शनिवार, 15 मई 2010



मुक्तिबोध की याद
[संस्मरण]


महेन्द्रभटनागर




मेरी तरह कवि श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध का भी उज्जयिनी से अटूट संबंध रहा।

मेरा अभी तक का उज्जयिनी-निवास तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम — जब मैं ‘माधव इंटरमीडिएट कॉलेज’ में पढ़ता था; इंटर के द्वितीय-वर्ष में ( सत्र 1942-1943 )। द्वितीय — जब मैं ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करके, उज्जैन के ‘मॉडल हाई स्कूल’ (प्राइवेट संस्था) और ‘शासकीय महाराजवाड़ा हाई स्कूल’ में भूगोल-हिन्दी अध्यापक बना ( सन् 1945 से 1950)। तृतीय — जब उज्जैन के ‘शासकीय माधव स्नातकोत्तर महाविद्यालय’ में, ‘शासकीय आनन्द महाविद्यालय,धार’ से मेरा स्थानान्तरण हुआ (सन् 1955 से 1960)।

यह एक संयोग है कि मैंने सर्व-प्रथम उसी विद्यालय में अध्यापिकी की; जिसमें श्री ग.मा.मुक्तिबोध कर चुके थे। मैं जब ‘मॉडल हाई स्कूल’ पहुँचा तब वहाँ मुक्तिबोध जी के दो अनुज भी थे — अध्यापक ही। श्री. शरच्चंद्र मुक्तिबोध; जो मराठी के यशस्वी कवि हैं (अब स्वर्गीय) और श्री वसंत मुक्तिबोध। श्री शरच्चंद्र मुक्तिबोध फिर नागपुर चले गये।

‘मॉडल हाई स्कूल’ और उज्जैन में रह कर, बंधु शरद से मेरी मित्रता घनिष्ठ होती गयी। इस प्रकार, मैं मुक्तिबोध-परिवार के निकट आया।

विद्यालय में साथी अध्यापकों से श्री ग.मा. मुक्तिबोध की प्रतिभा से सम्बद्ध अनेक बातें सुनने में आयीं। फलस्वरूप, मैं उनके कर्तृत्व के प्रति आकर्षित हुआ। उन दिनों, मुक्तिबोध जी ‘हंस’ के सम्पादकीय-विभाग में कार्य करते थे (वाराणसी)। ‘हंस’ में मैंने सन् 1947 से लिखना प्रारम्भ किया था। मेरा पत्र-व्यवहार, सम्पादक-द्वय श्री अमृतराय जी अथवा श्री त्रिलोचन शास्त्री जी से होता था।

श्री प्रभाकर माचवे जी, उज्जैन ‘शासकीय माधव महाविद्यालय’ में, तब तर्क-शास्त्र के प्राध्यापक थे । उनसे प्रायः प्रतिदिन मिलना होता था। उनसे ही ‘तार-सप्तक’ मुझे पढ़ने को मिला। जिसमें मुक्तिबोध जी की कविताएँ भी समाविष्ट हैं। ‘तार-सप्तक’ से हिन्दी-कविता में नया मोड़ आता है (सन् 1943)। श्री मुक्तिबोध इस संकलन के सर्वाधिक चर्चित कवि थे। कवि मुक्तिबोध को हिन्दी-जगत ने ‘तार-सप्तक’ से ही जाना।

एक बार, श्री मुक्तिबोध उज्जैन अपने घर आये और तभी श्री. शरच्चंद्र मुक्तिबोध के माध्यम से मुझे उनसे प्रथम साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। सन् व माह ठीक-ठीक याद नहीं — जून 1950 रहा होगा। उन दिनों वे नागपुर में थे और मेरे कविता-संग्रह ‘टूटती शृंखलाएँ (प्रकाशन सन् 1949) की समीक्षा आकाशवाणी-केन्द्र, नागपुर से प्रसारित कर चुके थे। मेरी उनसे पहली भेंट, माधवनगर-उज्जैन स्थित उनके घर पर ही हुई।

उनकी दो बड़ी-बड़ी चमकीली स्निग्ध आँखें, उनका स्मरण करते ही, साकार हो उठती हैं। आँखें — जिनमें स्नेह और करुणा का सागर लहराता था। जिनकी गहराई अथाह थी। चुम्बकीय ! सम्मोहक ! व्यक्ति मुक्तिबोध से मैं प्रभावित हुआ, अभिभूत हुआ ! ज़रा-सी देर में वे घुल-मिल गये। उनकी जैसी आत्मीयता बहुत कम देखने में आयी।

‘टूटती श्रृंखलाएँ’ की समीक्षा के माध्यम से मैं उनकी तटस्थता व सहृदयता से परिचित हो चुका था। ‘टूटती शृंखलाएँ’ मेरा दूसरा प्रकाशित कविता-संग्रह है। श्री गजानन माधव मुक्तिबोध-द्वारा लिखित समीक्षा से तब मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। इस समीक्षा का प्रारूप इस प्रकार है :

‘‘पुस्तक के अभिधान से ही सूचित होता है कि कवि वर्तमान युग की विशेष जन-चेतना को लेकर साहित्य-क्षेत्र में उतरा है। वर्तमान युग, इन दो शब्दों में ही भारत के चार-पाँच वर्षों के विभ्राटों तथा घटनाओं की गूँज समा जाती है। प्रस्तुत काव्य-पुस्तक में उनकी भावच्छायाओं ने अपना मूर्तरूप ग्रहण किया है। इस पुस्तक की कुछ कविताएँ ऐसी हैं, जिन्हें कवि के सचेत कवि-जीवन का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। उनमें प्रारम्भिकता के सभी लक्षण हैं। छंद और भाषाधिकार की दृष्टि से वे निर्दोष होते हुए भी उनकी हुँकृति इतनी घोर है कि वे साहित्य-विकास की दृष्टि से बासी और पुराने टाइप की हो गई हैं। किन्तु शेष कविताएँ ज़िन्दगी की असलियत को छूने का प्रयास करती हैं, अतः वे अधिक भावपरक और काव्यमय हो गयी हैं।

तरुण कवि वर्तमान युग के कष्ट, अंधकार, बाधाएँ, संघर्ष, प्रेरणा और विश्वास लेकर जन्मा है। उसके अनुरूप उसकी काव्य-शैली भी आधुनिक है।

इस तरह वह ‘तार-सप्तक’ के कवियों की परम्परा में आता है; जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी-काव्य की छायावादी प्रणाली को त्याग कर नवीन भावधारा के साथ-साथ नवीन अभिव्यक्ति शैली को स्वीकृत किया है। इस शैली की यह विशेषता है कि नवीन विषयों को लेने के साथ-साथ नवीन उपकरणों को और नवीन उपमाओं को भी लिया जाता है तथा काव्य को हमारे यथार्थ जीवन से संबंधित कर दिया जाता है। इसे हम वस्तुवादी मनोवैज्ञानिक काव्य कह सकते है —
"दीख रही हैं भरी घृणा से
आज तुम्हारी आँखें !"
- - -
"बातों का आशय इतना संशयग्रस्त
कि बिल्कुल भी पता नहीं पड़ पाता
सत्य रहस्य तुम्हारा
मेरे प्रति इस निर्मम आकर्षण का !
जिससे मैं बेचैन तड़प उठता हूँ
मूक सिनेमा के चित्रों के पात्रों के समान
होंठ उठा कर रह जाता हूँ मौन !"

अथवा —

"ठंडी हो रही है रात !
धीमी
यंत्र की आवाज़
रह-रह गूँजती अज्ञात !
स्तब्धता को चीर देती है
कभी सीटी कहीं से दूर इंजन की,
कहीं मच्छर तड़प भन-भन
अनोखा शोर करते हैं,
कभी चूहे निकल कर
दौड़ने की होड़ करते हैं,
घड़ी घंटे बजाती है !
कि बाक़ी रुक गये सब काम !"

अथवा —

"बुझते दीप फिर से आज जलते हैं,
कि युग के स्नेह को पाकर
लहर कर मुक्त बलते हैं !
घन जीवन-निशा विद्युत लिए
मानों अँधेरे में बटोही जा रहा हो टॉर्च ले।"

ये पंक्तियाँ महेन्द्र भटनागर जी के काव्य की अथवा अत्याधुनिक शैली की सर्वात्तम उदाहरण नहीं हैं; किन्तु इस नई धारा की कुछ विशेषताओं की ओर अवश्य ध्यान खींचती हैं।

इस अत्याधुनिक के समीप और उसका भाग बनकर रहते हुए भी कवि की अभिव्यक्ति शैली में दुरूहता नहीं आ पायी। भाषा में रवानी, मुक्त छंदों का गीतात्मक वेग और अभिव्यक्ति की सरलता, काव्य-शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाय तो माधुर्य और प्रसाद गुण महेन्द्र भटनागर की उत्तरकालीन कविताओं की विशेषता है। किन्तु सबसे बड़ी बात यह है, जो उन्हें पिटे-पिटाये रोमाण्टिक काव्य-पथ से अलग करती है और ‘तार-सप्तक’ के कवियों से जा मिलाती है वह यह है कि अत्याधुनिक भावधारा के साथ टेकनीक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका उत्तरकालीन काव्य मॉडर्निस्टक या अत्याधुनिकतावादी हो जाता है। ‘स्नेह की वर्षा’, ‘मेरे हिन्द की संतान’, ‘ध्वंस और सृष्टि’ उनकी मार्मिक कविताएँ हैं, जो इसी श्रेणी में आती हैं। उनका प्रभाव हृदय पर स्थायी रूप से पड़ जाता है।

श्री महेन्द्र भटनागर वर्तमान युग-चेतना की उपज हैं। मैं उनका हृदय से स्वागत करता हूँ।’’

यह समीक्षा तब एकाधिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई। मेरे प्रकाशित तीसरे कविता-संग्रह ‘बदलता युग’ (सन् 1953) के रेपर के पृष्ठ-भाग पर इसका कुछ अंश भी प्रकाशित हुआ।

अपने इसी उज्जैन-प्रवास में वे एक दिन मेरे घर भी आये। अपनी रचनाओं के प्रति मैंने उन्हें बड़ा निर्मोही पाया। अनेक प्रकाशित रचनाओं की प्रतिलिपियाँ तक उनके पास नहीं थीं। ‘हंस’ एवं अन्य पत्रों की मेरी फाइलों से उन्होंने अपनी कई रचनाएँ ब्लेड से काट-काट कर निकालीं और मुझसे अनुरोध किया कि मैं उनकी जो रचनाएँ जहाँ भी छपी देखूँ, उन्हें उनकी सूचना दूँ या उनकी कटिंग ही उन्हें भेज दूँ। यही कारण है कि उनका साहित्य पुस्तकाकार समय पर प्रकाशित नहीं हो सका।

धूम्रपान वे काफ़ी करते रहे होंगे। मेरे घर उन्होंने बीड़ी पी थी; जिसे देख कर मुझे बड़ा अटपटा लगा।

वे सदा वैचारिक दुनिया में डूबे रहते थे। अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति और मानसिक बेचैनी उनकी चेष्टाओं और क्रिया-कलापों से प्रकट होती थी।

कुछ वर्ष बाद, मुक्तिबोध जी से उज्जैन में ही पुनः भेंट हुई डाशिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के निवास पर। उन दिनों मैं धार में था (29-7-50 से 27-9-55) और कुछ दिनों के लिए उज्जैन आया हुआ था। तब नये कवियों पर एक समीक्षा-पुस्तक तैयार करने का विचार उन्होंने प्रकट किया था। एक कविता-संकलन के तैयार करने की बात भी उन्होंने मुझे लक्ष्य करते हुए कही — ‘भारतेन्दु से भटनागर तक’।

खेद है, फिर उनसे न कोई मुलाक़ात हो सकी और न पत्र-व्यवहार ही। क्या पता था, वे इतनी जल्दी हमें छोड़कर चले जाएंगे ! उनकी बीमारी से लेकर, मुत्यु तक का काल , उनकी ख्याति का सर्वाधिक सक्रिय काल रहा। अनेक कवियों - समीक्षकों ने उन पर मर्मस्पर्शी लेख लिखे, प्रकाशकों ने उनकी पुस्तकें छापीं; पर वे यह सब नहीं देख सके ! हम जीवित अवस्था में प्रतिभाओं की उपेक्षा करते हैं और उनके निधन के पश्चात् बड़ी- बड़ी बातें ! स्व मुक्तिबोध हिन्दी-साहित्यकारों के सम्मुख एक प्रश्न-चिन्ह बन कर उपस्थित हैं। उनका साहित्यिक जीवन हिन्दी-साहित्यालोक की उदासीन स्थिति को निरावृत्त कर देता है; उसके तटस्थ स्वरूप को मुक्तिबोध जी के जीवन-क्रम में देखा जा सकता है।

‘इंदौर विश्वविद्यालय’ के ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का सदस्य तीन-वर्ष (सन् 1964-1969 के मध्य) रहा। तब बीए हिन्दी-पाठ्यक्रम में, आधुनिक कविता-संग्रह के अन्तर्गत हमने उनकी कविताओं को स्थान दिया तथा उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर शोध-कार्य का भी मार्ग प्रशस्त किया। स्वयं मेरे निर्देशन में, एक शोधार्थी (डा. शीतलाप्रसाद मिश्र) ने उनके कर्तृत्व पर, ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’ में शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर, पी-एचडी की उपाधि प्राप्त की ( सन् 1971 / ‘समसामयिक हिन्दी - साहित्य के परिप्रेक्ष्य में श्री गजानन माधव मुक्तिबोध के साहित्य का अनुशीलन’।)
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