करें। आशा है आप और आपकी पत्नी स्वस्थ व कुशल हैं।
आपका ही भाई,
ओडोलेन स्मेकल

डा. स्मेकल का संक्षिप्त परिचय लिख कर ‘अजन्ता’ (हैदराबाद) मासिक को भेजा था। जो अगस्त 1956 के अंक में छपा था। डा. स्मेकल-द्वारा तैयार की गयी ‘हिन्दी पाठ्य पुस्तक’ की साक्लोस्टाइल हुई प्रति प्राप्त हुई थी; जिसमें मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी मुद्रित थीं। डा. स्मेकल ने चेक भाषा में अनुवाद तो मेरी अनेक कविताओं के किये; किन्तु वे पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हो सके।
रोमन लिपि में टाइप किया हुआ दूसरा पत्र इस प्रकार है:

प्राहा / दि.11-3-57

प्रिय भाई,
एक युग के पश्चात आज मुझे आपको पत्र लिखने का अवसर मिला। आपका पत्र तदुपरांत आपकी भेजी पत्रिकाएँ, कविता-संग्रह और निबंध यथासमय प्राप्त हुए। मैं सब कुछ के लिए आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ। मुझे दुःख है कि कार्य-भार के कारण आपको पहले यथावत् न लिख सका, आपको नियमित रूप से और बिना विलम्ब के उत्तर दे नहीं सका। आजकल बहुत सी बातें योग्य सेवा से आपको सूचित करना चाहूंगा।
आपके सब साहित्यिक निबंध पढ़ डाले। आपके निबंध जो प्रगतिशील दृष्टिकोण से लिखे हैं मेरी हिन्दी-साहित्य की जानकारी बढ़ाने के लिए बड़े सहायक हुए। ‘दिव्या’ पर यह पुस्तक अत्यंत शिक्षाप्रद और विद्यार्थियों के लिए मेरे विचार में इस प्रकार के लेख की बड़ी आवश्यकता है। यह तो वयस्कों के ज्ञान-वर्द्धन के लिए भी बहुत ही उपयुक्त पुस्तिका हो सकती है। आपकी भेजी हुई कविताओं में से मैं अब तक केवल दो कविताओं का अनुवाद कर सका हूँ — ‘हिम्मत न हारो’ / ‘विश्वास’। इतनी कम नहीं कि वे मुझे पसंद नहीं आयीं; प्रत्युत आपकी कविताएँ मुझे बड़ी रुचिकर जान पड़ती हैं और उन्हें पढ़ने और अनुवाद करने में मैं सदा प्रसन्नता प्राप्त कर रहा हूँ; प्रत्युत किसी और प्रकार के कार्य में लगे रहने के कारण उनके अनुवाद करने की सम्भावना नहीं मिली।
भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आपकी कविता ‘काटो धान’ जनवरी मास की 24 तारीख़ को चेक आकाशवाणी में प्रसारित हुई। उसकी प्रशंसा मेरे मित्रों ने खूब की। वह उन्हें सारे प्रोग्राम से सबसे अच्छी लगी।
यद्यपि मैं ऐसा दीर्घ काल मौन रहा फिर भी हिन्दी और आपकी कविता और प्रकाशित करने की सम्भावना ध्यान में ही रही। इस बीच के समय में मैंने आपकी उत्तम कविताओं का अनुवाद एक हमारे प्रकाशन मंडल को प्रकाशित करने का प्रस्ताव दिया। मुझे कहा गया कि भारत जैसे महान् देश की केवल एक ही कवि की कविता पुस्तक रूप में छापना असम्भव है। इसलिए मैंने हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित करने का सुझाव दिया। इस विषय पर अभी कार्रवाई हो रही है। किन्तु सभी लक्ष्यों से प्रतीत हो रहा है कि मेरा यह प्रस्ताव स्वीकृत होगा। आप यदि इस काम में मेरी सहायता कर सकें तो हिन्दी कविता की उत्तम रचनाओं के चुनाव में आप सहायक हों और उपयुक्त सामग्री काफ़ी सोच-समझ कर भिजवाने की कृपा करें।
यों समझिए, जो बात अब निश्चित हुई है वह यह कि भारतीय लोक-कथाओं की दो पुस्तकें मेरे अनुवाद में भविष्य में दो वर्षों में प्रकाशित होंगी। अब इसी कार्य में लगा हूँ। मैं न केवल उनके अनुवाद करने में रत हूँ लेकिन जो सबसे दुखमय बात है कि मेरे हाथ काफ़ी उपयुक्त लोक साहित्य संबंधी सामग्री मिलती नहीं। मुझे बहुत से भारतीय मित्रों के यहाँ यह लोक साहित्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना चिट्ठियाँ भेजनी पड़ती हैं। यह विशाल पत्र।-व्यवहार मेरा बहुत-सा समय जो मेरे लिए इतना बहुमूल्य है कूड़ा रहा है। पुस्तकों का अभाव में कैसे पार कर सकूँ ? मेरे कार्य में यह सबसे बड़ी कठिनाई और बाधा है; जिनका कड़ा सामना मुझे करना पड़ता है। परन्तु मैंने निश्चय किया कि भारतीय लोक कथाओं की दो पुस्तकें और लोक गीतों की एक पुस्तक प्रकाशनार्थ प्रस्तुत कर दूंगा। और मेरा यह निश्चय अटल है। मेरी पूर्ण आशा है कि इस कार्य में मेरी साधना सफल होगी; क्योंकि भारतीय लोक साहित्य का क्षेत्र। हमारे देश में सर्वथा अज्ञात है और इस में भारत की इतनी उत्कृष्ट निधि है। इस अभाव की पूर्ति शीघ्र ही करनी चाहिए।
एक दूसरा कार्य मेरे सामने है। मेरी इच्छा है कि मेरे देश की लोक कथाएँ भी भारतीय जनता को उपलब्ध हो सकें। इस कारण प्रायः तीन मास हुए ‘बाल भारती’ सम्पादक मंडल को दो-तीन कथाओं का अनुवाद भेज दिया था। अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। दूसरी लोक कथाएँ मैंने ‘कहानी’ सम्पादक श्रीपतराय जी को भेज दी थीं। परिणाम यही रहा। इस लिए मैंने सब प्रकार के अनुवाद आपके सहयोग के साथ करने की ठान ली। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं है तो भविष्य के लिए मैं आपको ऐसा नम्र सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूँ कि हम दोनों मिल कर चेक लोक कथाओं का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशनार्थ तैयार करें। क्या भारतीय प्रकाशकों को इसमें अभिरुचि है ? इस पर आपका क्या विचार है ? कृपया सूचित कर दें।
इस बात से कुछ और प्रश्न संबंधित हैं। वह आपका चेक भाषा सीखने का प्रश्न। उत्तम होता यदि आप चेक भाषा जानें और हमारे साहित्य की कुछ आदर्श रचनाएँ अपनी भाषा में रूपान्तरित कर सकें। इस विषय में जो सहायता मुझसे हो सकेगी वह करने का प्रयत्न करूंगा। क्या आप अभी उसे सीखने की अभिलाषा है ? अधिकतर एक सप्ताह में मेरी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक निकलेगी। उसके निकलने बाद तुरन्त ही आप की सेवा के लिए एक प्रति भेजनी होगी। साथ ही साथ यह आप पर लिखी समीक्षा सामग्री और कई चेक लोक कथाओं का अनुवाद भेज दूंगा। उसी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक से आप कुछ न कुछ चेक पढ़ सकेंगे। मुझे चेक-हिन्दी वार्तालाप प्रस्तुत करने की इच्छा है। अनेक भारतीय सज्जन पत्रों के माध्यम से चेक भाषा सीखने के इच्छुक हैं और उनको सिखाने का अनुरोध करते हैं। मैं यह काम किस प्रकार करूँ ? यदि चेक-हिन्दी वार्तालाप एवं व्याकरण की पुस्तक रूप में भारत में प्रकाशन की सम्भावना हो तो उसे तैयार करने का प्रयत्न करूंगा। कृपया इस विषय पर भी अपने बहुमूल्य विचार जानने का अवसर दें।
आजकल मैंने आपको बहुत सी सूचनाएँ लिख दीं। आशा है आप प्रसन्न हैं। यद्यपि हमारे पत्र।-व्यवहार की गति विशेषकर मेरी ओर से बड़ी मंद हो रही है। मुझे बहुधा उसका प्रायश्चित हो रहा है। फिर भी मेरा पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी कठिनाइयाँ और समयाभाव समझते हैं। हो न हो हमारी आप से आत्मीयता पक्की हुई है। हमारे सामने सारा जीवन लगा रहता है, सब हमारे कार्य, साधनाएँ और अभिलाषाएँ भी। हम दोनों कुछ ऐसा परस्पर कार्यक्रम बना लें कि हमें भविष्य में हमारे दो देशों के सांस्कृतिक क्षेत्र में क्या क्या करने की इच्छा है और क्या क्या करना आवश्यक है, ताकि हमारे दो देशों की मित्रता और आपसी संबंध अधिक दृढ़ हो जाएँ।
मैं अपने कुछ और प्रस्ताव और भावनाएँ अगले पत्र के लिए स्थगित कर रहा हूँ। आशा है, आप सपत्नीक स्वस्थ व प्रसन्न हैं। योग्य सेवा से लिखें कि कृपा करें। मैं कुछ ही दिनों में अपको वह उपरोक्त पाठ्य-पुस्तक भेज दूंगा। साथ ही मेरा निज चित्र / फोटो। हिन्दी पत्रिकाओं के लिए विभिन्न प्रकार के चेकोस्लोवेक संस्कृति के विषय पर हिन्दी लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह भी आपको क्रमशः भेज दूंगा। शेष फिर। मेरी शुस भकामनाएँ आपके साथ हैं।
आपका भाई,
ओडोलेन स्मेकल

इस पत्र में, चेक - रेडियो से, 24 जनवरी 1957 को प्रसारित, ‘काटो धान’ के चेक - अनुवाद की सूचना विशिष्ट है। डा. स्मेकल ने पाँच संक्षिप्त लोक-कथाओं (‘हाँडी पका’, ‘एक गर्वीली कुमारी’, ‘कथा छोटी क्यों है’, ‘कुत्ते के बारे में’ और ‘पटरियाँ भी थक जाती हैं’) के हिन्दी-रूपान्तर मुझे भेजे थे; जिनकी भाषा शुद्ध करके मैंने श्री चिरंजीत-द्वारा सम्पादित ‘मधुकर’ के दिसम्बर 1957 के अंक में प्रकाशित करवाए।

मार्च 1959 में, डा. स्मेकल का एक पोस्टकार्ड मिला:

प्रियवर भाई,
स्नेह अभिवादन। दीर्घकालीन मौन के लिए सविनय क्षमा चाहता हूँ। मार्च में 20वीं तिथि को भारत का तीन मासिक भ्रमण करने जा रहा हूँ। आपसे, मेरे प्रिय कवि और मित्र से मिलने को अत्यंत उत्सुक हूँ। कैसे? कब? कहाँ? परामर्श दें। कृपया मुझे चेक दूतावास के पते पर दिल्ली में सूचित करें। कोई 22-29 तक बम्बई में रहूंगा, फिर दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दूंगा (विमान पथ से)। बम्बई का पता:
OS/Sion, Matunga Estate, Plot 16, Bombay.
समस्त प्रेम और सद्भावनाओं सहित —

आपका,
ओडोलेन स्मेकल

मिलने की इच्छा तो मेरी भी कोई कम न थी; किन्तु दिल्ली जाकर उनसे मिलना कठिन था। खेद है, भेंट न हो सकी।
फ़रवरी 1962 में डा. स्मेकल ने ‘बातचीत’ की जिस पुस्तक के संशोधन का प्रस्ताव रखा था; वह आगे चल कर मुझे प्राप्त हुई। उसमें काफ़ी संशोधन भी मैंने किये; किन्तु पूर्ण रूप से उसे मैं व्यवस्थित नहीं कर सका। हाँ, डा. स्मेकल यदि समक्ष होते तो अवश्य यह कार्य सम्पन्न हो जाता। आंशिक संशोधनों वाली पाण्डुलिपि मैंने प्रकाशक को लौटा दी। प्रकाशक ने न पारिश्रमिक भेजा; न मैंने माँगा। अपूर्ण कार्य का क्या पारिश्रमिक ! सम्मति-पत्र भेजा ज़रूर होगा; किन्तु जहाँ तक याद आता है — प्रकाशन-संबंधी ‘हरी झंडी’ प्रकाशक को नहीं दी; क्योंकि पाण्डुलिपि में कुछ और संशोधन शेष थे। डा. स्मेकल को दुःख तो हुआ। संबंधित पत्र इस प्रकार है:

Praha-Prague, dated : 16-2-62

प्रिय भाई,
बहुत दिनों के बाद आपके समाचार मिले। आपका पत्र पढ़ कर बड़ा प्रसन्न हुआ। मुझे भारत से लौट आये दो वर्ष बीत चुके हैं। पिछले वर्ष मेरी बिटिया ‘इन्दिरा’ का जन्म हुआ। अब हम सपत्नीक संतुष्ट है। आप भी अपने घर का कोई शुभ समाचार सुनाइए।
जहाँ तक मेरे काम की बात है बहुत-कुछ मैंने इस बीच में किया। विद्यार्थियों के लिए हिन्दी साहित्य की रूपरेखा समाप्त कर चुका हूँ। हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक प्रकाशक को छापने के लिए दे दी। वो तीन भाषाओं की है: हिन्दी, चेक और अंग्रेज़ी। अब प्रकाशक को किसी भारतीय हिन्दी-ज्ञाता की इस के संबंध में सम्मति आवश्यक है। लिखने की कृपा करें। आपको मेरी पाठ्य-पुस्तक एक दम भिजवा दी जाएगी। इस काम के लिए आपको पैसे मिलेंगे।
बहुत दिनों से किसी भी हिन्दी कविता का अनुवाद नहीं किया। कृपया अपनी नई कृतियाँ ज़रूर भेज दें। एक मास के भीतर चारेक चेक कविताएँ अवश्य भेज दूंगा। अब इनकी खोज में हूँ। यही काम मैं आपको भी सौंपता हूँ, मुझे एक भाव की कविताएँ, विशेषकर वैज्ञानिक उपलब्धियों के उल्लास तथा श्रमिक जीवन पर हिन्दी कविताएँ चाहिए। अब साहित्यिक काम और अनुवाद के लिए समय मैंने निकाला है। हमारा पारस्परिक सहयोग दोनों के लिए लाभकारी होगा। आप जल्दी उत्तर देने की कृपा करें। योग्य सेवा लिखें।
आपका,
ओदोलेन स्मेकल

दि. 1-4-1962 का पत्र।

प्रिय भाई,
आपका पत्र मिला, प्रसन्नता हुई। आपकी इच्छानुसार अपने परिवार का फ़ोटो भेज रहा हूँ। दो मास का पुराना है।
मेरे भारत रहते समय हमारी भेंट न हो सकी इसका खेद आपको न हो। एक तो आशा मुझे है कि भविष्य में फिर से भारत जाने का अवसर मिलेगा, दूसरे मुझे विश्वास है कि कुछ समय बीतकर आप भी हमारे देश आ ही सकेंगे। पहले हम दोनों को कुछ काम करना पड़ेगा। आप कृपया लिख दें कि भारत में हिन्दी के संबंध में इस और अगले वर्ष में कोई महत्त्वपूर्ण सम्मेलन होने वाला है या नहीं जिसमें मैं अपना भाग ले सकूँ। मैं सपरिवार, इसका अर्थ, सपत्नीक भारत जाना चाहता हूँ। लेकिन इसके बारे में फिर।
आज आपको तीन बालोपयोगी कविताएँ भेज रहा हूँ। कवि प्रसिद्ध हैं। अब अगले पत्र में एक भाव की कविताएँ भेजता रहूंगा।
हिन्दी साहित्य की रूपरेखा’ चेक में लिखी है। ‘हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक’ आपको हमारे दूतावास द्वारा भेजी जाएगी। पुस्तक के चौथे भाग में उद्योग के संबंध में कुछ वाक्य अपूर्ण हैं। आपसे बड़ी प्रार्थना है वाक्यों को पूरा करने की कृपा करें। दूसरी प्रार्थना यह है कि आप जहाँ कहाँ त्रुटियाँ मिलती हैं उन्हें दूर कर दें। आपका बड़ा आभारी रहूंगा शेष फिर।
आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल

दि. 10-7-62 का पत्र।

प्रिय भाई,
बहुत दिनों से आपके समाचार नहीं मिले। दो तीन मास की बात होगी मैंने आपको तीन चेक कविताओं सहित एक पत्र। भेज दिया था, परन्तु उसका उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। कृपया लौटती डाक से आपके हाल की सूचना दीजिए। इस सप्ताह के अंत में छुट्टियों के दो महीने वाले अवकाश के लिए सपरिवार प्रस्थान कर रहा हूँ। आपकी सूचना प्राप्त करने पर आपकी सेवा में दूसरी चेक कविताएँ भेजने का विचार है। मुझे आशा है इन दिनों आपके पास मेरी चेक-अंग्रेज़ी-हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक, आपकी सम्मति देने के लिए मिलती है। इसके विषय में आपकी क्या राय है ? इस संबंध में मेरी आपसे एक बड़ी प्रार्थना है। मेरे वहाँ कुछ वाक्य अपूर्ण रहे। उनका अनुवाद करना मेरे सामर्थ्य से परे है। वाक्य इन्हीं विषयों के हैं :
Earth works, Construction, Structure Building Assembly, Metallurgical Works, Machining, Work with hand tools, Assembly, Electr …, Miscellaneous, Accident Prevention.
यह सब चौथे भाग के वाक्य हैं । इन वाक्यों के अनुवाद करने के लिए मैं आपका बहुत आभारी और ऋणी रहूंगा। सारी पुस्तक आप कब वापस दे सकेंगे ?
शेष आपका उत्तर आने के बाद। आशा है मौन रहते हुए भी आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं। अपने और पुस्तक के बारे में योग्य सेवा लिखें।
आपका चेक भाई,
ओडोलेन स्मेकल

प्राग-प्रहा / दि. 20-12-62

प्रिय भाई,
आपके दो पत्र। दो मास पूर्व मिल गये। उस समय मैं सपरिवार अपनी माताजी के यहाँ छुट्टियों में रहा। कोई 24 सितम्बर को प्राग हम लौट आये लेकिन पढ़ाने से पहले ही मैं बीमार पड़ गया। प्रायः दो मास तक मुझे अस्पताल में रहना पड़ा। सारे शरीर पर त्वचा-रोग फैल गया। अब अस्पताल से लौट कर पढ़ाने लग रहा हूँ। कुछ स्वस्थ हो गया हूँ। आशा है कुछ दिनों में बिल्कुल अच्छा हो जाऊंगा।
जहाँ तक मेरी पाठ्य-पुस्तक की बात है आपने अपनी सम्मति लिख दी भी यह जानने की इच्छा है। प्रकाशक को अभी तक मेरी पाण्डुलिपि नहीं मिल गयी। हो सकता है आपने समयाभाव के कारण पाठ्य-पुस्तक हमारे दूतावास को नहीं दे दी। यह भी संभव है आपने पुस्तक भेज दी थी लेकिन वह अभी तक हमारे देश नहीं पहुँच गयी। कृपया शीघ्र लिखने का कष्ट करें बात कैसी है ? हम आपकी सम्मति की प्रतीक्षा में हैं। इस बीच में, मैंने प्रत्येक परिच्छेद के लिए विशिष्ट शब्दावली तैयार की। वह काम पूर्ण हो गया। अब छापने का समय आ गया है।
इसी काम से मेरा भाषा संबंधी कार्य समाप्त हो रहा है। अब से मेरा ध्यान हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित रहेगा। अनुसंधान व अनुवाद के लिए अधिक समय रह जाएगा। हिन्दी साहित्य की रूपरेखा प्रकाशित हो चुकी है। आपकी सेवा में इसे भेज दूंगा। पुस्तक में आपके नाम का उल्लेख और कविता का नमूना भी छप चुका है। आशा है प्रसन्न होंगे।
इस वर्ष के अंत तक आपको चेक कविता के दूसरे अनुवाद नहीं भेज सकूंगा, लेकिन आगामी वर्ष के प्रारम्भ में आपको निःसंदेह प्राप्त होंगे। कई मास से भाई, आपकी नयी कविताओं की प्रतीक्षा में हूँ। अभी तो कुछ भी नहीं मिल गया। आप तीन महीने से मौन रहे हैं। अपने कुशल मंगल का समाचार दीजिए। मेरी धर्मपत्नी पुत्री इंदिरा के साथ स्वस्थ व प्रसन्न है। हम सब लोग आपके पत्र की राह देख रहे हैं। जल्दी लिखने की कृपा करें। हमारे देश में आपको किसी चीज़ की आवश्यकता हो यह भी लिखना न भूलिए। हम सानंद भेजने की कोशिश करेंगे। शेष फिर। योग्य सेवा लिखें।

आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल

चेकोस्लोवेकिया / 4-5-63

प्रिय भाई,
सप्रेम वंदे। पिछले महीने मुझे पाठ्य-पुस्तक हमारे विदेश मंत्रालय से मिल गयी। पुस्तक में आप द्वारा अनूदित हिन्दी-वाक्यों को पाकर बड़ा हर्ष हुआ है। इसके और वाक्यों के संशोधन के लिए आप मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए। पर एक बात हमें स्पष्ट नहीं। आपने पुस्तक पर अपनी सम्मति लिख दी या नहीं? न तो पाठ्य-पुस्तक में वह सम्मति-पत्र मिला, न तो प्रकाशक ने डाक से। हो सकता है आपने सम्मति-पत्र लिख दिया, हमारे दूतावास को पुस्तक सहित दे दिया और वह कहीं खो गया। बात यह है कि जब-तक आपकी विस्तारपूर्ण सम्मति प्रकाशक को नहीं मिलेगी, पुस्तक छप नहीं सकेगी। मैं इस बीच में अपनी हस्तलिपि अंतिम बार सावधानी के साथ पढ़ रहा हूँ, और अपनी शक्ति के अनुसार संशोधन कर रहा हूँ। लेकिन वह काम शीघ्र ही पूरा कर दूंगा। आपकी सम्मति मिलते ही प्रकाशक पुस्तक को छापने का आरंभ करेगा। मुझे किसी भी दूतावास पर विश्वास नहीं। यदि आप अपना सम्मति-पत्र प्रकाशक को भेज सकें तो सबसे अच्छा होगा। यदि आपने वह पत्र दूतावास को दे दिया तो दिल्ली में इस विषय में लिखने की कृपा करें। प्रकाशक को यह जानना चाहिए कि पुस्तक कैसी है, उसकी क्या विशेषता, बातचीत कैसी है, पुस्तक छापने योग्य है या नहीं, आप उसके अनुमोदक हैं या नहीं, इत्यादि। आशा है आपको प्रकाशक से अंग्रेज़ी में लिखित प्रार्थाना-पत्र। पिछले वर्ष मिल गया था। और कष्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपका कविता-संग्रह प्राप्त हुआ, हार्दिक धन्यवाद। पाठ्य-पुस्तक का कार्य समाप्त करने उसके कुछ काव्यों का अनुवाद चेक में कर सकूंगा।
मैं सपत्नीक स्वस्थ हूँ। आशा है आपका और आपकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य भी ठीक है।
आपका भाई,
ओडोलेन स्मेकल

चेकोस्लोवेकिया — प्राग / 20-2-64

प्रिय भाई,
सप्रेम अभिवादन। पिछले वर्ष के आपके दो पत्र (दि.11-3, 7-9-63) प्राप्त हुए। आपकी ‘मधुरिमा’, ‘जिजीविषा’, ‘संतरण’, और ‘टूटती शृंखलाएँ’ नामक पुस्तकें मुझको मिल गयीं। इन सभी चीज़ों के लिए आज जो धन्यवाद देने के लिए बैठ रहा हूँ, इसके लिए मुझे क्षमा प्रदान करें, यही मेरी आपसे बड़ी प्रार्थना है। अनेक कार्यों में संलग्न रहकर मुझसे यह त्रुटि हुई। एक बार फिर हृदय से धन्यवाद स्वीकार करें।
आपके अनेक प्रश्नों का उत्तर देने को जा रहा हूँ। पिछले वर्ष में मुझको अनुवाद करने को समय नहीं मिल गया। मुझे पाँच अहिन्दी भारतीय साहित्यों की रूपरेखा प्रकाशनार्थ तैयार करनी थी। इसके अतिरिक्त मैंने प्रेमचंद के ग्राम उपन्यासों पर एक शोध-निबंध लिख दिया था और इन दिनों आधुनिक हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। इस वर्ष के दौरान में ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य की उद्भव-प्रक्रिया’ नामक अनुसंधान-कार्य पर मेरा ध्यान केन्द्रित रहेगा। साथ-साथ वैज्ञानिक Candidate डिग्री प्राप्त करने के लिए इससे संबंधित परीक्षाओं में बैठना चाहूंगा। अतः कार्य अधिक होने के कारण न तो इसी साल में अनुवाद के लिए समय निकाल सकूंगा। आपकी कविताएँ अपने एक छात्रा को दे दूंगा जिससे वह उनका अनुवाद करने का प्रयत्न करे। एक दो वर्ष बीतने पर फिर अनुवाद कार्य के लिए समय निकाल सकूंगा। अब मेरे लिए बहुत ज़रूरी है ऊपर लिखित उपाधि प्राप्त करने को।
हिन्दी बातचीत की पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हो गई। हमारे देश में देवनागरी लिपि में पुस्तकों के प्रकाशन में बहुत समय लगता है। पुस्तक केवल अगले वर्ष प्रकाशित होने वाली है। बातचीत की पुस्तक का उल्लेख करते हुए मुझे एक बात का बहुत दुःख हो रहा है। आपने पुस्तक में से तीन अध्यायों का संशोधन किया था तथा एक का अनुवाद करके, इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी हूँ। मेरे कार्य के लिए अपना बहुमूल्य समय निकाल कर आपने बहुत कृपा की। आप फिर से मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। लेकिन मेरे विचार में पूरे पुस्तक का संशोधन करना था। यह आपके लिए असम्भव था इसमें कोई संदेह नहीं। किसी अपने हिन्दी छात्र को संशोधन के लिए दे देते और वह शोध अध्यायों को ठीक करदे मेरी राय में बहुत अच्छी बात होती। अब मैं बहुत चिन्तित हूँ कि मेरी वह पुस्तक इतनी अच्छी नहीं होगी, जितनी मेरी इच्छा थी। यह बात है। यही तो मेरे दुःख का कारण भी है। अस्तु।
आजकल आप क्या लिख रहे हैं ? आपके ‘साहित्यिक निबंध’ मुझको नहीं मिल गये। आशा है दो-तीन वर्ष में भारत जाने का फिर से अवसर मिलेगा। तब हम अवश्य मिलेंगे। मैं सपत्नीक जाने का विचार रखता हूँ। हम इधर संतुष्ट हैं। इन्दिरा और अरुण सानंद हैं। हो सके, आपको नहीं मालूम कि हमारे पुत्र को जन्मे आध वर्ष बीत चुका है। शेष फिर, आज मैंने बहुत लिख दिया। पत्र। दें। आशा है आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं।
आपका चेक भाई
ओडोलेन स्मेकल

सन् 1966 में डा. स्मेकल का पत्नी-सहित भारतशुभागमन का कार्यक्रम फिर बना:

प्राग / 21-1-1966

परम प्रिय भाई,
सस्नेह नमस्कार। बहुत दिनों से आपके समाचार नहीं मिले। आशा है, आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं।
मैं 29/1 को एक मासिक भारत यात्रा पर सपत्नीक जा रहा हूँ। दिल्ली में फ़रवरी का पहला सप्ताह बिताने का कार्यक्रम है, फिर आगरा, ग्वालियर, झाँसी, लखनऊ आदि नगरों में थोड़ी देर ठहरने का विचार है।
इस बार हमको मिलना अवश्य चाहिए। कृपा करके मुझे दिल्ली के पते पर सूचित करे दें यदि यह सम्भव है कि मैं सपत्नीक आपके यहाँ ठहर सकूँ और ग्वालियर घूमने की व्यवस्था भी यदि आप करा सकें। कष्ट के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ। शेष मिलने पर।
आपके जल्दी मिलने की राह देखते हुए —
आपका ही,
ओडोलन स्मेकल

अफ़सोस है, इस बार भी, हम नहीं मिल सके। सन् 1967 के पत्र में डा. स्मेकल ने भी खेद प्रकट किया:

प्राहा / 8-7-1967

प्रिय भाई,
सप्रेम वंदे। आपका 18-6-67 का कृपा-पत्र प्राप्त हुआ। मुझे अत्यंत हर्ष हुआ है कि हमारा पत्र-व्यवहार फिर चला है और विश्वास है कि भविष्य में चलता रहेगा।
जिस पत्र का आप उल्लेख करते हैं वह मुझे मेरे भारतीय पते पर नहीं मिला था। आपसे भेंट करने की बहुत इच्छा थी, लेकिन मध्य-प्रदेश के लिए मुझे समय नहीं बच गया। आशा है, दो-तीन वर्ष बाद फिर भारत जाने का सुअवसर मिलेगा, तब केवल राजस्थान तथा मध्य-प्रदेश जाऊंगा।
आपका गीत-संग्रह नेशनल पब्लिशिंग हाउस की ओर से मुझको प्राप्त हुआ, बहुत धन्यवाद। ‘चयनिका’ और ‘Forty Poems’ निश्चय ही भेज दें। आठ-दस वर्ष से मुझे अनुवाद करने के लिए समय नहीं मिला। अब फिर से हिन्दी से रूपान्तर के लिए मैं समय निकाल सकूंगा।
मैंने कई अपने शोध-कार्य समाप्त किये हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर, हिन्दी लोक कथाओं पर, हिन्दी भाषा के इतिहास पर, हिन्दी ग्राम उपन्यासों पर इत्यादि। खेद है, मेरी चेक-हिन्दी-अंग्रेज़ी वार्तालाप वाली पाठ्य-पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हो गई यद्यपि वह मुद्रणाधीन है। कहते हैं अगले वर्ष निकल जाएगी।
आप हिन्दी-विभागाध्यक्ष बन गये, मेरी मंगल-कामनाएँ स्वीकार करें। महू में कौन-सी हिन्दी पत्रिकाएँ निकलती हैं, इस भू-भाग की लोक-कथाएँ क्या संकलित तथा प्रकाशित हो गईं ? कृपा कर इस विषय में समाचार भी दें।
शेष विधिवत् पत्र-व्यवहार में —
आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल


सन् 1975 में भी डा. स्मेकल दिल्ली आये और फिर तो वे भारत में ‘चेक गणराज्य’ के राजदूत बन कर रहे। इधर के पत्र इस प्रकार हैं:


प्रिय भाई,
विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर मैं अब भारत में रह रहा हूँ। 1 फ़रवरी से 15 तक दिल्ली में रहूंगा। फिर बंबई से होकर 20 फरवरी को अपने देश लौट रहा हूँ।
आपके पत्र। निरुत्तर रहे, मैं बड़ा पापी हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ। किंतु हम युरोप में अतिव्यस्त रहते हैं। कृपा कर अपना सबसे नया फोटो तथा पिछले चार-पाँच वर्षों की कृतियाँ भेज दें। मैं दिल्ली में जनपथ होटल में रहता हूँ परन्तु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नाम पर भेजना अधिक अच्छा होगा।
सस्नेह, सधन्यवाद
आपका चेक बन्धु
ओदोलेन स्मेकल
वाराणसी, 21-1-75

चेक गणराज्य का दूतावास
50, एम - नीति मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली
मार्च 1993

प्रिय डा. महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आपका पत्र प्राप्त हुआ। कार्यालय में हिन्दी टंकण यंत्र और टंकक उपलब्ध न होने के कारण मैं स्वयं ये पत्र हाथ से लिख कर भेज रहा हूँ। राजदूत का कार्यभार सँभालने के पश्चात मैं अति व्यस्त हो गया हूँ। यह जानकर कि आप मार्च के प्रथम सप्ताह में दिल्ली आ रहे हैं, अति प्रसन्नता हुई। आपके दिल्ली आने की प्रतीक्षा करूंगा। मेरा पूर्ण डाक पता इस प्रकार से है।
धन्यवाद।
ओदोलेन स्मेकल
आपका मित्र / प्रभारी राजदूत

सन् 1993 में उनसे मिलने दिल्ली गया भी; किन्तु उनके कार्यालय न जा
सका ! मात्र फ़ोन पर लम्बी वार्ता की। डा. स्मेकल बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें फ़ोन पर मेरी आवाज़ बहुत ही रुचिकर लगी। बातचीत के दौरान बार-बार इसका उल्लेख करते रहे।
उनके एक कविता-संग्रह पर अपना ‘अभिमत’ भी मैंने दिया; जो इस प्रकार है:

‘नमो-नमो भारत माता’

अभिमत

‘नमो-नमोभारतमाता’ कविता-संग्रह के रचयिता चेकोस्लोवेकिया-निवासी, भारत और हिन्दी-प्रेमी एवं प्रसिद्ध भारत विद्या-विद्वान् डा. ओदोलन स्मेकल हैं।
‘नमो-नमो भारत माता’ जैसा कि अभिधान से ही स्पष्ट है; भारत के प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण भावोद्गारों का स्तवक है। यह एक विशुद्ध सांस्कृतिक काव्य है। कवि ने भारत का व्यापक भ्रमण किया है। उसकी विभिन्न प्रादेशिक संस्कृतियों और सभ्यताओं का अवलेकन किया है। भारत की विविधता, प्राकृतिक सौन्दर्य, पौराणिक आख्यानों, इतिहास, सांस्कृतिक-धार्मिक केन्द्रों, स्त्री-पुरुषों, प्रेम-गाथाओं, कलाओं आदि के प्रति उसका अद्भुत लगाव इन कविताओं में प्रतिबिम्बित है। भारत देश की महिमा का बखान करते वह अघाता नहीं। एक विदेशी के हृदय में भारत के प्रति इतने सम्मान और प्रेम का पाया जाना विस्मयकारी है। विदेश में जन्म लेने पर भी ओदोलेन स्मेकल का मन और आत्मा भारतीयता के रंग में डूबे हुए हैं। उनकी कविता-सृष्टि प्रांजल और प्रभावी है। भाषा की स्वच्छता भी द्रष्टव्य है।
— डा. महेंद्र भटनागर

‘डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय’, आगरा की ‘हिन्दी शोध उपाधि समिति’ का दो-वर्ष ( मार्च 1996 से फ़रवरी 1998) बाह्य विशेषज्ञ सदस्य रहा। पी-एच.डी. हेतु शोध-कार्य करने के विचारार्थ प्रस्तुत एक शोधार्थी का विषय डा. ओडोलेन स्मेकल के जीवन और साहित्य पर था; जो स्वीकृत किया। एक दिन, इसी शोधार्थी ने सूचित किया कि डा. ओडोलेन स्मेकल दि. 14 जुलाई 1998 को नहीं रहे। भारत से अपने देश वे कब चले गये; पता न चला। उनके निधन का दुखद समाचार पढ़ कर हतप्रभ रह गया। डा. स्मेकल बहुत जल्दी चले गये ! उनका जन्म 18 अगस्त 1928 को हुआ था।

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