रविवार, 4 अक्तूबर 2009

बीकानेर में उदास हैं रिक्शे, तांगे, ठेले वाले...


जन कवि हरीश भादाणी का 2 अक्‍टूबर, 2009 को निधन हो गया। मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

हरीश भादाणी जनकवि थे, यह तो सभी जानते हैं। क्या दूसरा भी कोई जनकवि है? शायद होगा, लेकिन मुझे नहीं पता। मैंने तो अपने जीवन में एक ही जनकवि देखा है-हरीश भादाणी। जो ठेलों पर खड़े होकर मजदूरों के लिए हाथों से ललकारते हुए गाते थे- बोल मजूरा, हल्ला बोल...।
भादाणी जी से मेरे लगभग तीस-पैंतीस साल पुराने आत्मीय रिश्ते रहे हैं। उनकी यादों के इतने बक्से हैं कि उन्हें तरतीबवार खोल भी नहीं सकता। बात 1980 की है। वे अलवर आए, तब हम ‘पलाश’ नाम की एक साहित्यिक संस्था चलाते थे। हम उनका काव्य पाठ रखना चाहते थे, लेकिन अगले दिन दोपहर को उनको जाना था। हमारी अब तक धारणा यही रही है कि काव्य पाठ और गजलों के कार्यक्रम शाम को ही होते हैं। हमने इस धारणा को तोड़ा। सुबह नौ बजे सूचना केन्द्र में उनका काव्य पाठ रखा और कार्यक्रम को नाम दिया-‘कविता की सुबह।‘ आश्चर्य तब हुआ जब सुबह-सुबह लोग बड़ी संख्या में उन्हें सुनने आ गए। तब लगा, सचमुच भादाणी जी जनकवि हैं। सर्दियों की वह गुनगुनी सुबह कविताओं से महक उठी।
एक अद्भुत घटना मैं जीवन में कभी नहीं भूलता। बात लगभग 25 साल पुरानी है। मैं अपनी बहन के शिक्षा विभाग संबंधी एक कार्य को लेकर पहली बार बीकानेर गया। ट्रेन से उतरते ही स्टेशन के बाहर जो होटल सबसे पहले नजर आई, उसमें ठहर गया। कमरे में सामान रख कर नीचे आया तो पास में चाय के एक ढाबे पर भादाणी जी कुछ मित्रों के साथ ठहाके लगा रहे थे। मुझे देखा तो पहचान गए। बोले-‘यहां क्यों ठहरे हो, सामान उठाओ और घर चलो।‘ मैं संकोचवश उन्हें मना करता रहा। उन्होंने ज्यादा जिद की तो मैंने कहा कि अभी मैंने होटल वाले को एडवांस पैसे दे दिए हैं, कल सुबह घर आ जाऊंगा। अपना पता समझा दें। वे बोले, ‘किसी भी रिक्शे, तांगे वाले को बोल देना, वह घर पहुंचा देगा।‘
अगले दिन सुबह मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब सडक़ चलते एक तांगे वाले को रोक कर मैंने भादाणी जी के घर चलने को कहा तो वह उत्साह से भर उठा और होटल से मेरा सामान तक खुद उठा कर लाया। घर पहुंच कर मेरे जिद करने के बावजूद उसने किराये का एक पैसा भी नहीं लिया। तब मेरी पहली बार आंखें खुलीं, जनकवि इसे कहते हैं। ऐसा कवि ही लिख सकता है, ‘रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, थाली में परोस ले, हां थाली में परोस ले, दाताजी के हाथ मरोड़ कर परोस ले।‘
मैं भादाणी जी के घर दो-तीन दिन रुका। उनका वह स्नेह और आत्मीय मेजबानी मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकता। भादाणी जी ने एक बार एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनका एक गीत है, ‘मैंने नहीं, कल ने बुलाया है... आदमी-आदमी में दीवार है, तुम्हें छेनियां लेकर बुलाया है, मैंने नहीं, कल ने बुलाया है।‘ भादाणी जी एक मित्र के घर गए तो इस गीत के बारे में उनकी बच्ची ने कहा, ‘दद्दू, आपकी एक कविता हमारी पाठ्यपुस्तक में है।‘ उन्होंने पूछा, ‘मास्टर जी ने कैसी पढ़ाई।‘ बच्ची बोली, ‘बहुत अच्छी पढ़ाई। उन्होंने पढ़ाया कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को मिलने के लिए बुला रहा है।‘ मुझे और मेरे जैसे कई मित्रों को लगता है कि भादाणी जी के गीत और कविताओं के साथ शिक्षकों ने ही अन्याय नहीं किया है, बड़े शिक्षकनुमा आलोचकों ने भी अन्याय किया है। बड़े आलोचक जिसे चाहें, उसे उठा कर आसमान पर बिठा देते हैं, लेकिन वे हरीश भादाणी के आसमान को छू तक नहीं पाए। भादाणी जी की रचनाओं का मॉडल कहीं दूसरा देखने को नहीं मिलता। उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी। वे अपने किस्म के कवि थे। अपने ढंग से जिए और अपने ढंग से चले गए। मेडिकल कॉलेज को देह दान कर गए ताकि उनकी देह भी जनता के काम आए। वे ऐसे जन थे, ऐसे जनकवि थे। मैंने कोई दूसरा जनकवि नहीं देखा। बीकानेर में आज जरूर रिक्शे, तांगे और ठेले वाले भी उदास होंगे और अपने कवि के लिए आंसू बहा रहे होंगे।

8 टिप्‍पणियां:

  1. भादाणी जी को विनम्र श्रद्धाँजली धन्यवाद उनके बारे मे जानकारी के लिये

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  2. जनकवि की पदवी पर खरे उतरने वाले इस कवि को श्रद्धांजलि..!!

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  3. राजस्थान में उन का सानी अभी तक तो नहीं।

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  4. वे सच्चे लोकपुरुष थे . जनकवि का पुकार-नाम उन्हें ऐसे ही थोड़े मिला था . उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !

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  5. HARISH JI AANSOO BHARA AAKHIRI SALAM KARO. AISE TO KOI JATA NAHI. MEHFIL SOONI KAR GAYE AAP.

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  6. हरीश जी के जाने का बहुत दुख है । अभी अप्रेल -जुन 1994 का वातायन का अंक पलट रहा था । इस अंक में उन्होने मेरी कविता " मोड़ " छापी थी । भादानी जी ये किस मोड़ से मुड़ गये आप कि ओझल हो गये । विनम्र श्रद्धांजलि । -शरद कोकास

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  7. JANHAVI HARISH BHADANI KI RACHNAYEN HAMESHS JAN MAN KO UDDVELIT KARTI RAHENGI.UNKE GEET LOGON KE KANTHON PAR RAHENGE. AAM ADMI HI PEEDA KO UNHONNE JID GAHRAI SE MAHSOOS KIYA AUR APNI KALAM SE KAGAJ AUR LOGON KE DILON PAR UKERA HAI UNHEN KABHI VISMRIT NAHI KIYA JA SAKTA.

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  8. unke jaisa sahaj nishchhal aur aatmiya kavi rajasthan me to koi doosra nahi hai.

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