महेन्द्र भटनागर जी की यह कविता आज मज़दूर दिवस पर
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जब तक जग के कोने-कोने में न थमेगा
सामाजिक घोर विषमता का बहता ज्वार,
हर श्रमजीवी तब तक
अविचल मुक्त मनाएगा ‘मई-दिवस’ का त्योहार !
मानव-समता का त्योहार !
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वह मई-माह की पहली तारीख़ अठारह-सौ-छियासी सन् की,
जब अमरीका के शहरों में
मज़दूरों की टोली विद्रोही बनकर निकली !
देख जिसे
थर-थर काँपी थी पूँजीवादी सरकार,
पशु बनकर मज़दूरों पर जिसने किये दमन-प्रहार !
पर, बन्द न की जनता ने अपने अधिकारों की आवाज़,
भर लेता था उर में
उठती स्वर-लहरों को आकाश !
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वह बल था
जो धरती से जन्मा था,
वह बल था
जो संघर्षों की ज्वाला से जन्मा था,
वह बल था
जो पीड़ित इंसानों के प्राणों से जन्मा था !
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फिर सोचो, क्या दब सकता था ?
पिस्तौल, मशीनगनों से क्या मिट सकता था ?
बढ़ता रहा निरन्तर
श्रमिकों का जत्था सीना ताने,
होठों पर थे जिसके
आज़ादी के, जीवन के प्रेरक गाने !
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जिन गानों में
दुनिया के मूक ग़रीबों की
आहें और कराहें थीं,
जिन गानों में
दुनिया के अनगिनती मासूमों के
जीवन की चाहें थीं !
आहें और कराहें कब दबती है ?
जीवन की चाहें कब मिटती हैं ?
टकराया है मानव जोंकों से
और भविष्यत् में भी टकराएगा !
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वह निश्चय ही
सद्भावों को वसुधा पर लाएगा !
वह निश्चय ही
दुनिया में समता, शान्ति, न्याय का
झंडा ऊँचा रक्खेगा !
मानव की गरिमा को जीवित रक्खेगा !
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बहुत अच्छी कविता...
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंसुंदर।
जवाब देंहटाएंआभार भटनागर जी की रचना पढ़वाने का.
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