हम अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और विरासत को विकृत होने से बचाएं- जितेन्द्र भाटिया
साहित्यकार नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़े हों-
साहित्यकार नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़े हों-
प्रो. अली जावेद
जयपुरः राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ एवं राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में अकादमी के सभागार में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना दिवस के अवसर पर 9 अप्रेल, 2009 को साहित्य दिवस का आयोजन किया गया। प्रतिष्ठित कथाकार एवं लेखक जितेन्द्र भाटिया के मुख्य आतिथ्य में आयोजित इस समारोह में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद विशिष्ठ अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्यकार डा. हेतु भारद्वाज ने की। आयोजन के पहले सत्र में ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषयक विचार गोष्ठी हुई तथा दूसरे सत्र में राजस्थान के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों ने यशवंत व्यास की अध्यक्षता में अपनी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया।
समारोह के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित कथाकार जितेन्द्र भाटिया ने कहा कि राजस्थान की एक पुरानी, समृद्ध, और सशक्त सांस्कृतिक परम्परा रही है, जो इधर बहुत तेजी से बदलती जा रही है और इसकी वजह मुख्य रूप से सांस्कृतिक आक्रमण के साथ साथ राजनैतिक भी है। पिछले कुछ समय से वे स्वयं अपने आप से एक सवाल करते रहे हैं कि वे क्यों लिखते हैं। यह बहुत मुश्किल सवाल है। एक सक्रिय लेखक के लिए इसको समझना और परखना बहुत जरूरी है। उस लेखक के लिए तो और भी जरूरी है जो यह दावा करता है कि वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। सक्रियता या रचनात्मकता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। कहीं अपने आपको जीवित रखने के लिए या अपने आपको सार्थक बनाये रखने और अपने इर्द-गिर्द का जो समाज है उसमें योगदान देने के लिए यह जरूरी है।
उन्होंने कहा कि उनके भीतर एक सामाजिक अपराध बोध है तथा उन साहित्यकारों के साथ भी शायद ऐसा ही होगा कि इस समाज ने जो दिया है यानी चीजों को समझने और विश्लेषण करने की तमीज दी है उसे हमने कितना वापस लौटाया। वे जब इस समीकरण पर उतरते हैं तो अपने को एक विचित्र अपराधगग्रस्तता में पाते हैं। एक व्यक्ति के निर्माण में समाज के बहुत से लोगों का योगदान होता है। शिक्षक, माता-पिता, पड़ोसी, मित्रों और अनेक लोगों के योगदान से आदमी समृद्ध होता है। इसलिए साहित्यकार के लिखने के पीछे एक सशक्त कारण है। इस अपराध भाव को समाज को परिवर्तित नहीं कर पाने या अपने समाज को उस तरह कार्यान्वित नहीं कर पाने की मजबूरी या छटपटाहट के तहत लेखक लिखता है। यह जरूरी नहीं कि इससे समाधान निकले लेकिन उसकी कोशिश बनी रहनी चाहिए।
भाटिया ने कहा कि जो अपनी स्मृति को याद रखता है उसे हम अविष्कारक मान सकते हैं और जो अपनी स्मृति, अपने इतिहास, समाज की सारी विसंगतियों (जो पूर्वजों ने झेली हैं) को भूलता है तो वह कहीं अपने आपको भूलता है और कहीं वह उस अविष्कार का ह्रास करता है। यह बहुत जरूरी है कि हम इस चीज को आत्मसात करें। इसे सरलीकृत तरीके से देखने की जरूरत नहीं है जो विसंगतियां नैतिक तौर पर या तमाम दूसरी चीजों में दिखाई देती हैं।
भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ का उदाहरण देते हुए जितेन्द्र भाटिया ने बताया कि 1947 में विभाजन के 20 वर्ष बाद उनकी रचनाओं में वे चीजें बहुत सलीके से आई जिसको वे अपने भीतर दबाए हुए थे। उनकी रचनाओं में हो-हल्ला नहीं है या किसी आंदोलनकर्ता जैसा व्यवहार नहीं दिखता। वह स्वतः और शनैः-शनैः रचनाओं में उतरता है। इसलिए हमें अपने प्रदेश की संस्कृति और परम्परा को सूक्ष्म दृष्टि से समझने-देखने की जरूरत है। इसे पूरी तरह सामन्ती कहकर नकार नहीं सकते। उनमें से ऐसे तत्व ढूंढने की जरूरत है जो कहीं हमें जोड़ती अथवा समृद्ध करती है। उन्हें ढूंढे बगैर हम प्रगतिशील सोच आगे नहीं बढ़ा पायेंगे। हमें चीजों को विकृत करने वालों के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा। हमें स्मृति और आविष्कार का इस्तेमाल अपनी परम्परा और संस्कृति को समझने के लिए करना चाहिए क्योंकि जो लोग इसके ठेकेदार बने हैं उनके इरादों में बेईमानी और खोट है और वे राजनीति के तहत चीजों के देखते हैं। वे संस्कृति में भी राजनीति ढूंढेंगे। हमारी परम्परा में जो चिन्ह हैं उन्हें देखने समझने की जरूरत है। आज के समाज में चीजे जिस तरह विकृत हो रही हैं उसे रोकना होगा तभी हम अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और विरासत को बचा सकते हैं।
विशिष्ट अतिथि नेशनल कौंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू के पूर्व निदेशक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद ने कहा कि लोकतंत्र में चीजों का जो राजनीतिकरण होता है वह हमारे समाज और नई पीढ़ी में न केवल भ्रामक पैदा करता है बल्कि घातक भी है। उन्होंने कहा कि भगतसिंह इस मुल्क के ऐसे इंकलाबी नेता थे जिनका अधिकतर लेखन उर्दू में हुआ। ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा उन्होंने दिया। ऐसी अजीम शख्सियत को आप सिख समुदाय तक सीमित नहीं कर सकते। आजादी के 60 साल बाद भी आज हमारी पहचान जाति और धर्म के आधार पर हो तो चिंताजनक है। भगतसिंह ने धर्म और जाति से ऊपर उठकर देश की आजादी के लिए काम किया। इसी तरह बेगम हजरत महल ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के आगे झुकने की बजाय नेपाल मे शरण लेकर आजादी की मुहिम को जारी रखा।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज जब हम प्रगतिशील लेखक के स्थापना दिवस पर चर्चा कर रहे हैं तो हमें प्रगतिशील आंदोलन को आज परिपेक्ष्य में अपनी सार्थक भूमिका निभाने के बारे में विचार करना होगा। इस आंदोलन को आज 73 साल हो गये। उस वक्त जब देश और दुनिया पर जंग का खतरा मण्डरा रहा था तब दो धाराओं ने काम शुरू किया था। एक तरफ राजनीति थी और दूसरी तरफ लेखक, शायर और बुद्धिजीवी वर्ग था जिसने सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए आन्दोलन में अपनी महती भूमिका निभाई। आज की चुनौतियों को देखते हुए हमें इस सांस्कृतिक आंदोलन को जनता के बीच ले जाना होगा। शहीद भगतसिंह और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के बाद देश की बेहबूदी, श्रम की निष्ठा, मजदूरों के हक और आम आवास की खुशहाली के जो सपने संजोए थे उन पर गौर करने की जरूरत है कि वे कितने साकार हुए। लेखकों, शायरों और बुद्धिजीवियों के सामने ये जिम्मेदारी है कि वे हकीकत को पेश करें और गरीब, मजदूर, किसान, युवा वर्ग और महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए आगे आयें।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद अगर यह हमारे सपनों का भारत होता तो शायद फैज़ अहमद फैज़ को यह नहीं कहना पड़ता-
ये दाग-दाग उजाला
ये शबगजीदा सहर
ये वो सहर तो नहीं
जिसकी आरजू लेकर
चले थे हम
कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दस्त में
तारों की आखिरी मंजिल।
फैज़ को यह भी कहना पड़ा था कि -
चले चलो कि
वो मंजिल अभी नहीं आई।
देश में इन हालातों पर फैज़ ही नहीं बल्कि इंकलाबी शायर मख्दूम मोहियुद्दीन ने भी इशारा किया था-
वो जंग ही क्या
वो अम्न ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराफ न हो
वो दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्वराज न हो
वो आजादी आजादी क्या
मजदूर का जिसमें जिक्र न हो।
प्रो. जावेद ने कहा कि यह अफसोस की बात है कि आजादी के छः दशक बाद भी हम सामंती समाज से आये जन प्रतिनिधियों को राजासाहब और रानी साहिबा जैसे सामन्ती संबोधन देते हैं। हमारी मानसिकता आज भी नहीं बदली। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलती तब तक इस दलदल से उभर नहीं सकते। इसलिए हमें अपनी परम्परा और विरासत को याद करते हुए नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़ा होना पड़ेगा।
उन्होंने चिंता दर्शाई कि आजादी के बाद हमने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की थी लेकिन उसके बदले में नफरत और आपस में बांटने वाले हालात मिले। हमारे पुरोधा लेखकों प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर, मख्दूम, निराला ने भी हमेशा धर्म की बेहतरीन परम्पराओं की ओर इशारा किया। आज हमें उनका अनुसरण करते हुए नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी। हमारे अदीब और शायरों में कबीर, तुलसी, गालिब और मीर की परम्परा को 1936 के बाद प्रगतिशील आंदोलन ने जिस तरह आगे बढ़ाया उसे गति देनी होगी।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज हर चीज को हमने उपयोग की चीज मान लिया है और उपभोक्तावादी रवैया अपना लिया है। मल्टीनेशनल ताकतें तीसरी दुनिया के देशों के समाज और संस्कृति को उपभोक्तावादी बनाने में लगी हुई हैं। हम भी कहीं न कहीं उसका शिकार होते जा रहे हैं। हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं। फिल्मों ने भी यही काम किया है। आज ऐसे गीत और नृत्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो हमारी पूरी परम्परा को आहत करने वाले हैं। ऐसी अवस्था में हमें अपनी परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के बारे में विचार करने की जरूरत है तभी प्रगतिशील आंदोलन की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेजी तालीम के खिलाफ होने की जरूरत नहीं है लेकिन जो हमारे जीवन मूल्य हैं, वे तिरोहित नहीं होने चाहिए। भारतीय संस्कृति का नारा देने वाले चन्द लोग उसको धर्म के साथ जोड़ कर देखते हैं जबकि हमारी संस्कृति तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की रही है।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज कदम-कदम पर हमें धर्म और जात-पात पर अपनी पहचान कराने की कोशिश की जा रही है। आज वक्त आ गया है कि हम उन जीवन मूल्यों को फिर से मजबूत करने की कोशिश करें जो हमारी शानदार विरासत का हिस्सा है। हमारा लेखक, कलाकार, शायर और बुद्धिजीवी अभी तक राजनीतिज्ञों की भांति भ्रष्ट नहीं हुआ है जिस तरह सियासत तो एक व्यापार और कैरियर हो गया है और वहां कोई प्रतिबद्धता नहीं रह गई है। साहित्यकारों को अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती के साथ व्यक्त करने की आवश्यकता है। हमें यह संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समाज को जाति और धर्म के आधार पर नहीं बंटने देंगे और नफरत नहीं फैलने देंगे। हमें अपनी कमजोरियों को दूर करना होगा। अगर हम अपने फर्ज को याद रखेंगे तो इस मकसद में जरूर कामयाब होंगे।
इससे पूर्व प्रमुख आलोचक एवं साहित्यकार राजाराम भादू ने ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषय पर बीज भाषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज साहित्यकारों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हमें लोकतंत्र की विसंगतियों के बीच अपने लेखन का दायित्व निभाते हुए समाज के प्रति अपनी सार्थक भूमिका को निभाने की महती आवश्यकता है। आज हालात जिस तरह से बदल रहे है उससे समाज को परिचत कराकर उन्हें जन-विरोधी ताकतों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करना होगा।
प्रगतिशील लेखक संघ, अजमेर के महासचिव अनन्त भटनागर ने कहा कि राजस्थान में स्वाधीनता के बाद साहित्य सृजना तो लोकतंत्र को प्रोत्साहित करने वाली हुई है और कहानी-कविता के माध्यम से जनवादी साहित्य भी रचा गया है और बहस-मुबाहिसों में भी लोकतंत्र केन्द्र बिन्दु रहा है। लेकिन लोक से रिश्ता बनाने में हमारे साहित्यकर्मी सफल नहीं हो पाये हैं। यह त्रासदी है कि वर्तमान में जैसा लोकतंत्र निर्मित होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया। कोई बड़ा जन आंदोलन निर्मित करने में भी हमारी साहित्यिक पीढ़ी को कामयाबी हासिल नहीं हुई है। राजस्थान में वर्तमान में साहित्य के जो आंदोलन चल रहे हैं या जो पहले भी चले हैं उनमें भी संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी बहुत कम रही है। साहित्यकारों की सुविधाभोगी प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। लोकतंत्रगामी शक्तियों के विरोध में या सूचना का अधिकार जैसे जन-आंदोलन और साहित्य आंदोलन के पक्ष में साहित्यकारों की भूमिका आज बढ़ाने की आवश्यकता है।
भटनागर ने कहा कि आज विचार और सृजन के व्यापकीकरण की जरूरत है। राजस्थान के जन आंदोलन विचार से बहुत अधिक समृद्ध करनेकी जरूरत है। विचार के प्रति लोगों में श्रद्धा है लेकिन साहित्य उसे सींचता तो वह एक बड़ा आंदोलन का रूप ले सकता था और उसका ज्यादा प्रभाव पड़ सकता था। हम किस तरह विचार को जन आंदोलन तक कैसे ले जा सकते हैं, इस पर चिंतन करने की जरूरत है।
उन्होंने कहाकि दुर्भाग्यवश पिछले 20 वर्षो में सामन्तवाद के साथ साम्प्रदायिकता का प्रसार हुआ है, जिसका विरोध करने में साहित्यकार पीछे रहे हैं। गुजरात हमारा पड़ौसी राज्य है। उसके साथ हमारे गहरे सांस्कृतिक संबंध भी रहे है लेकिन गुजरात की घटनाओं और विशेष रूप से साम्प्रदायीकरण के प्रति राजस्थान से प्रखर विरोध का स्वर नहीं उठ सका। राजस्थान को गुजरात बनाने की मुहिम भी इसीलिए तेजी से आगे बढ़ी है। इसे विरोध का स्वर देने में हमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है। ऐसे समय में हम जिस प्रगतिशील विचार से जुड़े हुए हैं उसके प्रसार और क्रियान्वयन में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोड़ा ने कहा कि राजस्थान में आजादी की लड़ाई तीन स्तरों पर लड़ी गई। यह लड़ाई एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ सामन्तवाद तथा तीसरी तरफ स्थानीय राजाओं और जागीरदारों से लड़ी गई लेकिन आजादी के बाद के 60 वर्षो में हमने लोक को शक्ति नहीं दी। लोकतंत्र के नाम पर तंत्र हावी होता रहा। हमारा सदियों तक यह सोच रहा है कि किसी तरह सस्ता निकालो। हमारे यहां छुआछूत की परम्परा रही जिससे बचने की कई गलियां निकाल ली गई। आजादी के बाद हमने कानून बनाये लेकिन उसमें भी बच निकलने की गलियां मौजूद हैं।
बोड़ा ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन राजाओं-सामान्तों से हमारा विरोध था, लोकतंत्र की स्थापना के बाद उन्हीं में से लोग निकल कर लोकतंत्र के नियामक बन गये। लोक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली चीज आर्थिक नीति होती है। इन नीतियों का नियंता ‘वी द पीपुल’ नहीं है। वोट देने के बाद लोक की 5 वर्षों के लिए सारी सार्वभौमिकता खत्म हो जाती है। नीतियां वह तय करता है जिसे हम चुनते हैं। होना तो यह चाहिए कि हम उसे बतायें कि नीतियां क्या होनी चाहिए। लोकतंत्र में लाॅबियां होती हैं लेकिन लोक की कोई सशक्त लाॅबी नहीं बन पाई। उद्योगपतियों, धनपतियों की लाॅबियां बनीं। इधर आर्थिक मंदी का दौर आया और चर्चा होने लगी कि सैंसेक्स गिर गया। सोचने की बात यह है कि इस सैंसेक्स की हमारी जी.डी.पी. में कितनी भागीदारी है। जी.डी.पी. को असली मदद तो लोक दे रहा है लेकिन उसकी कोई बात नहीं करता। कुल आबादी का 5 या 10 प्रतिशत वर्ग पूरे 90 प्रतिशत लोक का शोषण करता है।
वर्तमान समय में विचार की महत्वपूर्ण भूमिका बताते हुए बोड़ा ने कहाकि विचार को लोक पर प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है। यह दुखद है कि हमारी आर्थिक नीतियां बनाने वाले ये कहते हैं कि हमारा राष्ट्र समाजवादी है लेकिन हमें केपेटेलिस्ट टूल्स का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हमारा गला पकड़कर बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ हमारे साहित्य या संस्कृति ने कोई बड़़ा प्रयास नहीं किया। हम साहित्य की विधा कहानी-कविता के जरिए लोक की अस्मिता लौटाने में मदद करें और उसका सशक्तिकरण करें। आजादी के 60 वर्षों बाद भी जयपुर में किसी राजा की मूर्ति लगती है जबकि उसी राज परिवार के मुखिया को लोकतांत्रिक चुनाव में जनता ने हराया लेकिन हमने उसके पूर्वज की मूर्ति लगाने का विरोध नहीं किया। कहीं तो हमारा सरोकार नजर आना चाहिए। लोक को यह अहसास कराने की जरूरत है कि उसका नियंता और कोई नहीं वह स्वयं है। चिंता की बात है कि हमारे यहां सामन्तवाद ने लोकतंत्र के हथियार को अपना लिया है और लोक को दब्बू बनाये रखा है। आज विचार और साहित्य से जुड़े लोगों को प्रतिक्रियावादी लोगों का विरोध करने की जरूरत है। आज की व्यवस्था ने मीडिया का भी बेजा इस्तेमाल किया है। ऐसे समय में हमारी चुनौतियां और बढ़ जाती हैं।
पुरातत्वविद हरिशचन्द्र मिश्रा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमें मीडिया का साथ लेकर विचार को आगे बढ़ाना होगा। हमारा लोकतंत्र का जो मूल मंत्र था उसकी ओर नागरिकों को लौटाने के लिए साहित्यकारों की महती भूमिका है।
राजेश चैधरी (ब्यावर) ने कहा कि रचनाकर्म और सामाजिक सक्रियता अपने आप में महत्वपूर्ण है। जन आंदोलनों के साथ साहित्यकारों के जुड़ाव का प्रभाव दिखाई देना चाहिए। प्रबुद्ध लोगों को अपने रचनाकर्म के साथ जन आंदोलनों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय सहभागिता निभाने की जरूरत है।
राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के निदेशक डा. आर.डी.सैनी ने कहा कि हमारे यहां अभी भी सामन्ती तत्व मौजूद हैं। संस्थानों में लोकतंत्रीकरण की जरूरत है। लोकतंत्र में विचारों की स्वीकार्यता भी लोकतांत्रिक तरीकों से होती है। ये फैसले दबाव समूहों से होते हैं। अगर हमें अपने हक में फैसले कराने हैं तो दबाव समूह बनाना चाहिए। अध्यक्षता करते हुए राजस्थान प्रगतिषील लेखक संघ के अध्यक्ष डा. हेतु भारद्वाज ने कहा कि रचनाकार को शब्द और कर्म के बीच की दूरी कम करनी होगी और लोक से जीवंत संपर्क स्थापित करना होगा। उन्होंने कहा कि आज संाप्रदायिकता कई रूपों में सामने आ रही है और समाज में आपसी वैमनस्य और घृणा बढ रही है जिससे रचनाकर्म भी अछूता नहीं है। हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता प्रदर्षित करते हुए समाज को भी सावधान करना होगा।
साहित्य दिवस के दूसरे सत्र में प्रतिष्ठित पत्रकार एवं व्यंग्यकार यशवंत व्यास की अध्यक्षता में व्यंग्य पाठ का आयोजन किया गया। इसमें प्रदेश के प्रमुख व्यंग्यकारों यशवंत व्यास, सम्पत सरल, फारूक आफरीदी, अनुराग वाजपेयी, अजय अनुरागी, मदन शर्मा ने प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं का रसास्वादन किया। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि गोविन्द माथुर ने कविता पाठ और कथाकार श्याम जांगिड़ ने कहानी पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन अशोक राही ने किया।
राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने प्रारंभ में इस आयोजन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सांस्कृतिक कला रूपों से सम्बद्ध लेखक, कलाकार, पत्रकारों की भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका की आज आवश्यकता है। राजस्थान में कलाओं के लोकतांत्रिकीकरण के कुछ निजी स्तर पर प्रयास जरूर हुए हैं, लेकिन आज जो चुनौतियां देश और समाज के सामने हैं उनको मद्देनजर रखते हुए इन प्रयासों को बढ़ाना होगा। प्रगतिशील विचारधारा से जुडे़ लेखकों की जिम्मेदारी आज अधिक बढ़ गई है। उन्हें अपने लेखन के साथ जन-आंदोलनों में भी अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करना होगा।
रिपोर्ताजः फारूक आफरीदी, ई-750, गांधी नगर, न्याय पथ, जयपुर-302015 मो. 94143 35772
जयपुरः राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ एवं राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में अकादमी के सभागार में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना दिवस के अवसर पर 9 अप्रेल, 2009 को साहित्य दिवस का आयोजन किया गया। प्रतिष्ठित कथाकार एवं लेखक जितेन्द्र भाटिया के मुख्य आतिथ्य में आयोजित इस समारोह में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद विशिष्ठ अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्यकार डा. हेतु भारद्वाज ने की। आयोजन के पहले सत्र में ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषयक विचार गोष्ठी हुई तथा दूसरे सत्र में राजस्थान के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों ने यशवंत व्यास की अध्यक्षता में अपनी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया।
समारोह के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित कथाकार जितेन्द्र भाटिया ने कहा कि राजस्थान की एक पुरानी, समृद्ध, और सशक्त सांस्कृतिक परम्परा रही है, जो इधर बहुत तेजी से बदलती जा रही है और इसकी वजह मुख्य रूप से सांस्कृतिक आक्रमण के साथ साथ राजनैतिक भी है। पिछले कुछ समय से वे स्वयं अपने आप से एक सवाल करते रहे हैं कि वे क्यों लिखते हैं। यह बहुत मुश्किल सवाल है। एक सक्रिय लेखक के लिए इसको समझना और परखना बहुत जरूरी है। उस लेखक के लिए तो और भी जरूरी है जो यह दावा करता है कि वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। सक्रियता या रचनात्मकता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। कहीं अपने आपको जीवित रखने के लिए या अपने आपको सार्थक बनाये रखने और अपने इर्द-गिर्द का जो समाज है उसमें योगदान देने के लिए यह जरूरी है।
उन्होंने कहा कि उनके भीतर एक सामाजिक अपराध बोध है तथा उन साहित्यकारों के साथ भी शायद ऐसा ही होगा कि इस समाज ने जो दिया है यानी चीजों को समझने और विश्लेषण करने की तमीज दी है उसे हमने कितना वापस लौटाया। वे जब इस समीकरण पर उतरते हैं तो अपने को एक विचित्र अपराधगग्रस्तता में पाते हैं। एक व्यक्ति के निर्माण में समाज के बहुत से लोगों का योगदान होता है। शिक्षक, माता-पिता, पड़ोसी, मित्रों और अनेक लोगों के योगदान से आदमी समृद्ध होता है। इसलिए साहित्यकार के लिखने के पीछे एक सशक्त कारण है। इस अपराध भाव को समाज को परिवर्तित नहीं कर पाने या अपने समाज को उस तरह कार्यान्वित नहीं कर पाने की मजबूरी या छटपटाहट के तहत लेखक लिखता है। यह जरूरी नहीं कि इससे समाधान निकले लेकिन उसकी कोशिश बनी रहनी चाहिए।
भाटिया ने कहा कि जो अपनी स्मृति को याद रखता है उसे हम अविष्कारक मान सकते हैं और जो अपनी स्मृति, अपने इतिहास, समाज की सारी विसंगतियों (जो पूर्वजों ने झेली हैं) को भूलता है तो वह कहीं अपने आपको भूलता है और कहीं वह उस अविष्कार का ह्रास करता है। यह बहुत जरूरी है कि हम इस चीज को आत्मसात करें। इसे सरलीकृत तरीके से देखने की जरूरत नहीं है जो विसंगतियां नैतिक तौर पर या तमाम दूसरी चीजों में दिखाई देती हैं।
भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ का उदाहरण देते हुए जितेन्द्र भाटिया ने बताया कि 1947 में विभाजन के 20 वर्ष बाद उनकी रचनाओं में वे चीजें बहुत सलीके से आई जिसको वे अपने भीतर दबाए हुए थे। उनकी रचनाओं में हो-हल्ला नहीं है या किसी आंदोलनकर्ता जैसा व्यवहार नहीं दिखता। वह स्वतः और शनैः-शनैः रचनाओं में उतरता है। इसलिए हमें अपने प्रदेश की संस्कृति और परम्परा को सूक्ष्म दृष्टि से समझने-देखने की जरूरत है। इसे पूरी तरह सामन्ती कहकर नकार नहीं सकते। उनमें से ऐसे तत्व ढूंढने की जरूरत है जो कहीं हमें जोड़ती अथवा समृद्ध करती है। उन्हें ढूंढे बगैर हम प्रगतिशील सोच आगे नहीं बढ़ा पायेंगे। हमें चीजों को विकृत करने वालों के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा। हमें स्मृति और आविष्कार का इस्तेमाल अपनी परम्परा और संस्कृति को समझने के लिए करना चाहिए क्योंकि जो लोग इसके ठेकेदार बने हैं उनके इरादों में बेईमानी और खोट है और वे राजनीति के तहत चीजों के देखते हैं। वे संस्कृति में भी राजनीति ढूंढेंगे। हमारी परम्परा में जो चिन्ह हैं उन्हें देखने समझने की जरूरत है। आज के समाज में चीजे जिस तरह विकृत हो रही हैं उसे रोकना होगा तभी हम अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और विरासत को बचा सकते हैं।
विशिष्ट अतिथि नेशनल कौंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू के पूर्व निदेशक और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय उप महासचिव प्रो. अली जावेद ने कहा कि लोकतंत्र में चीजों का जो राजनीतिकरण होता है वह हमारे समाज और नई पीढ़ी में न केवल भ्रामक पैदा करता है बल्कि घातक भी है। उन्होंने कहा कि भगतसिंह इस मुल्क के ऐसे इंकलाबी नेता थे जिनका अधिकतर लेखन उर्दू में हुआ। ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का नारा उन्होंने दिया। ऐसी अजीम शख्सियत को आप सिख समुदाय तक सीमित नहीं कर सकते। आजादी के 60 साल बाद भी आज हमारी पहचान जाति और धर्म के आधार पर हो तो चिंताजनक है। भगतसिंह ने धर्म और जाति से ऊपर उठकर देश की आजादी के लिए काम किया। इसी तरह बेगम हजरत महल ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के आगे झुकने की बजाय नेपाल मे शरण लेकर आजादी की मुहिम को जारी रखा।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज जब हम प्रगतिशील लेखक के स्थापना दिवस पर चर्चा कर रहे हैं तो हमें प्रगतिशील आंदोलन को आज परिपेक्ष्य में अपनी सार्थक भूमिका निभाने के बारे में विचार करना होगा। इस आंदोलन को आज 73 साल हो गये। उस वक्त जब देश और दुनिया पर जंग का खतरा मण्डरा रहा था तब दो धाराओं ने काम शुरू किया था। एक तरफ राजनीति थी और दूसरी तरफ लेखक, शायर और बुद्धिजीवी वर्ग था जिसने सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए आन्दोलन में अपनी महती भूमिका निभाई। आज की चुनौतियों को देखते हुए हमें इस सांस्कृतिक आंदोलन को जनता के बीच ले जाना होगा। शहीद भगतसिंह और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के बाद देश की बेहबूदी, श्रम की निष्ठा, मजदूरों के हक और आम आवास की खुशहाली के जो सपने संजोए थे उन पर गौर करने की जरूरत है कि वे कितने साकार हुए। लेखकों, शायरों और बुद्धिजीवियों के सामने ये जिम्मेदारी है कि वे हकीकत को पेश करें और गरीब, मजदूर, किसान, युवा वर्ग और महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए आगे आयें।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद अगर यह हमारे सपनों का भारत होता तो शायद फैज़ अहमद फैज़ को यह नहीं कहना पड़ता-
ये दाग-दाग उजाला
ये शबगजीदा सहर
ये वो सहर तो नहीं
जिसकी आरजू लेकर
चले थे हम
कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दस्त में
तारों की आखिरी मंजिल।
फैज़ को यह भी कहना पड़ा था कि -
चले चलो कि
वो मंजिल अभी नहीं आई।
देश में इन हालातों पर फैज़ ही नहीं बल्कि इंकलाबी शायर मख्दूम मोहियुद्दीन ने भी इशारा किया था-
वो जंग ही क्या
वो अम्न ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराफ न हो
वो दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्वराज न हो
वो आजादी आजादी क्या
मजदूर का जिसमें जिक्र न हो।
प्रो. जावेद ने कहा कि यह अफसोस की बात है कि आजादी के छः दशक बाद भी हम सामंती समाज से आये जन प्रतिनिधियों को राजासाहब और रानी साहिबा जैसे सामन्ती संबोधन देते हैं। हमारी मानसिकता आज भी नहीं बदली। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलती तब तक इस दलदल से उभर नहीं सकते। इसलिए हमें अपनी परम्परा और विरासत को याद करते हुए नये सोच के साथ देश और समाज के हालात बदलने के लिए खड़ा होना पड़ेगा।
उन्होंने चिंता दर्शाई कि आजादी के बाद हमने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की थी लेकिन उसके बदले में नफरत और आपस में बांटने वाले हालात मिले। हमारे पुरोधा लेखकों प्रेमचन्द, सज्जाद ज़हीर, मख्दूम, निराला ने भी हमेशा धर्म की बेहतरीन परम्पराओं की ओर इशारा किया। आज हमें उनका अनुसरण करते हुए नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी। हमारे अदीब और शायरों में कबीर, तुलसी, गालिब और मीर की परम्परा को 1936 के बाद प्रगतिशील आंदोलन ने जिस तरह आगे बढ़ाया उसे गति देनी होगी।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज हर चीज को हमने उपयोग की चीज मान लिया है और उपभोक्तावादी रवैया अपना लिया है। मल्टीनेशनल ताकतें तीसरी दुनिया के देशों के समाज और संस्कृति को उपभोक्तावादी बनाने में लगी हुई हैं। हम भी कहीं न कहीं उसका शिकार होते जा रहे हैं। हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं। फिल्मों ने भी यही काम किया है। आज ऐसे गीत और नृत्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो हमारी पूरी परम्परा को आहत करने वाले हैं। ऐसी अवस्था में हमें अपनी परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के बारे में विचार करने की जरूरत है तभी प्रगतिशील आंदोलन की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेजी तालीम के खिलाफ होने की जरूरत नहीं है लेकिन जो हमारे जीवन मूल्य हैं, वे तिरोहित नहीं होने चाहिए। भारतीय संस्कृति का नारा देने वाले चन्द लोग उसको धर्म के साथ जोड़ कर देखते हैं जबकि हमारी संस्कृति तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की रही है।
प्रो. जावेद ने कहा कि आज कदम-कदम पर हमें धर्म और जात-पात पर अपनी पहचान कराने की कोशिश की जा रही है। आज वक्त आ गया है कि हम उन जीवन मूल्यों को फिर से मजबूत करने की कोशिश करें जो हमारी शानदार विरासत का हिस्सा है। हमारा लेखक, कलाकार, शायर और बुद्धिजीवी अभी तक राजनीतिज्ञों की भांति भ्रष्ट नहीं हुआ है जिस तरह सियासत तो एक व्यापार और कैरियर हो गया है और वहां कोई प्रतिबद्धता नहीं रह गई है। साहित्यकारों को अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती के साथ व्यक्त करने की आवश्यकता है। हमें यह संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समाज को जाति और धर्म के आधार पर नहीं बंटने देंगे और नफरत नहीं फैलने देंगे। हमें अपनी कमजोरियों को दूर करना होगा। अगर हम अपने फर्ज को याद रखेंगे तो इस मकसद में जरूर कामयाब होंगे।
इससे पूर्व प्रमुख आलोचक एवं साहित्यकार राजाराम भादू ने ’साहित्य संस्कृति का लोकतंत्र और राजस्थान’ विषय पर बीज भाषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज साहित्यकारों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हमें लोकतंत्र की विसंगतियों के बीच अपने लेखन का दायित्व निभाते हुए समाज के प्रति अपनी सार्थक भूमिका को निभाने की महती आवश्यकता है। आज हालात जिस तरह से बदल रहे है उससे समाज को परिचत कराकर उन्हें जन-विरोधी ताकतों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करना होगा।
प्रगतिशील लेखक संघ, अजमेर के महासचिव अनन्त भटनागर ने कहा कि राजस्थान में स्वाधीनता के बाद साहित्य सृजना तो लोकतंत्र को प्रोत्साहित करने वाली हुई है और कहानी-कविता के माध्यम से जनवादी साहित्य भी रचा गया है और बहस-मुबाहिसों में भी लोकतंत्र केन्द्र बिन्दु रहा है। लेकिन लोक से रिश्ता बनाने में हमारे साहित्यकर्मी सफल नहीं हो पाये हैं। यह त्रासदी है कि वर्तमान में जैसा लोकतंत्र निर्मित होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया। कोई बड़ा जन आंदोलन निर्मित करने में भी हमारी साहित्यिक पीढ़ी को कामयाबी हासिल नहीं हुई है। राजस्थान में वर्तमान में साहित्य के जो आंदोलन चल रहे हैं या जो पहले भी चले हैं उनमें भी संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी बहुत कम रही है। साहित्यकारों की सुविधाभोगी प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ी है। लोकतंत्रगामी शक्तियों के विरोध में या सूचना का अधिकार जैसे जन-आंदोलन और साहित्य आंदोलन के पक्ष में साहित्यकारों की भूमिका आज बढ़ाने की आवश्यकता है।
भटनागर ने कहा कि आज विचार और सृजन के व्यापकीकरण की जरूरत है। राजस्थान के जन आंदोलन विचार से बहुत अधिक समृद्ध करनेकी जरूरत है। विचार के प्रति लोगों में श्रद्धा है लेकिन साहित्य उसे सींचता तो वह एक बड़ा आंदोलन का रूप ले सकता था और उसका ज्यादा प्रभाव पड़ सकता था। हम किस तरह विचार को जन आंदोलन तक कैसे ले जा सकते हैं, इस पर चिंतन करने की जरूरत है।
उन्होंने कहाकि दुर्भाग्यवश पिछले 20 वर्षो में सामन्तवाद के साथ साम्प्रदायिकता का प्रसार हुआ है, जिसका विरोध करने में साहित्यकार पीछे रहे हैं। गुजरात हमारा पड़ौसी राज्य है। उसके साथ हमारे गहरे सांस्कृतिक संबंध भी रहे है लेकिन गुजरात की घटनाओं और विशेष रूप से साम्प्रदायीकरण के प्रति राजस्थान से प्रखर विरोध का स्वर नहीं उठ सका। राजस्थान को गुजरात बनाने की मुहिम भी इसीलिए तेजी से आगे बढ़ी है। इसे विरोध का स्वर देने में हमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है। ऐसे समय में हम जिस प्रगतिशील विचार से जुड़े हुए हैं उसके प्रसार और क्रियान्वयन में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र बोड़ा ने कहा कि राजस्थान में आजादी की लड़ाई तीन स्तरों पर लड़ी गई। यह लड़ाई एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ सामन्तवाद तथा तीसरी तरफ स्थानीय राजाओं और जागीरदारों से लड़ी गई लेकिन आजादी के बाद के 60 वर्षो में हमने लोक को शक्ति नहीं दी। लोकतंत्र के नाम पर तंत्र हावी होता रहा। हमारा सदियों तक यह सोच रहा है कि किसी तरह सस्ता निकालो। हमारे यहां छुआछूत की परम्परा रही जिससे बचने की कई गलियां निकाल ली गई। आजादी के बाद हमने कानून बनाये लेकिन उसमें भी बच निकलने की गलियां मौजूद हैं।
बोड़ा ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन राजाओं-सामान्तों से हमारा विरोध था, लोकतंत्र की स्थापना के बाद उन्हीं में से लोग निकल कर लोकतंत्र के नियामक बन गये। लोक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली चीज आर्थिक नीति होती है। इन नीतियों का नियंता ‘वी द पीपुल’ नहीं है। वोट देने के बाद लोक की 5 वर्षों के लिए सारी सार्वभौमिकता खत्म हो जाती है। नीतियां वह तय करता है जिसे हम चुनते हैं। होना तो यह चाहिए कि हम उसे बतायें कि नीतियां क्या होनी चाहिए। लोकतंत्र में लाॅबियां होती हैं लेकिन लोक की कोई सशक्त लाॅबी नहीं बन पाई। उद्योगपतियों, धनपतियों की लाॅबियां बनीं। इधर आर्थिक मंदी का दौर आया और चर्चा होने लगी कि सैंसेक्स गिर गया। सोचने की बात यह है कि इस सैंसेक्स की हमारी जी.डी.पी. में कितनी भागीदारी है। जी.डी.पी. को असली मदद तो लोक दे रहा है लेकिन उसकी कोई बात नहीं करता। कुल आबादी का 5 या 10 प्रतिशत वर्ग पूरे 90 प्रतिशत लोक का शोषण करता है।
वर्तमान समय में विचार की महत्वपूर्ण भूमिका बताते हुए बोड़ा ने कहाकि विचार को लोक पर प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है। यह दुखद है कि हमारी आर्थिक नीतियां बनाने वाले ये कहते हैं कि हमारा राष्ट्र समाजवादी है लेकिन हमें केपेटेलिस्ट टूल्स का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हमारा गला पकड़कर बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ हमारे साहित्य या संस्कृति ने कोई बड़़ा प्रयास नहीं किया। हम साहित्य की विधा कहानी-कविता के जरिए लोक की अस्मिता लौटाने में मदद करें और उसका सशक्तिकरण करें। आजादी के 60 वर्षों बाद भी जयपुर में किसी राजा की मूर्ति लगती है जबकि उसी राज परिवार के मुखिया को लोकतांत्रिक चुनाव में जनता ने हराया लेकिन हमने उसके पूर्वज की मूर्ति लगाने का विरोध नहीं किया। कहीं तो हमारा सरोकार नजर आना चाहिए। लोक को यह अहसास कराने की जरूरत है कि उसका नियंता और कोई नहीं वह स्वयं है। चिंता की बात है कि हमारे यहां सामन्तवाद ने लोकतंत्र के हथियार को अपना लिया है और लोक को दब्बू बनाये रखा है। आज विचार और साहित्य से जुड़े लोगों को प्रतिक्रियावादी लोगों का विरोध करने की जरूरत है। आज की व्यवस्था ने मीडिया का भी बेजा इस्तेमाल किया है। ऐसे समय में हमारी चुनौतियां और बढ़ जाती हैं।
पुरातत्वविद हरिशचन्द्र मिश्रा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमें मीडिया का साथ लेकर विचार को आगे बढ़ाना होगा। हमारा लोकतंत्र का जो मूल मंत्र था उसकी ओर नागरिकों को लौटाने के लिए साहित्यकारों की महती भूमिका है।
राजेश चैधरी (ब्यावर) ने कहा कि रचनाकर्म और सामाजिक सक्रियता अपने आप में महत्वपूर्ण है। जन आंदोलनों के साथ साहित्यकारों के जुड़ाव का प्रभाव दिखाई देना चाहिए। प्रबुद्ध लोगों को अपने रचनाकर्म के साथ जन आंदोलनों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय सहभागिता निभाने की जरूरत है।
राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के निदेशक डा. आर.डी.सैनी ने कहा कि हमारे यहां अभी भी सामन्ती तत्व मौजूद हैं। संस्थानों में लोकतंत्रीकरण की जरूरत है। लोकतंत्र में विचारों की स्वीकार्यता भी लोकतांत्रिक तरीकों से होती है। ये फैसले दबाव समूहों से होते हैं। अगर हमें अपने हक में फैसले कराने हैं तो दबाव समूह बनाना चाहिए। अध्यक्षता करते हुए राजस्थान प्रगतिषील लेखक संघ के अध्यक्ष डा. हेतु भारद्वाज ने कहा कि रचनाकार को शब्द और कर्म के बीच की दूरी कम करनी होगी और लोक से जीवंत संपर्क स्थापित करना होगा। उन्होंने कहा कि आज संाप्रदायिकता कई रूपों में सामने आ रही है और समाज में आपसी वैमनस्य और घृणा बढ रही है जिससे रचनाकर्म भी अछूता नहीं है। हमें सच्ची धर्मनिरपेक्षता प्रदर्षित करते हुए समाज को भी सावधान करना होगा।
साहित्य दिवस के दूसरे सत्र में प्रतिष्ठित पत्रकार एवं व्यंग्यकार यशवंत व्यास की अध्यक्षता में व्यंग्य पाठ का आयोजन किया गया। इसमें प्रदेश के प्रमुख व्यंग्यकारों यशवंत व्यास, सम्पत सरल, फारूक आफरीदी, अनुराग वाजपेयी, अजय अनुरागी, मदन शर्मा ने प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं का रसास्वादन किया। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि गोविन्द माथुर ने कविता पाठ और कथाकार श्याम जांगिड़ ने कहानी पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन अशोक राही ने किया।
राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने प्रारंभ में इस आयोजन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि सांस्कृतिक कला रूपों से सम्बद्ध लेखक, कलाकार, पत्रकारों की भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका की आज आवश्यकता है। राजस्थान में कलाओं के लोकतांत्रिकीकरण के कुछ निजी स्तर पर प्रयास जरूर हुए हैं, लेकिन आज जो चुनौतियां देश और समाज के सामने हैं उनको मद्देनजर रखते हुए इन प्रयासों को बढ़ाना होगा। प्रगतिशील विचारधारा से जुडे़ लेखकों की जिम्मेदारी आज अधिक बढ़ गई है। उन्हें अपने लेखन के साथ जन-आंदोलनों में भी अपनी सहभागिता को सुनिश्चित करना होगा।
रिपोर्ताजः फारूक आफरीदी, ई-750, गांधी नगर, न्याय पथ, जयपुर-302015 मो. 94143 35772
bahut badiya jankari hai aaj chhuti ka khoob faiyda uthhaya hai tabhi itani lambi aur badiya post likhi hai is shramsadhna ke liye bdhai aur abhar
जवाब देंहटाएंसमाज में जब भी कोई बड़ा बदलाव आया है वह किसी चेतनाशील आंदोलनकारी महापुरुष के कृत्यों से ही आया है, केवल साहित्य लेखन से सामाजिक बदलाव वास्तव में असंभव है। साहित्य एक औजार तो है लेकिन इसकी गति में धीमापन होता है, फिर साहित्य की धार कितनी ही तेज क्यों न हो यह सीधी लड़ाई नहीं लड़ता है। अतः यह तो बहुत जरूरी है कि शब्द को कर्म से जोड़ा जाये परन्तु फिर भी एक आशंका बलवती हो उठती है कि आज मनुष्य इस कदर काँइया हो गया है कि कब राजनीति, गुण्डागर्दी साहित्य को भी हथिया ले और उसका पता भी न चले। आज सारे दुष्कर्म आम आदमी, गरीब, महिला आदि के नाम पर किये जा रहे हैं। चोर, भ्रष्ट और डाकू तक यह कहता है कि उसकी समाज की सेवा करने की इच्छा है, इसी लिये वह डाके डालता है। मुझे तो 2050 के साहित्यकार सम्मेलन का दृश्य कुछ इस तरह दिखाई देता है कि लोहे की बड़ी-बड़ी जालीदार केबिनों में साहित्यकार अलग-अलग बैठे हैं। मुख्य अतिथि बुलेटप्रुफ शीशों के पीछे है। बंदूकधारी कमाण्डो लगातार पहरे दे रहे हैं। सभी साहित्यकारों के साथ अपने-अपने निजी अंगरक्षक हैं। साहित्यकार होना हथियारों के लाइसैंस लेन के लिये उचित कारण होगा। क्योंकि हर वह क्षेत्र जो प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है राजनीति और अपराध उसे हथियाने का पूरा प्रयास करता है। आज जिस तरह धर्म जैसी संस्था को, सामाजिक संगठनों को, फिल्म उद्योग को राजनेताओं और अपराधियों ने अपनी गिरफ्त में कर लिया है, मुझे उनका अगला निशाना साहित्य ही प्रतीत होता है। अतः कर्म द्वारा आम आदमी को संस्कारित कर ही समाज को सही दिशा दी जा सकती है। वातावरण बनाया जा सकता है। उक्त आयोजन के लिए बहुत-बहुत बधाई।
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