शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

महेश कटारे को कथाक्रम सम्मान



कथाक्रम-आयोजन का प्रारंभ करते हुए शैलेन्द्र सागर ने अपनी मां को याद किया जिन्होंने पिछले दिनों दुनिया को अलविदा कह दिया था। शैलेन्द्र सागर ने अपनी मां पर बेहद मार्मिक संपादकीय ‘कथाक्रम’ के
सितंबर अंक में लिखा था। यह पहला अवसर था जब मां की गैर मौजूदगी में कथाक्रम का आयोजन हो रहा था। कथाकार देवेन्द्र ने कथाकार महेश कटारे के व्यक्तित्व और लेखन परयह कहते हुए प्रकश डाला- महेश गांव में रहकर कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियों में आजादी के बाद के गांव की स्थिति की तस्वीर है। वे मार्क्सवादी दृष्टि से नहीं, बल्कि अपने अनुभवों से कहानियों में हो रहे बदलाव को पकड़ते हैं। इनके यहां न कूत्रिम परिवेश है, न बनावटी किस्म के चरित्र। पुरस्कार समारोह सत्र का संचालन कर रही मीनू अवस्थी ने इसे रेखांकित किया कि महेश ने इक्कीसवीं सदी के जटिल मां के चरित्र को अपनी कहानियों के जरिए अभिव्यक्त किया है।
पुरस्कार ग्रहण करने के बाद महेश कटारे ने कहानी को रात के सन्नाटे में बात बुनने की कला बताया। उन्होंने कहा- मेरी इच्छा है कि मेरी कहानी मुनादी की आवाज में बदल जाए। मेरी कहानियों की स्त्री कभी हार नहीं मानती। यह पुरस्कार मेरे लिए गांव की गर्वीली गरीबी को जीने जैसा है। अगर तुम अतीत पर गोली चलाओगे तो भविष्य तुम पर गोली बरसाएगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं हत्यारे और अन्यायी को कभी प्रतिष्ठित नहीं होने दूंगा। मौजूदा दौर में यह करना पड़ेगा कि लेखक द्घायल क्रौंच पक्षी की मां के साथ खड़ा है या शिकारी के हिंसक स्वार्थ के साथ। अब हम उतावले समय में जी रहे हैं। रातों-रात करोड़पति बनने के सपने बेचे जा रहे हैं। एक ही देश के दो टुकड़े समृद्ध इंडिया और बदहाल भारत। इंडिया को यह मंजूर नहीं कि भारत उसकी बराबरी में खड़ा हो सके।
‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने महेश कटारे को कथाक्रम सम्मान दिए जाने को चंबल का लखनऊ पर हुए हमले का नाम बताया। उन्होंने कहा कि महेश कटारे को देखकर अद्म गोंडवी याद आते हैं जो गांव में किसानी करते हुए कविताई करते हैं। सर्वप्रथम ‘मुर्दा स्थगित’ जैसी कहानी से महेश ने हिन्दी जगत का ध्यान अपनी और आकर्षित किया। महेश से मुझे बहुत उम्मीदें हैं। फूलन देवी जैसे चरित्र पर इनको कोई उपन्यास लिखना चाहिए।
प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने महेश कटारे की तुलना प्रेमचंद से की। कहानियां भी शहरी दृष्टि से लिखी गई मालूम होती हैं। गांव के नजरिये से ग्रामीण यथार्थ की कहानी तो महेश कटारे ने ही लिखी है, वो भी भाषा की ताजगी और चरित्र की बोल्डनेस तथा विविधता के साथ। इनके पास भाषा के साथ-साथ चरित्रों की भी ताकत है। छछिया पर छाछ थीम पर हिन्दी में कोई दूसरी कहानी नहीं लिखी गई। मुझे अफसोस है कि मैंने महेश कटारे को बड़ी देर से पढ़ा।
कथाकार शेखर जोशी को हैरानी इस बात की थी कि अदबी नजाकत वाले शहर में ठेठ गंवई मिजाज के लेखक महेश कटारे का सम्मान हो रहा है। जमीन से जुड़े लेखकों की उपेक्षा कर साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाने को न्याय नहीं कहा जा सकता। स्त्री-विमर्श के दौर में महेश कटारे की ‘बच्चों को सब कुछ बता दूंगी’ कहानी एक नया द्वार खोलती है।

आखर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

इस हिम्मत की बहुत ज़रूरत है



इतिहास विजेताओं का ही होता है अक्सर



और साहित्य का इतिहास? एक वक़्त था जब इसमे वो दर्ज़ होते थे जिनके कलाम से उनका समय आलोकित होता था। वे जो अपने वक़्त के साथ ही नहीं बल्कि ख़िलाफ़ भी होते थे…वो जो बादशाह के मुक़ाबिल खडे होकर कह सकते थे-- संतन को कहां सीकरी सो काम।



पर अब शायद इतना इंतज़ार करने का वक़्त नहीं किसी के पास। सो वही दर्ज़ होगा जिसके हाथों में पुरस्कार होगा, गले में सम्मान की माला और दीवारों पर महान लोगों के साथ सजी तस्वीर। और सब तरफ़ इतिहास में दर्ज़ होने की आपाधापी के बीच किसे फ़िक्र है अपने वक़्त की या फिर उन ताक़तों की जो एक टुकडा पुरस्कार के बदले न जाने क्या-क्या छीन लेते हैं।



अभी दिल्ली के एक बेहद गंभीर और प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी से बातचीत हो रही थी तो अपने पुराने दोस्त हबीब तनवीर से हुई बातचीत का खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि जब इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने उनसे राज्यसभा की सदस्यता के लिये प्रस्ताव दिया तो पांच मिनट थे फ़ैसला करने को…और तीसरे मिनट में वह ललच गये। तो जब मेरे उन मित्र से अभी कुछेक साल पहले यही प्रस्ताव दोहराया गया तो उन्होंने बस पहले ही मिनट में तय कर लिया -- नहीं। पर इतिहास? वहां तो हबीब साहब ही दर्ज़ होंगे ना?



ऐसे माहौल मे जब मुझे एक मित्र ने बताया कि युवा रचनाकार अल्पना मिश्र ने उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रस्तावित एक पुरस्कार ( जो उनके साथ बुद्धिनाथ मिश्र को भी मिला है) यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ''मुझे किसी राजनेता से पुरस्कार नहीं लेना'' तो मेरा सीना गर्व से चौडा हो गया। न तो अल्पना जी से मेरी कोई जानपहचान है ना ही उनकी कहानियों का कोई बहुत बडा प्रशंसक रहा हूं, लेकिन उनके इस कदम ने मुझे इतनी खुशी दी कि अब वह अगर एक भी कहानी न लिखें तो भी मै उनका प्रशंसक रहुंगा। इसलिये भी कि उन्होंने इस बात का कोई शोरगुल नहीं मचाया न ही किसी आधिकारिक पत्र का
इंतज़ार किया। यह सामान्य सी लगने वाली बात अपने आप में असामान्य है।



अल्पना आपकी इस हिम्मत के लिये मै आपको सलाम करता हूं।



इस ज़िद को बनाये रखियेगा…आपका एक आत्मसमर्पण न जाने कितनों को कमज़ोर बना देगा !


*** अभी अल्पना जी ने बताया है कि यह पुरस्कार राज्य सरकार का नहीं है अपितु किन्हीं धनंजय सिंह जी द्वारा अपने किसी रिश्तेदार की स्मृति में दिया जाना है जिसे उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री या संस्कृति मंत्री के हाथ से दिया जाना है।