शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मई दिवस पर एक कविता

महेन्द्र भटनागर जी की यह कविता आज मज़दूर दिवस पर

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जब तक जग के कोने-कोने में न थमेगा

सामाजिक घोर विषमता का बहता ज्वार,

हर श्रमजीवी तब तक

अविचल मुक्त मनाएगा ‘मई-दिवस’ का त्योहार !

मानव-समता का त्योहार !

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वह मई-माह की पहली तारीख़ अठारह-सौ-छियासी सन् की,

जब अमरीका के शहरों में

मज़दूरों की टोली विद्रोही बनकर निकली !

देख जिसे

थर-थर काँपी थी पूँजीवादी सरकार,

पशु बनकर मज़दूरों पर जिसने किये दमन-प्रहार !

पर, बन्द न की जनता ने अपने अधिकारों की आवाज़,

भर लेता था उर में

उठती स्वर-लहरों को आकाश !

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वह बल था

जो धरती से जन्मा था,

वह बल था

जो संघर्षों की ज्वाला से जन्मा था,

वह बल था

जो पीड़ित इंसानों के प्राणों से जन्मा था !

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फिर सोचो, क्या दब सकता था ?

पिस्तौल, मशीनगनों से क्या मिट सकता था ?

बढ़ता रहा निरन्तर

श्रमिकों का जत्था सीना ताने,

होठों पर थे जिसके

आज़ादी के, जीवन के प्रेरक गाने !

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जिन गानों में

दुनिया के मूक ग़रीबों की

आहें और कराहें थीं,

जिन गानों में

दुनिया के अनगिनती मासूमों के

जीवन की चाहें थीं !

आहें और कराहें कब दबती है ?

जीवन की चाहें कब मिटती हैं ?

टकराया है मानव जोंकों से

और भविष्यत् में भी टकराएगा !

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वह निश्चय ही

सद्भावों को वसुधा पर लाएगा !

वह निश्चय ही

दुनिया में समता, शान्ति, न्याय का

झंडा ऊँचा रक्खेगा !

मानव की गरिमा को जीवित रक्खेगा !

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