शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कविता : महेंद्रभटनागर

श्रमिक

[महेंद्रभटनागर]
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टिकी नहीं है

शेषनाग के फन पर धरती !

हुई नहीं है उर्वर

महाजनों के धन पर धरती !

सोना-चाँदी बरसा है

नहीं ख़ुदा की मेहरबानी से,

दुनिया को विश्वास नहीं होता है

झूठी ऊलजलूल कहानी से !
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सारी ख़ुशहाली का कारण,

दिन-दिन बढ़ती

वैभव-लाली का कारण,

केवल श्रमिकों का बल है !

जिनके हाथों में

मज़बूत हथौड़ा, हँसिया, हल है !

जिनके कंधों पर

फ़ौलाद पछाड़ें खाता है,

सूखी हड्डी से टकराकर

टुकड़े-टुकड़े हो जाता है !
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इन श्रमिकों के बल पर ही

टिकी हुई है धरती,

इन श्रमिकों के बल पर ही

दीखा करती है

सोने-चाँदी की भरती !
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इनकी ताक़त को

दुनिया का इतिहास बताता है !

इनकी हिम्मत को

दुनिया का विकसित रूप बताता है !

सचमुच, इनके क़दमों में

भारीपन खो जाता है !

सचमुच, इनके हाथों में

कूड़ा-करकट तक आकर

सोना हो जाता है।
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इसीलिए

श्रमिकों के तन की क़ीमत है !

इसीलिए

श्रमिकों के मन की क़ीमत है !
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श्रमिकों के पीछे दुनिया चलती है ;

जैसे पृथ्वी के पीछे चाँद

गगन में मँडराया करता है !

श्रमिकों से

आँसू, पीड़ा, क्रंदन, दुःख-अभावों का जीवन

घबराया करता है !

श्रमिकों से

बेचैनी औ बरबादी का अजगर

आँख बचाया करता है !
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इनके श्रम पर ही निर्मित है

संस्कृति का भव्य-भवन,

इनके श्रम पर ही आधारित है

उन्नति-पथ का प्रत्येक चरण !
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हर दैविक-भौतिक संकट में

ये बढ़ कर आगे आते हैं,

इनके आने से

त्रस्त करोड़ों के आँसू थम जाते हैं !

भावी विपदा के बादल फट जाते हैं !

पथ के अवरोधी-पत्थर हट जाते हैं !

जैसे विद्युत-गतिमय-इंजन से टकरा कर

प्रतिरोधी तीव्र हवाएँ

सिर धुन-धुन कर रह जाती हैं !

पथ कतरा कर बह जाती हैं !
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श्रमधारा कब

अवरोधों के सम्मुख नत होती है ?

कब आगे बढ़ने का

दुर्दम साहस क्षण भर भी खोती है ?

सपनों में

कब इसका विश्वास रहा है ?

आँखों को मृग-तृष्णा पर

आकर्षित होने का

कब अभ्यास रहा है ?
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श्रमधारा

अपनी मंज़िल से परिचित है !

श्रमधारा

अपने भावी से भयभीत न चिंतित है !
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श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी !

सागर की लहरों से लेकर

अम्बर तक फैली !

इनका कोई अपना देश नहीं,

काला, गोरा, पीला भेष नहीं !

सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन,

सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन

कोई अलग नहीं !

कर सकती भौगोलिक सीमाएँ तक

इनको विलग नहीं !


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