शनिवार, 4 अप्रैल 2015
गुरुवार, 5 मार्च 2015
कवि
महेंद्रभटनागर का चाँद
— खगेंद्र ठाकुर
‘चाँद, मेरे प्यार!’ नाम से
महेंद्रभटनागर के मात्र प्रेम-गीतों का एक विशिष्ट संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें
संकलित 109 गीतों का चयन उनके पूर्व-प्रकाशित कविता-संग्रहों में से किया गया है।
चयन स्वयं कवि ने किया है। ये प्रेम-गीत चाँद के माध्यम से व्यक्त हुए हैं।
महेंद्रभटनागर जी के अन्य विषयों से सम्बद्ध और भी संचयन प्रकाशित हैं; पर मैं
प्रेम-गीतों पर ही लिख पा रहा हूँ। इस लेख से हिंदी-कविता के पाठक उनकी कविता की
ओर प्रेरित हुए तो मुझे प्रसन्नता होगी और मैं अपना श्रम सार्थक समझूंगा। मैं
समझता हूँ कि कवि-कर्म कोई निष्काम कर्म नहीं होता। लेकिन लिखने मात्र से यश नहीं
मिलता। उसके पीछे आजकल तो आलोचकों से पहले प्रकाशकों की भूमिका होती है।
मैं 1957-59 में ‘पटना विश्वविद्यालय’ में
एम. ए. (हिंदी) का छात्र था, तभी महेंद्रभटनागर जी की
कविताएँ पढ़ता था। तभी से नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और मुक्तिबोध आदि
प्रगतिशील कविता के प्रतिनिधि माने जाते रहे हैं। प्रगतिशील कविता ही नहीं
छायावादोत्तर हिंदी-कविता का इतिहास इन्हीं कवियों से बनता है।
‘चाँद, मेरे प्यार!’ के गीत रूमानी भावधारा
की याद दिलाते हैं। लेकिन गीतों के इतिहास में ये उल्लेखनीय हैं। मुझे नागार्जुन
की एक बात याद आती है, वह यह कि अगर कोई पाठक कुछ
गुनगुनाना चाहे, तो उसे पीछे की कविताओं को
ही मुड़ कर देखना होगा। इस दृष्टि से महेंद्रभटनागर जी के ये गीत ध्यान देने योग्य
हैं।
पहली रचना है ‘राग-संवेदन’, जिसमें कवि एक सामान्य सत्य की तरह जीवन का यह सत्य व्यक्त
करता है —
सब भूल जाते हैं
केवल / याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के !
कवि राग यानी अनुराग यानी प्रेम को याद रखने
की बात कहते हैं। ‘राग’ को छंद और ध्वन्यात्मक लय से भी जोड़ा जा सकता है। राग
जीवन में दुर्लभ होता है, खास कर के समकालीन जीवन में, इसीलिए तो कवि उसे याद रखने का विषय समझता है।
इस संकलन में अनेक ऐसे गीत हैं, जिनके आधार पर महेंद्रभटनागर जी को याद रखा जा सकता है। उनमें
सफल अभिव्यक्ति है। एक गीत है ‘जिजीविषा’। कवि कहता है —
अचानक
आज जब देखा तुम्हें
कुछ और जीना चाहता हूँ!
पारस्परिक आकर्षण और प्रेम से जीने की इच्छा
बढ़ती है और शायद जीने की शक्ति भी। जब आदमी अपने प्रिय पात्र को देखता है, तो जि़न्दगी के दाह के बावजूद कवि कहता है —
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
जब अकेलापन दूर हो जाता है, तो जिजीविषा मज़बूत होती है। यह एक श्रेष्ठ भावना है, जो कविता को श्रेष्ठ बनाती है।
इस संकलन की कविताएँ विविध प्रसंगों के साथ विविध
प्रकार से विविध अदाओं में प्यार की भूमिका, प्यार की महत्ता, और प्यार की शक्ति महसूस कराती हैं। एक जगह कवि कहता है —
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
इसके जरिये कवि जीवन के अनेक प्रसंग कवि को
याद आते हैं। प्यार की अभिव्यक्ति स्मृति के रूप में आती है। जाहिर है कि वर्तमान
जीवन में प्यार का अभाव है। कवि कहता है कि प्यार की स्मृति आगे जीने का सहारा
बनता है। प्यार की स्मृति में भी जीवनी शक्ति है —
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद काफ़ी है!
यह है प्यार की स्मृति की शक्ति। कवि के लिए
प्यार बहुत व्यापक है। मनुष्येतर प्राणी भी
प्यार का साधन है —
गौरैया हो
मेरे आँगन की
उड़ जाओगी!
यद्यपि गौरैया यहाँ रूपक है, फिर भी वह प्रेम का आलम्बन भी है। कवि को इस बात का अनुभव है
कि जीवन आमतौर से दुःखद है और आदमी सुख पाने के लिए तरसता रहता है। ज़रूरी नहीं कि
वह सुख भौतिक साधनों से ही मिले। वह किसी का प्यार पाने से भी मिलता है —
क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के
लिए!
इस सम्पूर्ण संकलन की कविताएँ तरल और सुखद
प्रेम की भावुकता से लबालब भरी हुई हैं। एक गीत है ‘रात बीती’, उसकी प्रारम्भिक
पंक्तियाँ हैं —
याद रह-रह आ रही है
रात बीती जा रही है!
याद आती है रात में, अँधेरे में, शायद प्रेम और स्मृति के लिए
अँधेरे का एकांत अधिक उपयुक्त होता है, लेकिन रात बीतती भी है यानी
प्यार की स्मृति का समय स्थायी नहीं होता। ‘रह-रह याद ’ आने में एक प्रकार की
असंगति है। पाठक यह सोच सकता है कि रात बीत जाने के बाद यादों का क्या हो जाता है? इस प्रसंग में यही सोचना चाहिए कि प्रेम लपेटे अटपटे बैन हैं
ये। कविता का झुकाव गुज़रे दिनों की ओर है। उपर्युक्त गीत में ही वे लिखते हैं —
झूमते हैं चित्र नयनों में कई
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुखी भी भा रही है!
यह प्रेम पात्र की विशेषता है कि उसके प्रभाव
से विगत बात भी नयी लगती है और गुज़रे दिनों की बेरुखी भी भा रही है। समय की
गतिशीलता पर कवि की नज़र है। प्रेम-पात्र के अभाव में ‘मुरझाया-सा
जीवन-शतदल’ लगता है। इस अभिव्यक्ति से प्रेम की महत्ता प्रकट होती है।
रात प्रेम की अभिव्यक्ति का उपयुक्त समय है, इसकी परम्परा भी है। प्रेम केवल भावना नहीं है। वह भौतिक सुख
का माध्यम भी है। प्रेमी को लगता है शशि दूर गगन से देख रहा है, जैसे कि रात भी एकांत नहीं रहती। प्रेम का भंडार अथाह है, अक्षय है। रात बीत जाती है, लेकिन प्रेम-वार्ता ख़त्म नहीं होती। इसके बावज़ूद कवि कहता है —
सारे नभ में बिखरी पड़ती है मुसकान
पर कितना लाचार अधूरा है अरमान!
प्रेम की मुसकान का सारे नभ में बिखरा होना — तारों के प्रसंग में अच्छी
अभिव्यक्ति है, रोचक कल्पना है। कवि के
अरमान इतने ज़्यादा हैं कि अनन्त आकाश में मुसकान बन कर बिखर जाने के बावजूद अरमान
अधूरे रह जाते हैं।
चाँद में कवि के लिए आकर्षण है, लेकिन चाँद तो आकाश
में है। कवि कहता है —
मुझे मालूम है यह चाँद
मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूल कर स्वर्गिक
महल से हिल नहीं सकता।
कवि कहना चाहता है कि प्यार तर्क का विषय
नहीं है। वह भावना का विषय है, भावुकता में बुद्धि-विवेक स्थगित हो जाते हैं। यही
कारण है कि प्रेमिका उजड़ी फुलवारी को भी बडे़ जतन से सजाती है। असल में कवि प्रेम
को सदाबहार मधुमास और बरसात समझता है। प्रेम भावना के साथ विश्वास का भी विषय है, इसीलिए विश्वास भी तर्क का विषय नहीं है। तर्क विश्वास को
खंडित कर सकता है, अतः वहाँ तर्क की ज़रूरत
नहीं होती।
प्रेम कविता का शाश्वत विषय है। इसीलिए इस
बात की गुंजाइश वहाँ कम ही होती है कि नये प्रसंग, नये
संदर्भ और अभिव्यक्ति की नयी भंगिमा आये। यह बात महेंद्रभटनागर के गीतों पर भी
लागू है।
हिंदी-गीत ने विकास के क्रम में परिवर्तन के
अनेक दौर देखे हैं, जैसे नवगीत, जनगीत आदि। महेंद्रभटनागर जी
परिवर्तन की इस प्रक्रिया से अप्रभावित अपनी गति से चलते रहे हैं। इनकी
भाषा-भंगिमा भी रूमानी गीतों वाली है। यही कारण है कि ये गीत आलोक, चाँद, घन, दीपक, स्वप्न, आदि प्रतीक बन कर बार-बार आते हैं।
यह प्रवृत्ति विगतकाल होने के कारण गतिशील
इतिहास द्वारा ही उपेक्षित हो जाती है। समकालीनता जिनमें नहीं है, शाश्वतता है, जब कि काव्य-धारा में शाश्वत कुछ भी नहीं होता।
आलोचक आम
तौर से समकालीन और आधुनिक को पहचानने की कोशिश करता है। वह रचना के यथार्थ के
चरित्र को पहचानने की कोशिश करता है। इसीलिए गतानुगतिक प्रवृत्तियाँ उपेक्षित रह
जाती हैं, और ऐसा होना स्वाभाविक है।
*** 110, बलवन्तनगर, गाँधी
रोड, ग्वालियर — 474 002 (म॰ प्र॰)
फ़ोन : 0751-4092908
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
सोमवार, 27 अक्टूबर 2014
INTERVIEW
वार्ताकार : डॉ. मनोज मोक्षेन्द्र
यद्यपि
आपने काव्य-विधा के अतिरिक्त गद्य-विधाओं में भी बहुत-कुछ लिखा है; तथापि आपने अपने रचना-कर्म के लिए काव्य-विधा को ही प्रमुखता से क्यों चुना?
काव्य-विधा अधिक कलात्मक होने के कारण अधिक प्रभावी होती है। काव्य-कला को संगीत-कला और आकर्षण और सौन्दर्य प्रदान करती है। इससे उसके प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि होती है। संगीतबद्ध-स्वरबद्ध कविता पाठक-श्रोता को झकझोर देती है। जैसे, फ़कीरों-साधुओं द्वारा इकतारे पर गाये जाने वाले भजन हृदय को मथ देते हैं। कविता सहज ही कंठ में बस जाती है। उसमें चमत्कार का विशिष्ट गुण पाया जाता है। कविता की कथन-भंगी उसे भावों-विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना देती है। ध्वनि उत्कृष्ट कविता की पहचान है। शब्द-शक्ति का काव्य में ही सर्वाधिक उपयोग होता है। लक्षणा-व्यंजना ही नहीं, अभिधा भी पाठकों-श्रोताओं को आनन्दित करती है। द्रष्टव्य: ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!’ (सुभद्रा कुमारी चौहान) तुकों का भी अपना महत्व है। छंद, अलंकार, वक्रोक्ति, औचित्य आदि से उसमें निखार आता है। कविता मुर्दा दिलों में भी प्राण फूँक देती है। वह हमें उद्वेलित करती है। जन-क्रांतियों में कविता की भूमिका सर्वविदित है। द्रष्टव्य: ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!’ (रामधरीसिंह ‘दिनकर’) कवि को कला की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए। माना बुनियादी तत्व भाव, विचार, कल्पना हैं।
मैंने कविता विधा के अतिरिक्त, गद्य विधाओं में भी लिखा ज़रूर है; किन्तु मेरा मन कविता में ही रमता है। वैसे मेरे द्वारा लिखित पर्याप्त आलोचना-साहित्य है। रूपक और लघुकथाएँ हैं।
आपने हिन्दी काव्य-साहित्य में आए सभी काव्यान्दोलनों के दौर में रचनाएँ की हैं; किन्तु मैं समझता हूँ कि आप उनसे प्रभावित हुए बिना स्वयं द्वारा निर्मित लीक पर चलते रहे। यही वजह है कि आपके रचना-सुलभ-कौशल का आकलन उनके दौर में आशाजनक रूप से नहीं किया गया; जबकि आपकी रचनाएँ तत्कालीन महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और पाठकों को आकर्षित भी करती रहीं। अस्तु, प्रकारांतर से क्या आप कभी उनके या उनके प्रवर्तकों के प्रभाव में आए? और यदि आए तो उन्होंने आपकी रचनात्मकता को किस प्रकार प्रभावित किया?
हाँ, यह सही है। विभिन्न काव्यान्दोलनों से मैं लगभग अप्रभावित रहा हूँ। कविता कविता है। उसे किसी भी प्रकार के साँचे में नहीं ढाला जा सकता। शाश्वत तत्व के साथ, कविता का सामयिकता से भी अटूट संबंध है। लेकिन, सामयिकता को स्व-विवेक से देखा-परखा जाना चाहिए। किसी भी रंग का चश्मा लगाने की ज़रूरत नहीं। वाद-ग्रस्त लेखन की अभिव्यक्ति ईमानदार नहीं भी हो सकती है। मैंने जो अनुभव किया; लिखा। मेरा काव्य, चूँकि प्रमुख रूप से, समाजार्थिक यथार्थ का काव्य है; अतः उसे वाम विचार-धारा से सम्पृक्त कर देखा गया। मेरे विचारों और वाम विचार-धारा में पर्याप्त साम्य हो सकता है। लेकिन, वह पुस्तकीय नहीं है। स्वयं का भोगा और सहा हुआ है। मेरा बचपन और यौवन काल बड़ी ग़रीबी में बीता। अल्प वेतन-भोगी अध्यापक की ज़िन्दगी जी मैंने। क़दम-क़दम पर कटु अनुभव हुए। मेरे काव्य में अन्याय और शोषण के विरुद्ध जो स्वर हैं; वे आरोपित नहीं। किसी राजनीतिक दल से मैं कभी नहीं जुड़ा। विभिन्न ‘वादों’ का कभी सैद्धान्तिक अध्ययन तक मैंने नहीं किया। समाजार्थिक-रचना और शासन-व्यवस्था संबंधी वैचारिक साम्य के कारण, प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य-धारा मेरे मन के अनुकूल रही। तटस्थ-निष्पक्ष आलोचकों ने भी इसी काव्यान्दोलन के अन्तर्गत मेरी चर्चा की। वाम-आन्दोलन का समर्थक मान कर, कट्टर विचारों वालों ने भी मेरा विरोध नहीं किया। प्रवर्तकों ने मुझे साथ रखा। प्रगतिशील पत्रिकाओं में लिखता रहा। स्वतंत्र चिन्तन को असंगति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। मेरी रचनात्मकता का स्वरूप मेरा अपना है। वह किसी भी जड़वादी ‘दिग्गज’ की परवा नहीं करता।
आपकी रचनाओं में जिन ‘इम्प्रेशन्स’ की अदम्य बाढ़ उमड़ती है, उन्हें उस श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता, जिसमें रांमानी, छायावादी, रहस्यवादी, हालावादी कवि आते हैं। प्रयोगवादी काव्य-धारा में भी आप बहते हुए नहीं प्रतीत होते। वस्तुतः मानववाद को पोषित करते हुए आप सतत रचनाशील प्रगतिशील कवि हैं। मात्र प्रगतिशील रचनाकार कहलाना अधिकांश कवियों के लिए उतना संतोषप्रद नहीं होता, जितना अपने को किसी ख़ास आन्दोलन से जुड़ा रचनाकार मानने में। आप अपनी स्थिति से कितने संतुष्ट हैं?
हाँ, मानववाद की बात करना संगत है। रचनाकार का मात्र किसी विशेष आन्दोलन से जुड़ा होना — मुझे तो भाता नहीं। कोई विचार-धारा सदा एक-सी बनी भी नहीं रहती। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। इसे विचार-धारा का विकास भी कहा गया है। लेकिन, देखने में कठमुल्लापन ही आता है। अतः, स्वतंत्र चिन्तन का विरोध करना युक्तियुक्त नहीं। प्रगतिशील चेतना मेरे काव्य का जीवन्त स्रोत है। इसी कारण, प्रगतिवादी-जनवादी काव्य-धारा के अन्तर्गत मेरे काव्य का अध्ययन अर्थवान है। कोई राजनीतिक दल रचनाकार को अपनी इच्छानुसार हाँक नहीं सकता। इस विवाद में मैं कभी पड़ा नहीं। श्रेय दो; चाहे न दो। साहित्य के डिक्टेटर-आलोचक ही नहीं; स्वयं रचनाकार अपने बारे में चाहे जो कहे; उसने जो लिखा है, वह बोलेगा।
स्वातंत्रयोत्तर रचना-काल में युग-प्रवर्तक साहित्यकारों का बोलबाला रहा। आपने किसी के भी प्रभाव में आना पसंद नहीं किया। क्या यह प्रवृत्ति आपके ‘कवि’ के उन्नयन-मार्ग में बाधक नहीं रही?
यह सही है, कुछ संकोच-वश तो कुछ स्वभाव-वश एवं कुछ पूर्व-परिचय न होने के कारण , मैं उन साहित्यकारों से दूर रहा; और आज भी दूर रहता हूँ, जो समय-समय पर, नाना प्रकार की प्रकाशन-योजनाओं का नेतृत्व व संचालन करते हैं। साहित्य के ऐसे ‘विशिष्ट विधाताओं’ की नज़र यदि मुझ पर भी पड़ी होती तो ज़रूर मैं इतना अनदेखा-अनजाना न रहता। मेरा नाम सर्वत्र छूटता रहा। अधिकतर ऐसी परियोजनाओं के बारे में, अक़्सर उनका कार्यान्वय हो जाने के बाद पता चलता है। पूर्व-परिचय एवं व्यक्तिगत संबंध न होने के कारण ( मैत्री का तो प्रश्न ही नहीं!) किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया। मेरा कोई साहित्यिक वृत्त न था, न है। अधिकांश मुझे जानते नहीं। मेरी कृतियाँ उन्होंने पढ़ी क्या, देखी-तक नहीं! मेरा अता-पता भी उन्हें विदित नहीं। स्वाभाविक है, प्रभावी सूत्रधारों से कटे रहने का खामियाजा भुगतना पड़ा। भुगतता रहूंगा। पर, इसका कोई अफ़सोस नहीं। दुःख नहीं। दुनिया-भर के तमाम साहित्यकारों के साथ ऐसा हुआ है, होता रहेगा। क़सूर मेरा भी है; जो इतना बेख़बर रहता हूँ! प्रयत्न नहीं करता। इस दिशा में, ज़रा भी सक्रिय नहीं होता। अन्ततोगत्वा, इस प्रकार किसी का लुप्त रह जाना कोई मायने नहीं रखता। आपका लिखा तो लुप्त नहीं हुआ!
आप बच्चन, अज्ञेय, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ आदि जैसे रचनाकारों के दौर में साहित्य-सृजन करते रहे। क्या आपका इनसे कभी तालमेल रहा?
यह मेरी अग्रज वरिष्ठ पीढ़ी है। उम्र का बहुत अन्तर है। ‘सुमन’ जी ने तो मुझे ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में बी.ए. में पढ़ाया। इस संदर्भ में, मेरी कृति ‘साहित्यकारों से आत्मीय संबंध’ द्रष्टव्य है। यह‘पत्रावली’ ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’— खंड - 6 में भी शामिल है। इससे समकालीन अनेक साहित्यकारों से मेरे संबंधों की रोचक जानकारी उपलब्ध होगी।
आपकी रचनाओं में वह‘प्रिय’कौन है; जिसकी उपस्थिति की आहट
आज भी आपके गीतों में आती है?
वस्तुतः, यह ‘प्रिय’ काल्पनिक है!! यौवन के प्रभाव के फलस्वरूप है। जो स्वाभाविक है। गुज़र गयी यह उम्र भी! भूल जाओ, यदि कहीं-कुछ आकर्षण रहा भी हो! आदमी जो चाहता है, वह उसे मिलता कहाँ है? स्मृति जीवन का बहुत बड़ा सम्बल है।
आप गीति-परम्परा के पोषक हैं। आपके गीतों में ध्वन्यात्मकता की जो तरल
रसात्मकता आत्मा को आनन्द से सराबोर कर
जाती है, वह आपके मनसे स्रवित हो, शब्दों में कैसे प्रतिबिम्बित हो पाती है?
गीति-रचना मेरे मनके निकट है। उल्लास और दर्द गीतों में स्वतः प्रस्पफुटित हो उठते हैं। गीत हों या नवगीत, संगीत के स्वरों पर थिरकते हैं। मन, न जाने इतनी ऊँची उड़ान कैसे भर लेता है! हृदय, न जाने इतनी गहराई कहाँ से पा लेता है! सब, अद्भुत है! कल्पनातीत है। गीत, जीवन है! आदमी की पहचान है। मैंने गीत लिखा-रचा: गाओ!
गाओ कि जीवन गीत बन जाए !
हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है,
गाओ कि कण-कण मीत बन जाए !
हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
हर हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों का मूक साया उम्र भर
क्या रहेगा शीश पर यों ही बना ?
गाओ, पराजय — जीत बन जाए !
साँस पर छायी विवशता की घुटन
जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन
विष भरे घन-रज कणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन,
गाओ कि दुख संगीत बन जाए !
हिन्दी
और अंग्रेज़ी दोनों में विरचित आपकी कविताओं में प्यास और क्षुधा पर तुप्ति का,
निराशा-हताशा पर अदम्य आशा का,
कुंठा पर श्रम के उत्साह-उल्लास का,
रूढ़ियों पर युगान्तरकारी आचार-व्यवहार का,
त्रासदियों एवं प्राकृतिक आपदाओं पर परिवर्तनकारी सुखद घटनाओं का,
मुत्यु पर अमर्त्य जीवन का विजयोन्मुखी संचार रहा है। आशावाद का ऐसा भाव-प्रवाह शेली और ब्राउनिंग की कविताओं में ही देखा जा सकता है। आपकी कविताओं में इन दोनों का सम्मिलित रूप प्रदर्शित होता है। क्या आपका यह स्वरूप आज़ादी के बाद की दुःखद परिस्थितियों की उपज था या उनसे प्रभावित आपकी लेखनी से उद्भूत एक विद्रोही का नव-निर्माणी स्वरूप?
अंधकार पक्ष से जूझना ही, विषम चुनौतियों से टकराना ही, पराजय से हतोत्साहित न होकर उससे शक्ति ग्रहण करना ही, नियति-अनहोनी-अदृश्य को साहसिकता से झेलना ही — जीवन को सार्थक बनाता है। सकारात्मक दृष्टिकोण स्वयं में एक ऐसा अप्रतिहत-अविजित दर्शन है, जो जीवन ओर जगत की समस्त चिन्ताओं को समूल उखाड़ फेँकता है। आदमी को कष्ट-सहन का अभ्यासी बनाता है. क्योंकि जीवन में सब अच्छा ही घटित नहीं होता। त्रासदियाँ जीवन की एक हिस्सा हैं।
शेली और ब्राउनिंग की मैंने कुछ ही कविताएँ पढ़ी हैं — जो पाठ्य-क्रमों में निर्धारित रहीं। मेरे काव्य के संदर्भ में इन कवियों का उल्लेख प्रायः किया जाता है; किन्तु मैं अपनी अनभिज्ञता सदैव बताता रहा हूँ। हाँ, स्वातंत्र्य-संग्राम और स्वतंत्रता-पश्चात के परिदृश्यों का मेरे काव्य से अटूट संबंध है। संघर्ष और विद्रोह मेरे काव्य की अन्तर्वस्तु प्रारम्भ से ही रही।
राजनेताओं के विरूप-विद्रूप चेहरों, उनकी छलपूर्ण नीतियों और उनके द्वारा विकसित तंत्रों व योजनाओं से आम आदमी को ठगने की उनकी कुप्रवृतियों का व्यापक रूप से भंडाफोड़ करने में आपने जिस निर्भीकता का परिचय दिया है; वह अन्यत्र दिखाई नहीं देता। आप इस देश में किस प्रकार की व्यवस्था की परिकल्पना करते हैं? क्या भविष्य में कोई बदलाव सम्भव है, जबकि आम आदमी कुंठा, अज्ञानता व रूढ़ियों से जकड़ा हुआ स्वयं के तुष्टीकरण से ख़ामोश है और दबंग व समर्थ उद्दंडता, वहशीपन, अनाचार, असभ्यता, तथा अपसंस्कृति के मध्ययुगीन जंगलों में लोलुप शिकारी की तरह
कमज़ोर का शिकार कर
रहे हैं।
शोषकों, पशुबल-समर्थकों और अत्याचारियों, पूँजीपतियों, धर्म और साम्प्रदायिकता के घिनौने चेहरों-रूपों पर पूरी ताक़त से प्रहार करने में, मैं कहीं नहीं चूका हूँ। मुझे इस बात से तोष है। नारी सशक्तीकरण की आवाज़ मेरी प्ररम्भिक रचनाओं तक में गूँज रही है। भविष्य में बदलाव आएगा; यदि युवा-शक्ति संगठित होकर जन-चेतना को उद्वेलित करे। देश में सच्चा जनतंत्र स्थापित होना चाहिए।
आज कविताओं के प्रति पाठकों का रुझान अत्यन्त निराशाजनक हो गया है। क्या कविता को अरुचिकर व अलोकप्रिय बनाने में कविगण ज़िम्मेदार हैं? यदि ऐसा है तो आप उन्हें क्या सबक़ देना चाहेंगे; जिससे कि कविता पुनः पाठकों के हृदय और कंठ में रच-बस सके।
साधरण पाठक कविता समझ सके, यह ज़रूरी है। कवियों द्वारा इस ओर ध्यान दिया जाए; कविता पुनः लोकप्रिय हो जाएगी।
आपने पतनोन्मुख राष्ट्रीय संस्कृति को लेकर चिन्ताएँ व्यक्त की हैं। आदर्श राष्ट्रीय संस्कृति को पुनरुज्जीवित-पुनर्स्थापित करने के लिए नव-रचनाकारों की भूमिका क्या होनी चाहिए?
नव-रचनाकारों को हम कोई उपदेश देना नहीं चाहते। वे स्वयं जागरूक हैं।
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*Dr. Manoj Mokshendra
M-9910390249 / E-Mail :
drmanojs5@gmail.com
*Dr. Mahendra Bhatnagar
M-
8109730048 / E-Mail: drmahendra02@gmail.com
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