बुधवार, 29 जून 2011

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय — डा॰ महेन्द्रभटनागर

सहृदय आत्मीय मित्र

कामरेड डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

डा॰ महेन्द्रभटनागर



डा॰ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी का जन्म 7 जनवरी 1925 का है और मेरा 26 जून 1926 का। हम लगभग समवयस्क हैं।

डा॰ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी से मेरे संबंध बड़े प्रेमपूर्ण रहे। उनसे भेंट तो मात्र दो बार ही हो सकी — एक बार आगरा में; दूसरी बार ग्वालियर में। पत्राचार बराबर रहा। उनके जो कुछ पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं; उनके आधार पर उनके व्यक्तित्व की झलक प्रस्तुत कर रहा हूँ।

पत्र क्र. 1

सी-185, ज्ञान मार्ग, तिलकनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 27-7-73

प्रिय भाई,

आपका कृपापत्र।

मंदसौर के कारण आपकी मंदस्वीकृति मिली; इससे अबकी बार काम न चलेगा। 26 तथा 27 अगस्त को आप आ ही जाइए और वहीं संवर्तआदि लाइए। इससे आपकी कविता को भी लाभ होगा और हमें भी। क्योंकि हम आप कामरेड्स होने पर भी कभी मिल नहीं सके। यह बढि़या मौक़ा है। आपने अनुभव किया होगा कि आपके अलग-थलग रहने से आपकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। सो, कामरेड, अब इस कमी को पूरा कीजिए। वहीं भरतपुर में डट कर बातें करेंगे और सभी मित्रों से मिलना हो जाएगा। भोजन-निवास का प्रबंध है ही। सभी प्रगतिशील प्रमुख रचनाकार और कवि आ रहे हैं। उधर से और किन्हें बुलाया जाए, यह लिखें।

आपका ही,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

(डा. विश्वम्भरनाथ जी ने इतने प्रेम और आग्रह से भरतपुर-अधिवेशन में बुलाया; किन्तु खेद है, कुछ अपरिहार्य कारणों से, सम्मिलित नहीं हो सका; यद्यपि जाने की तैयारी पूरी थी। समुचित ध्यान न दिये जाने की शिकायत मैंने कभी किसे से नहीं की। इसकी मुझे इतनी चिन्ता कभी नहीं रही और न आज है। अनेक विद्वानों के आलेख; जो समय-समय पर छपे; पर्याप्त हैं।)

डा. उपाध्याय जी से एक बार आगरा में मिलना हुआ था — सन् स्मरण नहीं; किसी होटल में। दही की लस्सी साथ-साथ ली थी। दो-एक लोग उनके साथ और भी थे। तब डाक्टर साहब की कोई आलोचना-पुस्तक छपी थी; जिसमें एक स्थल पर मेरा मात्र नामोल्लेख था। इसका मैंने उनके सामने जि़क्र किया। सुनकर वे बोले, हम तो निष्पक्ष रहने में विश्वास करते हैं। किसी की उपेक्षा नहीं करते।फिर, काफ़ी समय बाद, डा. उपाध्याय जी से मिलने मैं एक बार उनके जवाहरनगर-स्थित मकान पर गया था। लेकिन तब वे जयपुर से बाहर गये हुए थे। उनके सुपुत्र डा. मंजुल मिले थे। जयपुर, एक शोध-छात्रा की मौखिकी लेने गया था; ‘विश्वविद्यालयके अतिथि-भवन में ठहरा था।)

पत्र क्र. 2

सी-185 ज्ञान मार्ग, तिलकनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 9-2-74

प्रिय बंधु,

उत्तरशतीका प्रकाशन कागज़ के अभाव में रुका हुआ है। जब वह निकलेगा तब देख लेंगे। आप उन्हें पत्र लिख दें कि वह मुझसे संवर्तका रिव्यू ले लें; याद दिला दें। मैं रुचि के अभाव से नहीं, समय के अभाव से पीडि़त हूँ। मैं यह महसूस करता हूँ कि आप पर अब लिखा जाना चाहिए। बल्कि, विश्वविद्यालयों में अनुसंधान भी हो सकता है; होगा भी। पर, उधर के लोग इस दिशा में पहल कर सकते हैं। मैं ग्वालियर में कुछ को लिखूंगा।

आचार्य विनयमोहन शर्मा आपकी कृतियों पर समीक्षा-पुस्तक का सम्पादन कर रहे हैं; यह प्रतिष्ठा का विषय है। आचार्यजी की उदारता का भी यह प्रमाण है। वैसे बूढ़े आचार्य समकालीन साहित्य में रुचि नहीं लेते; तिस पर भक्तिकालीन व्यक्तित्व वाले लोग।

विश्वम्भवरनाथ उपाध्याय

पोस्टकार्ड में और जगह बची नहीं।

(आचार्य विनयमोहन शर्मा जी-द्वारा सम्पादित समीक्षा-पुस्तक महेन्द्र भटनागर का रचना- संसारख्याति-लब्ध कथाकार श्री सतीश जमाली जी ने अपने प्रकाशन चित्रलेखा प्रकाशन’ (इलाहाबाद) से सन् 1980 में प्रकाशित की। यह मेरे काव्य-कर्तृत्व पर सम्पादित दूसरी पुस्तक है। प्रथम, प्रो. डा. दुर्गाप्रसाद झाला (शाजापुर — म.प्र.) के सम्पादन में रवीन्द्र प्रकाशन’, ग्वालियर से पूर्व में सन् 1972 में छप चुकी थी — महेन्द्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन।)

पत्र क्र. 3

7-ड-25, जवाहरनगर, जयपुर - 4 राज.

दि. 3-1-85

प्रिय भाई,

अबलौं नसानीकी ग्लानि दूर करने के लिए समीक्षा संलग्न। इसे टंकित कराके एक प्रति मुझे भेज दें; ताकि मैं उसे शुद्ध कर दूँ। सही टाइप हो नहीं सकता, प्रथम बार में। मेरा लेख गांधी जी से भी खराब है।

मुझे आगरा में 17 को और 18 को ग्वालियर में बैठकें अटेंड करनी थीं। आगरा से सुबह 18 को सात बजे की बस पकड़ कर भागे तो 11 बजे सीधे यूनीवर्सिटी जाना पड़ा — टोपों वाली गलीबस-अड्डे से दूर बताई गई अन्यथा आकर तब जाते। सो, यह रहा।

अगली बार शायद भेंट हो। आपको चाहिए था कि आप बैठक में 18/12 को अपराह्न तक आकर हमें टटोल लेते तो आपके साथ जाने की बात बन जाती। बैठक के बाद 18/12 को रात में — बहुत सबेरे उठ कर बाग मुज़फ़्फ़र खाँ, आगरा से बस के

अड्डे तक आना, बैठक में मगज़पच्ची, बिना नहाए-धोए, दिन-भर 18/12 की शाम तक थक गए। फिर नहीं पहुँच पाए टोपों की गली। सुबह भाग लिए। सवाल यह है कि आपको मेरा कार्यक्रम तो अज्ञात था, पर आप 18/12 को टटोलीकरण के लिए क्यों नहीं आए? तब आप मेरा अपहरण कर सकते थे।

आप प्रत्येक कक्षा के लिए पुस्तकें, प्रकाशकों के पते सहित, प्रस्तावित कर मुझे भेज दें। सभी प्रश्न-पत्रों के लिए। इससे सुविधा रहेगी।

(स्थानाभाव के कारण हस्ताक्षर तक नहीं!)

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय को, हमारे विश्वविद्यालय जीवाजी विश्वविद्यालय’ (ग्वालियर) के हिन्दी अध्ययन मंडलने, बाह्य विशेषज्ञ सदस्य के रूप में सम्मिलित किया था। अतः वे मंडलकी प्रथम बैठक में भाग लेने ग्वालियर आये थे। मेरी उनसे भेंट होनी थी। चूँकि, ठीक पूर्व में मैंमंडलका अध्यक्ष रह चुका था (तीन-वर्ष); इस कारण, नये सत्र में हो रही मंडलकी प्रथम बैठक वाले दिन, विश्वविद्यालय जाना मैंने उचित नहीं समझा। घर पर ही डा. उपाध्याय जी की प्रतीक्षा करता रहा। उन दिनों मैं टोपों वाली गली, जीवाजीगंज में रहता था; जहाँ डा. उपाध्याय जी एक बार मुझसे मिल चुके थे; जब वे किसी शोधार्थी की मौखिकी लेने ग्वालियर आये थे।

उपर्युक्त पत्र पढ़ कर , डा. उपाध्याय जी के प्रेम से गद्गद हो उठा ! बाद में, ऐसा लगा, कोई हर्ज़ न था; उस रोज़ डा. उपाध्याय जी से मिलने विश्वविद्यालय चला जाता। हालाँ कि डा. उपाध्याय जी ने मुझे इतना मान दिया; लेकिन मैंने उन्हें विचारार्थ प्रस्तावित पुस्तकों (नाटक, उपन्यास, खंडकाव्य आदि) की कोई सूची नहीं भेजी। पाठ्य-संकलन तो विश्वविद्यालयद्वारा हम पूर्व में ही तैयार करवा चुके थे; जिन्हें मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमीने प्रकाशित किया था।

डा. उपाध्याय जी ने उपर्युक्त पत्र में जिस समीक्षा का उल्लेख किया है; वह मेरे तेरहवें कविता-संग्रह जूझते हुएपर है। यह समीक्षा डा. हरिचरण शर्मा (जयपुर) द्वारा सम्पादित समीक्षा-पुस्तक सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्र भटगागरमें समाविष्ट है (पृ. 187-189 / प्र. बोहरा प्रकाशन, जयपुर)।

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय जी ने मेरी जितनी भी कविताओं को पढ़ा; ध्यानपूर्वक-रुचिपूर्वक पढ़ा। उनके प्रति न्याय किया। जूझते हुएकी कुछ कविताओं का मर्म वे इस प्रकार उद्घाटित करते हैं:

‘‘पूँजीवादी-सामन्ती संस्कृति और समाज के ढाँचे में ढला यह जो भारतीय मनुष्य है डा. महेन्द्रभटनागर की कविता उससे टकराती है, उसकी भूमिका,भाव, संवेदना, संस्कार, संस्कृति और उसकी समूची जीवन-पद्धति पर प्रश्न-चिह्न लगाती है और चूँकि यह आज़ादी के बाद का व्यक्तिवादी (समानवाद / समता / अपरिग्रह आदि की बात करता हुआ भी) मनुष्य, बुनियादी तब्दीली के लिए तैयार नहीं है; अतः महेन्द्रभटनागर का कवि कभी दुखी होता है (कश-म-कश’), कभी उदास होता है (प्रियकर’), कभी सुख-समागम के लिए कुछ क्षण जीने की आशा करता है (आमने-सामने’),कभी निस्संगता महसूस कर उसकी संवेदना पथराती है (निस्संग’), कभी वह प्रतीक्षा में वेदना को कुरेदता है (इंतज़ारतथा निष्कर्म’), कभी टूटता है (स्थिति’), कभी कवि व्यवस्थाजन्य असंगतियों-विसंगतियों-विकृतियों का सीधा वर्णन करता है (आदमी’), कभी संकल्प से अपने को निराशा से बचाता है (उत्तर’), कभी चतुर्दिक-व्यापी वतन का रेखाचित्र देकर सावधान करता है, जन एकजुट होकर लड़ें ऐसी प्रेरणा देता है, मज़दूरों का गीत गाता है और कभी वर्गहीन साम्यवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए शोषित जन को क्रान्ति का पाठ पढ़ाता है, मार्च-गीत गाता है।

... बहरहाल, महेन्द्रभटनागर की जनकवि के रूप में जो पहचान बनी है, वह अक्षुण्य रहेगी।’’

पत्र क्र. 4

कुलपति, कानपुर विश्वविद्यालय / दि. 27-5-91

प्रिय साथी,

आपका पत्र मिला। मुझे याद नहीं कि जीने के लिए शीर्षक का कविता-संग्रह मिला है कि नहीं। किताबें खोजकर समय मिलने पर लिखना चाहूंगा। किन्तु यहाँ समय नहीं मिलता है; इसलिए यह भी सम्भव है कि यहाँ से मुक्ति के बाद आप पर लिख पाऊँ।

शेष कुशल है।

भवन्निष्ठ,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

पत्र क्र. 5

जयपुर / दि. 6-8-98

प्रिय भाई,

आपका कृपापत्र। धन्यवाद।

आपने आजीवन जन-चेतना प्रेरक कवितात्मक लेखन किया है; यह अभिनन्दनीय है।

व्यस्तता वश आपके लिए लिखा नहीं जा सका। मेरे पास जो संग्रह हैं, उन्हें पुस्तकों के जंगल में खोजना होगा; खोजेंगे। आपकी इधर कोई रचना नहीं मिली है।

ग्वालियर-लश्कर क्षेत्र के साहित्यिक और सचेत साहित्य के प्राघ्यापक आपके अभिनन्दन के लिए कार्यक्रम आयोजित करें, तो भाग लूंगा।

पाठ्यक्रम पुस्तक व्यवसायी प्राध्यापकों, अध्यक्षों से मैं सदा दूर रहा हूँ और वेव्यवसायी भी हैं; अतः साहित्य में ही आपका गौरव-वर्धन हो तो बेहतर होगा।

शेष कुशल है। स्मरण के लिए आभार।

भवदीय,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

(‘राजस्थान विश्वविद्यालयसे संबंधित कोई काम था; इस कारण जयपुर के किसी प्रोफ़ेसर के बारे में पूछा था — नाम स्मरण नहीं। उनके बारे में डा. उपाध्याय जी की धारणा मेरे लिए अज्ञात थी। इस समय तक मेरे कर्तृत्व पर दो शोध-कार्य सम्पन्न हो चुके थे –

(1) ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’, ग्वालियर में / हिन्दी प्रगतिवादी काव्य के परिप्रेक्ष्य में महेन्द्रभटनागर का विशेष अध्ययन’ / शोधार्थी : कु. माधुरी शुक्ला / 1985; और

(2) ‘नागपुर विश्वविद्यालयमें / महेन्द्रभटनागर और उनकी सर्जनशीलता’ / शोधार्थी : श्रीमती मृणाल मैंद / 1990. विवरण शोध संदर्भ’ (भाग: 3) / सं. डा. गिरिराजशरण अग्रवाल (बिजनौर) में दृष्टव्य। )

प्रिय भाई,

आहत युगमिल गया। इसके बहाने आपका संक्षिप्त मूल्यांकन संलग्न है। इसका चाहे जहाँ उपयोग कर सकते हैं।

मेरा विचार है कि अब आपको सारे संग्रहों से चुनी हुई उत्कृष्ट रचनाओं का एक संग्रह प्रकाशित कराना चाहिए। उससे आपका भविष्य भास्वरित होगा। सोचिएगा। बहुत बड़ा नहीं। लगभग एक-सौ पृष्ठों का प्रतिनिधि रचनाओं का संग्रह पर्याप्त होगा।

फिर, ग्वालियर या अन्यत्र एक कार्यक्रम हो तब विवेचना हो।

शेष कुशल है।

मैं अपना एक जीवन-वृत्त भेज रहा हूँ।

भवदीय,

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय में बड़ी ऊर्जा और आग देखी मैंने। प्रतिभा और श्रम का समन्वय है उनके व्यक्तित्व में। अनेक विधाओं में उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य रचना की है। व्यक्ति-रूप में वे एक बहुत ही अच्छे मित्र हैं। उदार व सहृदय। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में, एक विद्वान; किन्तु तटस्थ-निष्पक्ष आलोचक के रूप में उनकी छबि सर्वविदित है।

डॉ. महेन्द्रभटनागर,

110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 [म॰ प्र॰]

फ़ोन : 0751-4092908

ई-मेल : drmahendra02@gmail.com

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