रविवार, 8 अगस्त 2010

आम आदमी तक पहुंची प्रेमचंद की कथा परंपरा


राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को ‘कथा दर्शन’ और ‘कथा सरिता’ कार्यक्रमों के माध्यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्मों के प्रदर्शन से हुई।

फिल्म प्रदर्शन से पूर्व प्रलेस के महासचिव प्रेमचंद गांधी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि प्रेमचंद की रचनाओं में व्याप्‍त सामाजिक संदेशों को और उनकी कहानी परंपरा को आम जनता तक ले जाने की एक रचनात्मक कोशिश है यह दो दिवसीय समारोह। इसमें एक तरफ जहां प्रेमचंद की कहानियों पर बनी फिल्मों के माध्यम से प्रेमचंद के सरोकारों को आमजन तक ले जाने का प्रयास है, वहीं प्रेमचंद की कथा परंपरा में राजस्थान के दस युवा कहानीकारों को एक साथ प्रस्तुत कर हम प्रदेश की युवतम रचनाशीलता को राजधानी के मंच पर ला रहे हैं। इसके बाद प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’, ‘ज्योति’ और ‘हज्ज-ए-अकबर’ फिल्में दिखाई गईं। ‘नमक का दारोगा’ तो चर्चित कहानी है, लेकिन प्रेमचंद की आम छवि से हटकर है ‘ज्योति’ की कहानी। एक ग्रामीण विधवा किसान स्त्रीं के इकलौते बेटे और ग्रामीण युवती की मासूम प्रेमकथा में मानवीय और पारिवारिक रिश्तों का प्रेम कई स्तरों पर दर्शकों को विभोर कर देता है। इसी प्रकार ‘हज्ज‍-ए-अकबर’ में एक मुस्लिम बालक और उसकी आया के बीच अपार प्रेम को बहुत संवेदनशीलता के साथ रूपायित किया गया है। खचाखच भरे सभागार में दर्शकों ने तीनों फिल्मों का भरपूर आनंद लिया और तालियां बजाईं।

रविवार 01 अगस्तग, 2010 की सुबह 10.30 बजे ‘कथा सरिता’ का आगाज हुआ। वरिष्ठ कथाकार जितेंद्र भाटिया, वरिष्ठफ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित और वयोवृद्ध विज्ञान लेखक हरिश्चंद्र भारतीय द्वारा प्रेमचंद के चित्र पर माल्यार्पण से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इस अवसर पर प्रलेस के महासचिव प्रेमचंद गांधी ने स्वागत करते हुए कहा कि प्रेमचंद की 130वीं जयंती के मौके पर प्रदेश के दस युवा कथाकारों को एक मंच पर लाने की यह कोशिश रचनाकार और आम आदमी के बीच संवाद की पहल है, जहां लेखक सीधे पाठक से रूबरू होगा और कथा के आस्वाद की पुरानी परंपरा पुनर्जीवित होगी। यह प्रेमचंद की परंपरा में समकालीन रचनाशीलता को कई आयामों से देखने की रचनात्मंक कोशिश है। उन्होंने कहा कि दोनों सत्रों में जितेंद्र भाटिया और नंद भारद्वाज अध्यक्षता के साथ संयोजन भी करेंगे। इसके पश्चात वरिष्ठं रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित ने प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से पाठ किया तो उपस्थित श्रोताओं ने उनकी तालियां बजाकर प्रशंसा की।

इसके पश्चात पहले सत्र का आरंभ करते हुए जितेंद्र भाटिया ने कहा कि समूचे भारतीय साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा में उनके समकालीन रचनाकारों में उनके जितना बड़ा कहानीकार कोई नहीं है, उपन्यासकार और कवि जरूर हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के बाद कहानी में बहुत विकास हुआ है, लेकिन सरोकार आज भी प्रेमचंद के समय के ही हैं। यही कारण है कि कहानी आज भी हमारे समय और समाज की धड़कन है, जिसे आज के कथाकार सार्थक कर रहे हैं। इसके बाद कहानी पाठ में सबसे पहले राम कुमार सिंह ने ‘शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते’ कहानी का पाठ किया। एक साधारण मनुष्य की जिजीविषा और सामाजिक ताने-बाने में उसकी व्यथा कथा में रामकुमार ने यह बताने की कोशिश की कि सच्चे और भले लोग जिंदगी के हर मोड़ पर ठगे जाते हैं और उनके अंतर्तम में ठुकी हुई कीलों का रहस्‍य बाकी लोग कभी नहीं जान पाते। कहानी पाठ की शृंखला में प्रदेश के युवतम कथाकार राजपाल सिंह शेखावत ने ‘नुगरे’ कहानी का पाठ किया तो आजादी के बाद विगत छह दशकों में कैसे सांप्रदायिक विचारों ने जगह बनाई है, इसका एक गांव की कहानी के माध्यम से पता चला। कहन में सामान्य और बड़ी बात को भी साधारण ढंग से कहने के कौशल से कहानी ने चमत्कारिक प्रभाव पैदा किया।

उर्दू अफसानानिगार आदिल रज़ा मंसूरी ने अपनी कहानी ‘गंदी औरत’ में फुटपाथ पर रहने वाली एक स्त्री के माध्यम से समाज के सफेदपोश लोगों की गंदगी को बेनकाब करने का प्रयास किया। सुप्रसिद्व युवा कहानीकार अरुण कुमार असफल ने अपनी कहानी ‘क ख ग’ का पाठ करते हुए बताया कि सामान्य अनपढ़ लोगों में शिक्षित लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यावहारिक ज्ञान होता है जो उन्हें बिना किसी नारे के सशक्त बनाता है और दूसरों को राह दिखाता है। मनीषा कुलश्रेष्ठ की अनुपस्थिति में सुपरिचित कलाकार सीमा विजय ने उनकी कहानी ‘स्वांग’ का प्रभावी पाठ किया। स्वांग रखने की प्राचीन लोक कला पर आधारित बुजुर्ग लोक कलाकार गफूरिया की इस मार्मिक कथा ने सबको द्रवित कर दिया। अध्यक्षता करते हुए जितेंद्र भाटिया ने पढ़ी गई कहानियों की चर्चा करते हुए समकालीन रचनाशीलता को रेखांकित करते हुए कहा कि इधर लिखी जा रही कहानियों ने हिंदी कहानी के भविष्‍य को लेकर बहुत आशाएं जगाईं हैं। सत्र के समापन में उन्होंने अपनी नई कहानी ‘ख्वाब एक दीवाने का’ का पाठ किया। भविष्य केंद्रित इस विज्ञान कथा में समूची प़थ्वी को लेकर व्यांप्‍त चिंताओं से पाठकों को रूबरू कराया गया।

‘कथा सरिता’ के दूसरे सत्र का आरंभ वरिष्ठ साहित्यकार नंद भारद्वाज की अध्यक्षता में युवा कहानीकार दिनेश चारण के कहानी पाठ से हुआ। उन्होंने अपनी कहानी ‘पागी’ के मार्फत यह बताने का प्रयास किया कि नई पीढ़ी के रचनाकार अपनी जड़ों की कितनी गहराई से पड़ताल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। ग्रामीण परिवेश में पांवों के निशान खोजने वाले व्य़क्ति और उसकी खोई हुई प्रेमिका की अद्भुत प्रेमकथा ने सबको रोमांचित कर दिया। इसके बाद लक्ष्मी शर्मा ने ‘मोक्ष’ कहानी का पाठ किया। एक साधारण अनपढ़ ग्रामीण स्त्री की दारुण संघर्ष गाथा ने सबकी आंखें नम कर दीं। युवा कवि कथाकार दुष्यंत ने ‘उल्टी वाकी धार’ कहानी में दो शहरी प्रेमियों के बीच तनाव और अंतर्द्वंद्व को बहुत खूबसूरती से रचते हुए युवती के नैतिक साहस को रेखांकित किया। चर्चित कथाकार चरण सिंह पथिक ने डांग क्षेत्र में होने वाली पदयात्राओं की प्रतियोगिता के बहाने ग्रामीण समाज की कड़वी सच्चाइयों से ‘यात्रा’ कहानी के माध्यम से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। अध्यक्षता करते हुए नंद भारद्वाज ने कहा कि आज पढ़ी गई कहानियों से राजस्थान की समकालीन रचनाशीलता का पता चलता है कि वह कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है। अपने परिवेश की गहरी समझ और प्रेमचंद के सरोकारों से लैस यह पीढ़ी निश्चित रूप से आगे जाएगी और प्रदेश की जनभावनाओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करेगी। इसके बाद समापन में सीमा विजय ने प्रेमचंद की मार्मिक कहानी ‘बूढ़ी काकी’ का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से पाठ किया तो श्रोताओं ने भरपूर तालियां बजाकर उनका स्वागत किया। अंत में प्रलेस के उपाध्यक्ष फारुक आफरीदी ने जवाहर कला केंद्र, दूरदर्शन, सहभागी रचनाकारों और समारोह में सहयोग करने वाले सभी साहित्य प्रेमी मित्रों और श्रोता-दर्शकों का आभार जताया।

प्रस्तुति : फारुक आफरीदी

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

प्रेमचन्द जयंती के उपलक्ष्य में प्रगतिशील लेखक संघ की इन्दौर इकाई द्वारा कार्यक्रम



प्रेमचन्द जयंती  पर गीत चतुर्वेदी का कहानी-पाठ  
1 अगस्त 2010, इन्दौर।
प्रेमचन्द जयंती  के उपलक्ष्य में प्रगतिशील  लेखक संघ की इन्दौर इकाई द्वारा प्रसिद्ध युवा कहानीकार व कवि गीत चतुर्वेदी का कहानी पाठ आयोजित किया गया। 
1 अगस्त 2010 को  देवि अहिल्या केन्द्रीय पुस्तकालय में हुए इस कार्यक्रम में अभय नेमा ने आमंत्रितों का स्वागत करते हुए भोपाल से आये गीत चतुर्वेदी को समकालीन हिन्दी कहानी में एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति कहा। गीत चतुर्वेदी का परिचय देते हुए विनीत तिवारी ने गीत की कविता, अनुवाद और फिल्मों में रुचि को रेखांकित किया और कहा कि इन सब आयामों से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करते हुए गीत ने अपनी कहन की एक नई शैली को विकसित किया है। पेशे से पत्रकार गीत को कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ है और हाल में उनका एक कविता संग्रहआलाप में गिरह और कहानियों की दो किताबें पिंक स्लिप डैडी व सावंत आंटी की लड़कियां आयीं हैं।

गीत चतुर्वेदी  ने अपनी चर्चित लम्बी कहानी पिंक स्लिप डैडी के चुनिन्दा अंशों का पाठ किया। ‘पिंक स्लिप डैडी’ आज के एक उच्च मध्यमवर्गीय जीवन की कहानी है जिसमें कहानी का प्रमुख पात्र सफलता पाने के लिये कई तरह के झूठ गढ़ता है और सबसे ज्यादा झूठ अपने आप से कहता है। ये कहानी वर्तमान कार्पोरेट जीवन शैली के सामाजिक साइड इफेक्ट्स को दर्शाती है और आडम्बरपूर्ण सर्वसुविधायुक्त जीवनशैली के अंधेरे कोनों पर रोचक ढंग से कटाक्ष करती हुई आगे बढ़ती है। बहुत सुन्दरता के साथ कहानी अपने कहन में कविता को साथ लेकर चलती है जिससे इसकी भाषा तरल और प्रवहमान बनी रह्ती है। कहानी में गीत कहते हैं मेरी जाग एक नियंत्रित नींद है।.....एक कामयाब नींद क्या होती है- उसमें प्रवेश करना या फिर सही-सलामत बाहर निकल आ जाना?”....वो सपने के बारे में कहते हैं कि सपना चाहे कैसा भी हो, सच होने का बीज उसी में छुपा होता है।” वो प्रकाश को डायल्यूटेड अन्धेरा कहते हैं और ज्यादा गाढ़े प्रकाश को अंधेरा।.....“हम इस धरती का जल हैं। पानी की भी मांसपेशियां होती हैं और पानी को पानी से ही धोना चाहिये”।.....“माँ बनने के बाद हर महिला अपनी माँ का स्पर्श याद करती है”। कहानी का मुख्य किरदार कहता है कि “मैं प्रसन्न रहना चाहता हूँ मगर पाता हूँ ज्यादातर समय सिर्फ सन्न हूँ।” 
करीब एक घंटे चले कहानी पाठ के बाद अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए उपस्थितों ने कहानी के साथ कविता के मेल और इस शिल्प को गीत की कहानियों का ख़ूबसूरत प्रयोग कहा। गीत की कहानियों के बहाने हिन्दी कहानी के भीतर दिख रहीं नयी प्रव्रत्तियों, इनके विकास व मौजूदा यथार्थ की जटिलताओं पर चर्चा हुई। रवीन्द्र व्यास ने कहा कि गीत जब एक यथार्थ को छूते हैं तो कई सारे यथार्थ फूट पड़ते हैं और इन्हीं सब यथार्थों को व्यक्त करने की कोशिश में वो तमाम तरह के कोटेशंस और कविताओं का प्रयोग करते हैं। इसीलिये इनकी कहानियों में बहुस्तरीयता और विभिन्न कला माध्यमों में आवाजाही दिखती है। आशुतोष दुबे ने कहा कि कहानी और कविता के इस मिलेजुले शिल्प में गीत के लेखन में अलग और बेहतर तरीके से नयापन मौजूद है और वो पाठक के साथ छूट लेने का साहस करते हैं। विनीत तिवारी ने कहा कि इस कहानी को सुनते हुए लगा कि हरिया हर्क्युलीज की हैरानी को आज के समय में एक अलग ट्रीट्मेंट के साथ लिखा गया हो। इस्मत चुगताई, मंटो, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, यशपाल, ज्ञानरंजन आदि ने भी पाठक के दवाब को चुनौती दी थी और कहानी की कला को आगे बढ़ाया था। गीत और आगे की उम्मीदें जगाते हैं। ये कहानी उच्च मध्य वर्ग की मौजूदा त्रासदी है जिसे गीत ने नये मुहावरे और नयी भाषा के साथ खूब पकड़ा है, लेकिन हिन्दी कहानी को अभी ऐसे किसी मुहावरे और भाषा का इंतज़ार है जो इस दौर में समाज के सबसे निचले सिरे पर मौजूद करोड़ों लोगों की कहानी को नये और असरदार तरह से कह सके। प्रदीप मिश्र ने कहा कि पहले के कई लेखकों और कहानीकारों से हटकर इन कहानियों में एक नयापन है और गीत की भाषा का ये सामर्थ्य है कि वो इस मैनेजमेंटी कोर्पोरेटी जंजाल को उधेड़ देती है। गीत की कहानी में झूठी व्यवस्था का सच्चा हिस्सा बन जाने से उपजी समस्याओं का सशक्त चित्रण है। अभय नेमा ने कहा कि गीत अपनी कहानी में किसी भी तरह के वाद का नाम ना लेते हुए भी पूंजीवाद और उसकी अमानवीयता व सामाजिक असर को सरल किंतु सशक्त तरीके से उजागर करती है। विपुल शुक्ल ने रचना प्रक्रिया के बारे में सवाल किया कि क्या रचनाकार पाठक को नजरंदाज कर अच्छे साहित्य का स्रजन कर सकता है और आप लिखते समय मुख्य तौर पर किन बातों का ध्यान रखते हैं। उत्पल बैनर्जी, किसलय पंचोली, जावेद आलम व चैतन्य त्रिवेदी ने भी अपने विचार व्यक्त किये। अंत में गीत ने कहा कि मेरे भीतर का रचनाकार विशेषत: दो बातों पर ध्यान देता है- कुछ वो पहलू होते हैं जो लेखक जानता है कि ज्यादातर लोगों तक पहुँचेंगे और लोगों का उनपर ध्यान जायेगा। और कुछ पहलू ऐसे होते हैं जिन पर लेखक चाहता है कि लोगों का ध्यान जाये। मेरी कोशिश पाठक को समझाने की नहीं होती, मैं पाठक को मशक्कत के लिए तैयार भी करता हूं और उकसाता भी हूं। मैं जो कह रहा हूं उसके पाठक अपने-अपने पाठ करेंगे, इसलिये मेरा ज़ोर इस पर रहता है कि मैं वो लिख पाऊं जो मैं लिखना चाहता हूं, ना कि वो जो पाठक चाहता है। जहां तक कविता, कहानी, और अन्य विधाओं के इस्तेमाल की बात है तो मुझे लगता है कि यथार्थ और समय की मुठभेड़ को व्यक्त करने मेँ अब सिर्फ गद्य काफी नहीं है इसलिये एक से अधिक विधाओं के भीतर उतरना और उनका संयोजन करना ज़रूरी है। 
कार्यक्रम में एस. के. दुबे, साहब, जितेन्द्र चौहान, नवीन राँगियाल, सारिका श्रीवास्तव, क्रष्णकांत सिंह, निशिकांत चौहान, विभोर मिश्रा व रुचिता श्रीवास्तव की भी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति रही। संचालन किया अभय नेमा ने।

(इन्दौर से विभोर मिश्रा द्वारा प्रस्तुत एवं विनीत तिवारी द्वारा प्रेषित )-

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

प्रेमचंद :[महेंद्रभटनागर] .

प्रेमचंद

[महेंद्रभटनागर]
.


कथाकार !
युग के सजग, मुखरित, अमिट इतिहास,
जन-शक्ति के अविचल प्रखर विश्वास !
दृष्टा थे भविष्यत्के ;
धनी भावों-विचारों के !
अमर शिल्पी
मनुज-उर के
अकृत्रिम, सूक्ष्म-विश्लेषक !
.
सितारे-तीव्र
मेघाच्छन्न जीवन के गगन के,
रूढ़ियाँ-बंधन शिथिल तुमने किये
अपनी अरुक, दृढ़ लेखनी के बल !
सभी ये थरथरायीं
काल्पनिक, प्राचीन, झूठी, जन-विरोधी
धारणाएँ, मान्यताएँ ;
धर्म-ग्रन्थों से बँधी
निर्जीव, मिथ्या, शून्य की बातें
अनोखी, खोखली
जो हो रही थीं प्रगति-बाधक !
पतित साम्राज्यवादी-शक्तियों का
नग्न-चित्रण कर
बनायी भूमिका
जनबल अथक-संघर्ष की !
.

अमर साधक !
सतत चिंतित रहे तुम
स्वर्ग धरती को बनाने !
अभय सामाजिक सुधारक,
युग-पुरुष !
तुमको, तुम्हारी ज्योति को
क्या ढक सकेंगी काल-रेखाएँ ?
नहीं अब शेष साहस जो
अँधेरा सिर उठाए !
तुम प्रगति-पथ की
नयी ज्योतित दिशा का
मार्ग-दर्शन कर रहे हो !
प्राण में बल भर रहे हो !

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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

प्रेमचंद जयंती समारोह-2010

हिंदी साहित्‍य के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की 130 वीं जयंती के अवसर पर जयपुर में दो दिवसीय प्रेमचंद समारोह का आयोजन किया जा रहा है। राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र के संयुक्‍त तत्‍वावधान में होने वाले इस समारोह में शनिवार 31 जुलाई, 2010 को 'कथा दर्शन' में सायं 6.30 बजे दूरदर्शन द्वारा गुलजार के निर्देशन में प्रेमचंद की कहानियों पर बनी टेलीफिल्‍मों का प्रदर्शन होगा। रविवार 01 अगस्‍त, 2010 को 'कथा सरिता' में राजस्‍थान के दस युवा कथाकारों का दो सत्रों में कहानी पाठ होगा। सुबह 10.30 बजे प्रथम सत्र की शुरुआत वरिष्‍ठ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित द्वारा प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' के वाचन से होगी। वरिष्‍ठ कथाकार जितेंद्र भाटिया की अध्‍यक्षता में इस सत्र में मनीषा कुलश्रेष्‍ठ, अरुण कुमार असफल, रामकुमार सिंह, राजपाल सिंह शेखावत और आदिल रजा मंसूरी का कहानी पाठ होगा। दोपहर 2.30 बजे दूसरे सत्र में वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में चरण सिंह पथिक, गौरव सोलंकी, दुष्‍यंत, दिनेश चारण और लक्ष्‍मी शर्मा का कहानी पाठ होगा। जयपुर की सुपरिचित संस्‍कृतिकर्मी सीमा विजय द्वारा प्रेमचंद की कहानी 'बूढ़ी काकी' के वाचन से समारोह का समापन होगा।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कविता : महेंद्रभटनागर

श्रमिक

[महेंद्रभटनागर]
.
टिकी नहीं है

शेषनाग के फन पर धरती !

हुई नहीं है उर्वर

महाजनों के धन पर धरती !

सोना-चाँदी बरसा है

नहीं ख़ुदा की मेहरबानी से,

दुनिया को विश्वास नहीं होता है

झूठी ऊलजलूल कहानी से !
.

सारी ख़ुशहाली का कारण,

दिन-दिन बढ़ती

वैभव-लाली का कारण,

केवल श्रमिकों का बल है !

जिनके हाथों में

मज़बूत हथौड़ा, हँसिया, हल है !

जिनके कंधों पर

फ़ौलाद पछाड़ें खाता है,

सूखी हड्डी से टकराकर

टुकड़े-टुकड़े हो जाता है !
.
इन श्रमिकों के बल पर ही

टिकी हुई है धरती,

इन श्रमिकों के बल पर ही

दीखा करती है

सोने-चाँदी की भरती !
.

इनकी ताक़त को

दुनिया का इतिहास बताता है !

इनकी हिम्मत को

दुनिया का विकसित रूप बताता है !

सचमुच, इनके क़दमों में

भारीपन खो जाता है !

सचमुच, इनके हाथों में

कूड़ा-करकट तक आकर

सोना हो जाता है।
.
इसीलिए

श्रमिकों के तन की क़ीमत है !

इसीलिए

श्रमिकों के मन की क़ीमत है !
.

श्रमिकों के पीछे दुनिया चलती है ;

जैसे पृथ्वी के पीछे चाँद

गगन में मँडराया करता है !

श्रमिकों से

आँसू, पीड़ा, क्रंदन, दुःख-अभावों का जीवन

घबराया करता है !

श्रमिकों से

बेचैनी औ बरबादी का अजगर

आँख बचाया करता है !
.
इनके श्रम पर ही निर्मित है

संस्कृति का भव्य-भवन,

इनके श्रम पर ही आधारित है

उन्नति-पथ का प्रत्येक चरण !
.

हर दैविक-भौतिक संकट में

ये बढ़ कर आगे आते हैं,

इनके आने से

त्रस्त करोड़ों के आँसू थम जाते हैं !

भावी विपदा के बादल फट जाते हैं !

पथ के अवरोधी-पत्थर हट जाते हैं !

जैसे विद्युत-गतिमय-इंजन से टकरा कर

प्रतिरोधी तीव्र हवाएँ

सिर धुन-धुन कर रह जाती हैं !

पथ कतरा कर बह जाती हैं !
.

श्रमधारा कब

अवरोधों के सम्मुख नत होती है ?

कब आगे बढ़ने का

दुर्दम साहस क्षण भर भी खोती है ?

सपनों में

कब इसका विश्वास रहा है ?

आँखों को मृग-तृष्णा पर

आकर्षित होने का

कब अभ्यास रहा है ?
.

श्रमधारा

अपनी मंज़िल से परिचित है !

श्रमधारा

अपने भावी से भयभीत न चिंतित है !
.

श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी !

सागर की लहरों से लेकर

अम्बर तक फैली !

इनका कोई अपना देश नहीं,

काला, गोरा, पीला भेष नहीं !

सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन,

सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन

कोई अलग नहीं !

कर सकती भौगोलिक सीमाएँ तक

इनको विलग नहीं !


सोमवार, 21 जून 2010

कवि महेंद्रभटनागर : भेंट-वार्ता


कवि महेंद्रभटनागर : भेंट-वार्ता

[प्रोफ़ेसर आदित्य प्रचण्डिया]

आपका पारिवारिक परिवेश क्या रहा?

मेरे पिता श्री. रघुनन्दनलाल जी ग्वालियर-रियासत में अल्प-वेतन-भोगी अध्यापक थे। हमारा परिवार निर्धन था। पिता जी ने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में आगरा विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की थी इतिहास विषय में। पिता जी शिक्षाविद् होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। ग्वालियर-रियासत शाखा बॉय स्काउट से सम्बद्ध थे। मैं भी, उनके साथ एकाधिक केम्पों में शामिल हुआ। आर्य समाज नियमित जाते थे। घर पर, प्रात:काल हवन होता था वैदिक ऋचाओं के साथ। मैं भी भाग लेता था। वॉली-बॉल के अच्छे खिलाड़ी थे। फलस्वरूप मैं भी अनेक खेलों में भाग लेता रहा हॉकी, फुटबॉल, वॉली-बॉल, कबड्डी, खो-खो और ऐथेलेटिक्स में (हाई-जम्प)

मेरी माँ श्रीमती गोपाल देवी आदर्श गृहिणी थीं। हिन्दी और उर्दू की ज्ञाता थीं। श्रीरामचरित मानस का पाठ नियमित करती थीं। वैष्णव थीं। छुआछूत मानती थीं। रसोई में प्याज-लहसुन वर्जित था। बुंदेलखंडी लोकगीतों में उनकी विशेष रुचि थी। बचपन में अनेक लोक-कथाएँ उनसे सुनीं। घर में गायन के कार्यक्रम प्राय: होते रहते थे ढोलक-मजीरों पर। बाद में, हारमोनियम भी। मुहल्ले की औरतें इकट्ठी होती थीं। घर में ख़ूब तीज-त्योहार मनते थे। घर के सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव मेरे मानस पर पड़ना स्वाभाविक था। माँ मूर्तिपूजक थीं; पिता जी आर्य-समाजी। लेकिन परस्पर कभी विवाद नहीं हुआ। घर में माँ की ही चलती थी। पिता जी ने कभी कोई बाधा नहीं डाली। विरोध किया। उदार और सहनशील वातावरण में मैं पला-बढ़ा।

साहित्य-लेखन में आप कैसे और किसकी प्रेरणा से आए?

मेरे साहित्य-सर्जन के प्रेरक तत्त्वों में पारिवारिक परिवेश प्रमुख है।

प्रारम्भिक कक्षाओं की हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों में संकलित कविताओं में भी मेरी रुचि रही। संकलित कविताएँ बहुत चाव से पढ़ता था। आनन्दित होता था। प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम-परिवेश में हुई। सबलगढ़ (मुरैना मध्य-प्रदेश) में। ग्राम-परिवेश और प्रकृति ने मुझे आकर्षित किया। सबलगढ़ के जंगलों में ख़ूब घूमा भटका। गरम प्रदेश में रहा; एतदर्थ रात में सोना छत पर होता था। चाँद-तारों से रिश्ता बढ़ा। इस सब की अभिव्यक्ति मेरी प्रारम्भिक रचनाओं में देखी जा सकती है। आगे चलकर, आवासीय उपनगर मुरार (ग्वालियर) में प्राय: आयोजित कवि-सम्मेलन / मुशायरे मुझे कविता और कवियों से जोड़ने में सहायक हुए। मैं भी लुक-छिप कर काव्य-रचना (तुकबंदियाँ) करने लगा। नवम्बर सन् १९४१ के पूर्व जो काव्य-सृष्टि की वह अप्राप्य है। इस काल में, प्रकृति मेरी कविता की सहचरी रही।

सत्र १९४१-४२ विक्टोरिया कॉलेज ग्वालियर में, उच्च-शिक्षा हेतु प्रवेश लिया (उम्र १५ वर्ष) अंग्रेज़ी और हिन्दी के अतिरिक्त अध्ययन के अन्य विषय थे अर्थशास्त्र और भूगोल। कॉलेज के माहौल और अध्ययन-विषयों ने मेरे चिन्तन को नयी दिशा दी। द्वितीय विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि और भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की गतिविधियों ने मुझे प्रकृति से समाजार्थिक धरातल पर ला खड़ा किया। यह काल मेरे लिए बौद्धिक चेतना का काल रहा।

आपने किन-किन विधाओं में लिखा है?

मेरा साहित्य-लेखन कविता-विधा से प्रारम्भ हुआ। आगे भी कविता मेरे लेखन की प्रमुख विधा रही और आज भी है। अधिकतर लघु-विस्तारी कविताएँ और गीत ही लिखे। चूँकि अध्यापक रहा; अत: आलोचना-कर्म में भी सहज प्रवृत्त हुआ। आलोचक के नाते हिन्दी-जगत् में पर्याप्त सम्मान मिला। विभिन्न विधाओं के अनेक रचनाकारों से संबंध स्थापित हुए। एक बृहत साहित्यिक परिवार का अंग बन जाना; स्वयं में एक सुखद अनुभव रहा। किन्तु, जीवन-संघर्ष और समयाभाव आलोचना-कर्म में बाधक रहे। अध्ययन और लेखन के लिए वांछित सुविधाएँ पा सका। कवि-कर्म की गति भी मंथर रही। आज-तक लगभग एक-हज़ार कविताओं की ही रचना कर सका। साहित्य-लेखन मेरा पेशा नहीं रहा। कविता और आलोचना के अतिरिक्त लघु-कथाएँ, एकांकी / रूपक और बाल-साहित्य की कुछ कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं।

आपके काव्य-गुरु कौन हैं? उनसे आपने कितनी प्रेरणा ली?

काव्य-गुरु जैसा तो कोई नहीं। हाँ, दो वरिष्ठ यशस्वी कवियों के निकट सम्पर्क में अवश्य रहा। वे हैं श्री. जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द (सन् १९४१ से) और श्री. शिवमंगलसिंह सुमन (सन्१९४५ से) इनसे पारिवारिक संबंध भी रहे। मिलिन्द जी ने मेरी कविताएँ अपने साप्ताहिक पत्र जीवन में प्रकाशित कीं। वैसे अपने समय के अनेक कवियों की रचनाएँ मुझे भाती रही थीं। यथा मैथिलीशरण गुप्त (साकेत, यशोधरा), जयशंकर प्रसाद (आँसू, कामायनी), सुमित्रानंदन पंत (पल्लव, गुंजन, ग्राम्या), निराला, महादेवी वर्मा, बच्चन, एवं अनेक लब्ध-प्रतिष्ठ कवियों की फुटकल रचनाएँ।

आपकी दृष्टि में कविता क्या है?

कविता को परिभाषित करना साहित्याचार्यों का काम है। कवि का संबंध कविता के रचना-पक्ष से है; सैद्धांतिक पक्ष से नहीं। अन्यथा भी, आज-तक कविता की कोई परिभाषा निश्चित नहीं हो सकी है। मैंने जब-तब कविता के संबंध में विमर्श किया ज़रूर है। महत्त्व की दृष्टि से कविता के प्रमुख तत्त्वों का क्रम मेरे लिए इस प्रकार है भाव, विचार, कल्पना, शिल्प। महाकवि तुलसीदास के इन कथनों से सहमत हूँ :

¹ कीरति भणति भूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥

· हृदय सिन्धु मति सीप समाना।

स्वाती सारद कहहिं सुजाना॥

जो बरखे बर बारि विचारू।

होंहि कवित मुक्ता मनि चारू॥

· गीत मेरे लिए है :

सूक्ष्म पावन अनुभूतियों-भावनाओं-संवेदनाओं, विराट कल्पनाओं और उदात्त विचारों की सुन्दर सहज स्वत:स्फूर्त संगीतमयी अभिव्यक्ति गीत है।

आज की कविता आपके निकष पर कहाँ ठहरती है?

आज की हिन्दी-काविता का स्वरूप बदल गया है। माना, अपने परम्परागत स्वरूप में भी वह आज लिखी जा रही है। इन दोनों प्रकार की कविताओं से जिन पाठकों का आवर्जन होता है; उनकी मानसिक बनावट समान नहीं है। मात्र भावुकता, तुकबंदी, बासी उपमानादि, घिसे-पिटे शब्द आदि वर्तमान वैज्ञानिक युग के बुद्धिजीवियों को क़तई पसंद नहीं। अभिव्यक्ति-सौन्दर्य में नयापन वर्तमान युग के रचनाकारों और प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष बुनियादी तत्त्व हैं। हिन्दी भाषा की कथन-भंगिमाएँ भी आश्चर्यजनक रूप से अभिनव रूप में लक्षित हो रही हैं। शब्दों और शब्द-रूपों में समृद्धि निरन्तर हो रही है। हिन्दी में फ़ारसी शब्द ही नहीं; अंग्रेज़ी शब्द-प्रयोग भी अपने सहज रूप में अवतरित हो रहे हैं। एक वैश्विक वातावरण आज की हिन्दी-कविता में द्रष्टव्य है। हिन्दी-कविता का यह धन-पक्ष है। माना, इसके समान्तर दुरूह, असंगत, बोझिल, उबाऊ अभिव्यक्तियाँ भी हिन्दी-काव्य में जमकर-खुलकर लिपिबद्ध हो रही हैं। यह कचरा दिन-पर-दिन बढ़ता जा रहा है। कौन पढ़ता है इसे?

आपने छायावादोत्तर काल से कविता लिखना शुरू किया और आज तक सक्रिय हैं। आप किस खेमे के कवि हैं? प्रगतिवादी-जनवादी या कुछ और?

मेरा काव्य-लेखन सन्१९४१ के लगभग अंत से प्रारम्भ होता है। इस समय तक हिन्दी-कविता अपनी अनेक मंज़िलें तय कर चुकी होती है। सन् १९३६ से प्रगतिवाद की दुंदुभी बजने लगी थी। सन् १९४३ में तार-सप्तक गया। हिन्दी-कविता के तत्कालीन परिदृश्य का परिज्ञान मुझे सन् १९४५-४६ से ही हो पाता है। इसके पूर्व का काल मेरे छात्र-जीवन का काल रहा। क्रमश: हिन्दी कवियों और उनकी काव्य-उपलब्धियों को जानने-समझने का क्रम चला। छायावादोत्तर हिन्दी-कविता की दो धाराएँ राष्ट्रीय उद्बोधन और गीति-रचना की अविच्छिन्न चलती रहीं। लेकिन कविता-क्षेत्र में मेरे प्रवेश के समय प्रगतिवाद प्रतिष्ठित हो चुका था। सन् १९४५-४६ से मैं प्रगतिवादी कविता की मूल धारा से जुड़ा। हंस के माध्यम से। अमृतराय, त्रिलोचन शास्त्री, . . मुक्तिबोध, पहाड़ी, नागार्जुन, बैजनाथसिंह विनोद आदि साहित्यिक पत्रों के सम्पादकों ने मेरे काव्य-कर्तृत्व में रुचि ली। प्रगतिवादी कविता का यह दूसरा दौर था। पूर्व के अधिकांश प्रगतिवादी कवि उम्र में मुझसे एक दशक अधिक थे। इसी कारण, कुछ समीक्षकों ने, इस काल की प्रगतिवादी कविता को नवप्रगतिवाद के नाम से अभिहित किया है; यद्यपि यह नाम प्रचलित हुआ नहीं। बहुत शीघ्र प्रयोगवाद और नयी कविता की काव्य-धाराएँ उभर कर आ-छा गयीं। अज्ञेय इस लेखन के पुरोधा बने। प्रतीक में मैंने भी लिखा। लेकिन सप्तक-परम्परा से अपने को जोड़ना नहीं चाहा। ग.. मुक्तिबोध और गिरिजाकुमार माथुर ने पहल भी की।

[द्रष्टव्य मुक्तिबोध-लिखित टूटती शृंखलाएँ की समीक्षा इस तरह वह (महेंद्रभटनागर) तार-सप्तक के कवियों की परम्परा में आता है; जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी-काव्य की छायावादी प्रणाली को त्याग कर नवीन भावधारा के साथ-साथ नवीन अभिव्यक्ति शैली को स्वीकृत किया है। इस शैली की यह विशेषता है कि नवीन विषयों को लेने के साथ-साथ नवीन उपकरणों को और नवीन उपमाओं को भी लिया जाता है तथा काव्य को हमारे यथार्थ जीवन से संबंधित कर दिया जाता है। इसे हम वस्तुवादी मनोवैज्ञानिक काव्य कह सकते हैं। ...... किन्तु सबसे बड़ी बात यह है, जो उन्हें पिटे-पिटाये रोमाण्टिक काव्य-पथ से अलग करती है और तार-सप्तक के कवियों से जा मिलाती है वह यह है कि अत्याधुनिक भावधारा के साथ टेकनीक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका (महेंद्रभटनागर का) उत्तरकालीन काव्य मॉडर्निस्टक या अत्याधुनिकतावादी हो जाता है।’’]

और श्री. गिरिजाकुमार माथुर का आलोचना’ (जुलाई १९५४, पृ. ६४) में प्रकाशित आलेख :

[ शताब्दी के अर्धचरण तक आते-आते नए कवियों की एक और पीढ़ी उठकर साहित्य-क्षितिज पर आई। धर्मवीर भारती, हरि व्यास, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, शकुन्त माथुर, महेन्द्रभटनागर, सर्वेश्वरदयाल, मदन वात्स्यायन, विजयदेव साही, नामवर सिंह, सिद्धनाथ कुमार, राजनारायण बिसारिया आदि कितने ही नये कवि हमारे सामने हैं।’’]

इनमें से अधिकांश सप्तक संकलनों में विद्यमान हैं।

इन्हीं दिनों प्रगतिवादी समीक्षकों में मतभेद उभरे। डा. रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, अमृतराय आदि में सैद्धांतिक वाद-विवाद छिड़ गया। प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त और शिवदानसिंह चौहान पर्याप्त संतुलित रहे। हिन्दी-कविता की मूल धारा से जुड़े रहने के फलस्वरूप मेरा कविता-लेखन विकसित होता रहा। किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति मैं कभी प्रतिश्रुत नहीं रहा; यद्यपि समाजवादी-साम्यवादी समाज-व्यवस्था का समर्थक ज़रूर रहा। प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ की विचार-धारा से मेरा चिन्तन पर्याप्त मेल खाता है; अत: साहित्य के इन आन्दोलनों में मेरी भी अपनी भूमिका रही। कट्टर वामपंथियों ने मुझे समर्थक (sympathizer) समझा; पर मुझे प्रमुखता (high light) नहीं दी। वाम-विरोधी जान-बूझ कर उदासीन रहे। चूँकि सदैव स्वतंत्र रहा; अत: निर्बाध गति से अपनी भावनाओं-संवेदनाओं-विचारों को काव्याभिव्यक्ति प्रदान करता रहा। कोई क्या कहेगा; ऐसा कभी नहीं सोचा। मेरे काव्य-कर्तृत्व में विषय-वैविध्य के पाये जाने का रहस्य यही है। मेरी विचारणा सचेत अवस्था-अनुस्यूत है; उसमें असंगति-विसंगति का आरोपण करना बेमानी है। स्वतंत्र रचनाकार एक खूँटे से बँध कर नहीं लिखता। वह पेशेवर नहीं होता। अपनी आन्तरिक प्रेरणा को तरजीह देता है।

‘तारों के गीत से लेकर राग-संवेदन तक आपकी अठारह काव्य-कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं; आप क्या अनुभूत करते हैं? इन कृतियों के प्रकाशन-क्रम पर प्रकाश डालेंगे?

मेरी काव्य-कृतियों का प्रकाशन सन् १९४९ से प्रारम्भ हुआ। प्रकाशक अनायास मिलते रहे।

शुरू-शुरू में कुछ गीत-कविताएँ तारों को लक्ष्य करके लिखी थीं। तब मैं लगभग १५ वर्ष का था और विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर में अध्ययनरत था। तारे संसार-भर के कवियों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। मात्र तारों पर कविता-संकलन प्रकाशक को विशिष्ट लगा। इस कृति में कुल २१ रचनाएँ समाविष्ट हैं। प्रकाशक ने इसका पैपरबैक संस्करण बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया। तारों के गीत की समीक्षा साहित्य संदेश के सम्पादक यशस्वी प्रोफ़ेसर-लेखक सत्येन्द्र जी (आगरा) ने आकाशवाणी-केन्द्र दिल्ली से प्रसारित की; जिसे डा. विनयमोहन शर्मा जी ने अपनी सम्पादित आलोचना-पुस्तक महेंद्रभटनागर का रचना-संसार में शामिल किया है। प्रारम्भिक रचनाएँ होते हुए भी; तारों के ये गीत, पुस्तकाकार प्रकाशित हो जाने के बाद भी; तत्कालीन स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भी होते रहे (आजकल मासिक, दिल्ली, नवयुग साप्ताहिक, दिल्ली, आदि में)। कुछ गीत एकाधिक अन्य भाषाओं (तेलुगु, अंग्रेज़ी आदि) में अनूदित व प्रकाशित भी हैं।

द्वितीय काव्य-कृति टूटती शृंखलाएँ भी सन् १९४९ में प्रकाशित हो गयी (६० कविताएँ) इस कृति का प्रकाशन मेरे मित्र श्री. नंदकिशोर मित्तल (कारवाँ प्रकाशन, इंदौर) ने किया। कारवाँ कार्यालय में प्राय: काव्य-गोष्ठियाँ होती थीं। डा. शिवमंगलसिंह सुमन के साथ-साथ मैं भी उज्जैन से आमंत्रित होता था। उन दिनों हंस आदि अनेक उच्च-स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में मेरी कविताएँ प्रकाशित हो रही थीं। श्री. नंदकिशोर मित्तल साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे। उन्होंने स्वयं टूटती शृंखलाएँ को प्रकाशित करना चाहा। लेकिन प्रूफ़ ध्यानपूर्वक नहीं देखे। कुछ कविताओं में अपनी ओर से किंचित परिवर्तन तक कर डाले बिना मुझे बताए! अच्छा हुआ, टूटती शृंखलाएँ का सही द्वितीय संस्करण सन् १९५० में ही आ गया (स्थानीय साहित्यिक संस्था प्रबुद्ध भारती, ग्वालियर द्वारा)टूटती शृंखलाएँ में प्रकाशित डा. शिवमंगलसिंह सुमन का वक्तव्य इस प्रकार है मुझे श्री. महेंद्रभटनागर की टूटती शृंखलाएँ’ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। युग की अस्तव्यस्त मानसिक दशा तथा अप्रतिहत संघर्ष की जागरूक वाणी के उन्मेषशील स्वर इसकी झंकार में समाहित हैं। महेंद्रभटनागर की आतुर निर्भीक व्यंजना तथा कलात्मक गढ़न, प्रगतिशील काव्य के स्वर्णिम भविष्य की ओर संकेत करती है। कवि में जन-संस्कृति के नव-निर्माण की जो अदम्य आस्था है वह उसके स्वर को और सबल तथा साधनापरक बनाती है। हिन्दी के वर्तमान कवियों में उसने सहज ही गौरवपूर्ण स्थान बना लिया है। युग की वाणी उसके कंठ में ढलकर जन-जीवन के अश्रु-हास की सजीव गाथा बन गयी है। टूटती शृंखलाएँ’ संक्रमण-युग के युगान्तरकारी काव्य की भूमिका बनकर आयी है और नि:संदेह भावी समाज के अधिकांश भावात्मक उपकरण अंकुर रूप में उसमें देखे जा सकते हैं। मैं माँ-भारती के इस साधक की उर्वर प्रतिभा का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।’’

‘टूटती शृंखलाएँ बहु-चर्चित काव्य-कृति रही।

खजूरी बाज़ार, इंदौर में दीनानाथ बुक डिपो लेखकों-कवियों का मिलन-स्थल था। मैं जब भी इंदौर जाता वहाँ कुछ समय ज़रूर व्यतीत करता। दीनानाथ बुक डिपो के मालिक मुझसे बड़े प्रभावित थे। तीसरी काव्य-कृति बदलता युग उन्होंने प्रकाशित की। सन्१९५३ में। ऐसा ही, चौथी काव्य-कृति अभियान के साथ हुआ। आदर्श विद्या मंदिर, इंदौर के संचालक ने सन्१९५४ में उसे प्रकाशित किया। पाँचवीं काव्य-कृति अन्तराल साहित्यिक-संस्था युवक साहित्यकार संघ, धार ने सन्१९५४ में ही निकाली। स्वरूप ब्रदर्स, इंदौर; जो मेरी दो-एक पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे; प्रौढ़-शिक्षान्तर्गत विहान प्रकाशानार्थ ले गये। सन्१९५६ में छपी। सन्१९५६ में ही श्रीअजन्ता प्रकाशन, पटना से बहु-चर्चित काव्य-कृति नयी चेतना का प्रकाशन हुआ। प्रकाशक बिहार के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार थे। सन्१९५९ में किताब घर / साहित्य प्रकाशन , ग्वालियर ने प्रेम-कविताओं की कृति मधुरिमा का प्रकाशन किया। उन्होंने इसके दो संस्करण निकाले। नवीं काव्य-कृति जिजीविषा श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी ने हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी से सन्१९६० में प्रकाशित की; जिसकी अधिकांश कविताएँ प्रगतिवादी-जनवादी काव्य-धारा में बहु-उद्धृत हैं। जिस प्रकाशक ने मेरी प्रथम काव्य-कृति तारों के गीत छापी थी; उसी ने अपने एक अन्य प्रकाशन-संस्थान कैलाश पुस्तक सदन, ग्वालियर से सन्१९६३ में, संतरण कविता-संकलन प्रकाशित किया। सन्१९७२ में, जब मैं शासकीय महाविद्यालय, मंदसौर में पदस्थ था, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद के मालिक मुझसे मिलने आए और संवर्त नामक मेरा नया कविता-संकलन प्रकाशनार्थ ले गये और सन्१९७२ में ही उसे प्रकाशित कर दिया। तदुपरांत, बारहवाँ कविता-संकलन संकल्प सन्१९७७ में साहित्यिक संस्था प्रबुद्ध भारती (ग्वालियर) से निकला। जूझते हुए सन्१९८४ में किताब महल, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया। सन्१९९० और १९९७ में क्रमश: जीने के लिए और आहत युग ग्वालियर के सर्जना प्रतिष्ठान से प्रकाशित हुए। अनुभूत-क्षण’ सीधे पहले समग्र () में शामिल हुआ (सन्२००१)। फिर, द्वि-भाषिक (अंग्रेज़ी-हिन्दी) कृति के साथ सन् २००१ में ही, प्रस्तुत हुआ। द्वि-भाषिक (अंग्रेज़ी-हिन्दी) कृतियों के अन्तर्गत ही मृत्यु-बोध : जीवन-बोध और राग-संवेदन क्रमश: सन् २००२ और २००५ में प्रकाश में आए। इस प्रकार, इस समय तक मेरी अठारह काव्य-कृतियाँ उपलब्ध हैं। समग्र खंड १, , ३ में क्रम से १६ और महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा खंड १, , ३ में सम्पूर्ण १८ काव्य-कृतियाँ समाविष्ट हैं। इतना लिख चुकने के बाद भी, बहुत-कुछ अभिव्यक्त करने की छटपटाहट है। मैं समाजार्थिक चेतना-सम्पन्न एक आस्थावान कवि जीवन-त्रासदी का गायक समानान्तर मौज़ूद रहा; देखकर आज आश्चर्यचकित हूँ! यह-सब कैसे हो गया! जीवन में बहुत मानसिक कष्ट झेले, शायद, उनकी अनायास स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति। लिखकर हृदय का बोझ हलका करता रहा। व्यक्तिगत अनुभूतियाँ अंतर-मन का यथार्थ नहीं है क्या?

आपके काव्य का मूल-स्वर क्या है?

सामाजिक सरोकारों को मैंने प्राथमिकता दी है। रचनात्मक लेखन में मेरे प्रवेश के समय, देश और समाज का जो परिदृश्य था उसने मुझे समाजार्थिक चेतना प्रदान की। देश पराधीन था। भारतीय जनता, गांधी जी के नेतृत्व में, स्वतंत्रता-संघर्ष में आन्दोलन-रत थी। भारतीय समाज पुनरुत्थान की दिशा में सक्रिय था । जन-मानस में सुधारवादी प्रवृत्तियाँ पनप रही थीं। समस्त वातावरण आदर्श-प्रेरित था।

कवि केवल सामाजिक विषयों तक ही सीमित नहीं रहता। वह चिन्तक भी होता है। जीवन और जगत के सनातन प्रश्नों पर भी मनन करता है। व्यक्तिगत स्तर पर हर्ष और वेदना का भी अनुभव करता है। कवि का दार्शनिक उसकी रचनाओं में मुखर होता है। रचनाकार के हृदय में जितनी गहराई होगी; उतनी प्रभावान्विति से वह जीवन-मर्म का उद्घाटन कर सकेगा। उत्कृष्ट भावों-विचारों-कल्पनाओं से समृद्ध रचनाकार ही उत्कृष्ट रचना कर सकते हैं। मेरे काव्य में भी जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति हुई है। दर्द की अनुभूतियाँ जीवन-यथार्थ का हिस्सा हैं। वे स्व से सामूहिक’ बनती हैं। क्योंकि कवि कोई विशिष्ट अजूबा प्राणी नहीं होता। वह सामान्य जन का जीवन जीता है। उसके निजी हर्ष-विषाद सामान्य मानवता के सुख-दुख बन जाते हैं। इसे ही भाव-तादात्म्य कहते हैं। अत: मेरे काव्य में राग-विराग के स्वर भी सहज ध्वनित हुए हैं।

तीसरे प्रकार की रचनाएँ वे हैं; जो प्रणय-अनुभूतियों से सिक्त हैं। स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण व प्रेम स्वाभाविक एवं सनातन है। सृष्टि का अस्तित्व ही इसी से है। मनुष्य में परिष्कृति है; जो अन्य प्राणियों में दृग्गोचर नहीं होती। प्रेम मात्र शारीरिक क्षुधा या आवश्यकता नहीं है। उसका संबंध आत्मा से है। प्रेम में सर्वस्व न्यौछावर करने में हम नहीं हिचकते। प्रेम एक उदात्त व उदार जीवन-मूल्य है। जीवन-वास्तव है; कोरा काल्पनिक नहीं। माना नैतिक मूल्य सर्वकालिक-सर्वदेशीय नहीं होते। वे बदलते भी रहते हैं। लेकिन मनुष्य का पशु-धरातल पर उतर आना या उससे भे अधिक निकृष्ट बन जाना मानवता को स्वीकार्य नहीं। माना, पूर्व में ही नहीं, आज भी नैतिक गिरावट का बाज़ार गर्म है। शायद, वैज्ञानिक और प्राविधिक विकास के फलस्वरूप पूर्व से भी अधिक। प्रेम और वासना का द्वन्द्व कभी समाप्त होने वाला नहीं। पर, इस सारे माहौल को देख कर हार नहीं मानना है।

मेरे काव्य में जो प्रणय-स्वर हैं; वे स्वकीया या किसी काल्पनिक के प्रति हैं। उनकी अभिव्यक्ति संतुलित है। उनके भाव स्वस्थ हैं। प्रणय, समाज अर्थात्सामाजिक समस्याओं के प्रति हमें विमुख नहीं करता। वह नितान्त ऐकान्तिक नहीं होता। ऐसा प्रणय-भाव तो सुरा-प्रेमियों के रचना-कर्म में बहुतायत से देखने को मिलता है देश में; विदेश में। पत्नी या प्रेमिका बहुत बड़ी जीवन-शक्तिस होती है। वह मात्र विलासिनी नहीं।

चौथी प्रकार की कविताएँ प्रकृतिपरक हैं। मनुष्य स्वयं प्रकृति का एक हिस्सा है। माँ के गर्भ से बाहर आते ही; मनुष्य प्रकृति की गोद में पहुँच जाता है। प्रकाश, ताप, हवा, जल, ध्वनि, रंग आदि सबका परिज्ञान उसे होता है। प्रकृति उसे प्रभावित करती है। नाना वस्तुएँ वह देखता है। चाँद, तारे, उषा, वृक्ष, पौधे, घास, फूल, तितली, जुगुनू, वर्षा, आँधी-तूफ़ान, विद्युत, इंद्रधनुष, बीरबहूटी, नदी-नाले, पर्वत, पक्षी, जलचर आदि के साथ वह अपना जीवन जीता है। प्रकृति के मनोरम और भीषण दोनों प्रकार के दृश्यों का प्रभाव उसके तन-मन पर पड़ता है। अत: कविता में प्रकृति का अवतरित होना स्वाभाविक है। प्रकृति-काव्य की भले ही कोई उपयोगिता न हो; किन्तु वह हमारी सौन्दर्य-दृष्टि का परिचायक होता है। यह सौन्दर्य-दृष्टि मात्र मनुष्य के पास है; तथा जिसका वह चित्रण करना भी जानता है। कितने भी समुन्नत कैमरे बन जाएँ; कवि द्वारा उरेहे गये चित्रों से उनकी तुलना नहीं हो सकती। कवि के प्रकृति-चित्रण में मात्र प्रकृति नहीं होती; रचनाकार की अपनी सौन्दर्य-दृष्टि और अनुभूतियाँ भी होती हैं। ईश्वर की तरह वह भी प्रकृति-स्रष्टा होता है अक्षरों में; रंगों-रेखाओं में।

आपके काव्य का अब-तक जो मूल्यांकन हुआ है, उससे आप क्या संतुष्ट हैं?

आप जानते हैं, प्रारम्भ से ही, हम किसी साहित्यिक नेता की शरण में नहीं गये। जाते तो लोग जान ज़रूर जाते। इतने अनदेखे नहीं रहते। पर, हमने कभी किसी आधार को अपनाना नहीं चाहा। ख्याति के प्रति शुरू से ही लापरवाह रहे। कविता को कभी पेशा नहीं बनाया। जब चाहा; लिखा। साहित्य-जगत में पहचान भी कम रही। जीवन-भर यात्रा-भीरु बने रहे। मिलना-जुलना नहीं के बराबर रहा। मात्र पत्राचार द्वारा ही कुछ साहित्यिक मित्रों और पत्र-सम्पादकों से संबंध-सम्पर्क रहा। कवि-सम्मेलनों में भाग लेना; स्वभाव-विरुद्ध रहा। आकाशवाणी कवि-सम्मेलनों के आमंत्रण तक स्वीकार नहीं किये। आयोजकों को इससे आश्चर्य भी हुआ। पर, कारण कुछ नहीं मात्र स्वभाव और यात्रा-कष्ट से बचने की भावना। साहित्य में कुछ स्थान बन जाने के बाद कई दिग्गजों से सम्पर्क हुआ। लेकिन उनकी प्रकाशन-योजनाओं में शामिल होने की कभी इच्छा नहीं हुई। यदि कहीं जुड़ जाते तो कुछ अधिक लोग जान जाते; औरों की तरह लेखों-बहसों आदि में नामोल्लेख भी होता रहता। दूसरे, हमें नामी प्रकाशक भी नहीं मिले। नामी प्रकाशक प्रचार के बड़े कारगर माध्यम सिद्ध होते हैं। ऐसा हमने अब महसूस किया। उनके प्रयत्नों से आपकी कृतियाँ देश-भर में फैल जाती हैं। आज तो विदेशों तक में। उनके बँधे हुए समीक्षक और पत्र-सम्पादक होते हैं; जो समय पर समीक्षा लेखन-प्रकाशन का कार्य सम्पादित करते हैं। जिनकी कृतियाँ ऐसे प्रकाशकों ने छापीं उनमें से अधिकांश रातों-रात प्रसिद्ध हो गये! मानता हूँ, उनके लेखन में सार भी रहा होगा। पर, यह भी सच है, यदि उनकी कृतियाँ साधारण कोटि के प्रकाशकों ने छापी होतीं तो उन्हें इतनी जल्दी इतनी ख्याति नहीं मिल पाती। अधिकांश आलोचक स्थापित नामों को दुहराने और अपने को उन-तक सीमित रखने में ही अपने लेखन-कर्म की इति-श्री समझते हैं। हिन्दी का प्राध्यापक-समाज तो आश्चर्यजनक रूप से अनपढ़ देखने में आता है।

जहाँ-तक मेरी काव्य-कृतियों के प्रकाशन का प्रश्न रहा मुझे कभी दिक़्कत नहीं आयी। आस-पास के प्रकाशक सहज ही मिलते रहे। उन्होंने अपने सीमित प्रभाव-क्षेत्र में कुछ कृतियों के दो-दो संस्करण निकाले। रॉयलटी भी दी। भले ही अल्प। सरकारी थोक ख़रीद भी उनके प्रयत्नों से हुई। पर, यह सब एक सीमित क्षेत्र में। देश-व्यापी नहीं। विज्ञापन और प्रचार की उन्होंने कोई आवश्यकता नहीं समझी। जो छापा; आसानी से बिक गया। नतीज़ा यह हुआ कि मेरी कृतियाँ दूर-दराज़ के क्षेत्रों में नहीं पहुँच सकीं। प्रमुख विक्रय-केन्द्रों पर भी उपलब्ध नहीं रहीं। परिणामत: लोगों का ध्यान कम गया। आज भी यही स्थिति है। हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी (जिजीविषा), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (संवर्त), किताब महल, इलाहाबाद (जूझते हुए), आदि कुछेक नामी प्रकाशकों ने जो प्रकाशित किया; देश-भर के ग्रंथालयों में पहुँचा है।

जहाँ-तक मेरे काव्य-कर्तृत्व के मूल्यांकन का प्रश्न है; वह आश्चर्यजनक रूप से उपलब्ध है तथा उस पर विमर्श निरन्तर जारी है। लगभग दो-सौ, हिन्दी और अंग्रेज़ी के उच्च-स्तरीय लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचकों, साहित्येतिहासकारों, रचनाकारों ने जमकर सविस्तर लिखा है और आज भी किसी--किसी योजनान्तर्गत कार्य हो रहा है। हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्वतंत्र आलोचना-पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा अनेक सम्पादित आलोचना-कृतियाँ छ्पी हैं व तैयार की जा रही हैं। देश ने अनेक विश्वविद्यालयों में शोध हुआ है; हो रहा है ( हिन्दी और अंग्रेज़ी अध्ययन-पीठों में)। स्नातकोत्तर और एम.फ़िल. के शोध-प्रबन्ध जब-तब लिखे जाते रहे हैं। सात शोधार्थियों को मेरे साहित्य पर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त हो चुकी है तथा इतने ही शोधरत हैं। अंग्रेज़ी में भी पी-एच. डी. उपाधि-हेतु श्री. रामचंद्रन कार्तिकेयन ‘मदुरई कामराज विश्वविद्यालय(तमिळनाडु) में पंजीकृत हैं। पी-एच. डी. वाले तीन शोध-प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं अन्य प्रकाशनाधीन हैं। आधुनिक हिन्दी कविता पर विशेष रूप से छायावादोत्तर कविता और प्रागतिवादी-जनवादी कविता पर लिखे जाने वाले सैकड़ों शोध-प्रबन्धों में मेरे कर्तृत्व की चर्चा है; उसका महत्त्व-निर्धारण है। इस सबसे मैं संतुष्ट हूँ। कुछ आलोचकों ने मेरी कविता की स्वस्थ आलोचना की है; कुछ ने कठोर। दुर्भावना-मुक्त किसी भी प्रकार की कठोर आलोचना का स्वागत है। आलोचना में तटस्थता-निष्पक्षता तो रहनी ही चाहिए। लेकिन कुछ लोग जब दुर्भावनावश फ़तवे देने लगते हैं तो उनकी भ्रष्ट बुद्धि पर तरस आता है। हमारा काम तो रचना करना है; प्रशंसा और तिरस्कार से प्रभावित हुए बिना। जिस तरह मधुमक्खी का काम शहद-संचयन है। बस। हमारे रचना-कर्म में बाधा डालने का अधिकार किसी को नहीं है।

आपकी काव्य-कृतियों के अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हैं। इतना यश बिरले कवियों को प्राप्त है। इसका राज़ क्या है?

मेरी कविताओं के विदेशी भाषाओं में अनुवाद होंगे; ऐसा कभी सोचा-तक न था। एक दिन अचानक प्राहा विश्वविद्यालय (चेकोस्लोवेकिया) के हिन्दी-प्रोफ़ेसर और हिन्दी-कवि डा. ओडोलन स्मेकल (बाद में, भारत में चेक-राजदूत) का पत्र मिला कि वे मेरी कविताओं के चेक भाषा में अनुवाद करना चाहते हैं। उन्होंने मेरी अनेक कविताओं के चेक में अनुवाद किये। कुछ चेक-पत्रिका Novy Orient में छ्पे। इसके एकाधिक अंक आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। एक कविता का अनुवाद (काटो धान) चेक-रेडियो से प्रसारित भी हुआ। (द्रष्टव्य डा. स्मेकल का पत्र : समग्र खंड ६)। हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक (साइक्लोस्टाइल्ड) में भी मेरी कविता का अंश सम्मिलित किया गया।

तदुपरांत अंग्रेज़ी में काव्यानुवादों का क्रम शुरू हुआ; जो अविच्छिन्न रूप से चल रहा है। अंग्रेज़ी में ग्यारह कविता-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। अंग्रेज़ी-अनुवाद-प्रारूपों को अंतिम रूप मैंने ही प्रदान किया है। अनेक कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवाद स्वयं मैने किये हैं। सर्व-प्रथम ये अंग्रेज़ी-अनुवाद, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस के अंग्रेज़ी-प्रोफ़ेसर डा. रामअवध द्विवेदी ने, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से अपने सम्पादन में प्रकाशित होने वाली अंग्रेज़ी-पत्रिका हिन्दी रिव्यू में प्रकाशित किये। इधर, भारत में प्रकाशित होने वाली अधिकांश अंग्रेज़ी-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। Indian English Poetry में उनका उल्लेख किया जाता है। मेरे अंग्रेज़ी काव्य-कर्तृत्व पर अंग्रेज़ी में तीन आलोचना-पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। विश्वविद्यालयों में, अंग्रेज़ी में भी, शोध-कार्य प्रगति पर है। इंटरनेट पर अंग्रेज़ी की अनेक वेबसाइट्स पर मेरी ये कविताएँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। पृथक से उनके ब्लॉग भी हैं।

अंग्रेज़ी के बाद, १०८ कविताओं के फ्रेंच-अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित हुए 'A Modern Indian Poet : Dr. Mahendra Bhatnagar : UN POÈTE INDIEN ET MODERNE'. अनुवाद बर्दवान विश्वविद्यालय (पश्चिमी बंगाल) की फ्रेंच-प्रोफ़ेसर श्रीमती पूर्णिमा राय ने किये। ये फ्रेंच-काव्यानुवाद भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।

जापान से प्रकाशित होने वाली द्वि-भाषिक (जापानी और फ्रेंच में) पत्रिका ‘Gendaishi Kenkyu’ में सम्पादक Mr. Seiji Hino मेरी कविताएँ भी जापानी-अनुवाद के साथ प्रकाशित करते रहे हैं।

नेपाली में भी इक्केदुक्के अनुवाद हुए हैं। भाषा में प्रकाशित हैं। उर्दू-अनुवादों की पुस्तक एक बेहतर दुनिया के लिए प्रकाशनाधीन है। अनुवादक श्री. ईशाक तबीब’ (बदाऊँ / .प्र.) सिंधी में अनुवाद श्री. बलवाणी ने किये हैं। भाषा में प्रकाशित हैं।

अधिकांश भारतीय भाषाओं में काव्यानुवाद प्रकाशित हैं। यथा बाँग्ला, ओड़िया, तमिळ, तेलुगु, कन्नड़, मळयालम, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में। बाँग्ला, कन्नड़, मराठी, तमिळ में पुस्तकाकार भी निकले हैं। मृत्यु-बोध : जीवन-बोध कृति का बाँग्ला और कन्नड़ में अनुवाद क्रमश: श्रीमती पूर्णिमा राय (बर्दवान : . बंगाल) और श्रीमती बी. टी. शशिकला (मैसूर) ने किया है। तमिळ में दो संकलन प्रकाशित हैं () Kaalan Maarum’. (अनुवादक Essarci) () ‘Mahendra Bhatnagar Kavithaigal’. (अनुवादक श्री. K. R. जमदग्नि & Dr. P. Jairaman)। तेलुगु में एक संकलन प्रकाशित है — Deepanni Veliginchu’. (अनुवादिका श्रीमती पारनन्दी निर्मला) मराठी में अधिकांश अनुवाद शान्तिनिकेतन के मराठी-प्रोफ़ेसर डा. . चि. जोगळेकर जी ने किये हैं; जो पुस्तकाकार प्रकाशित हैं संकल्प आणि अन्य कविता। कवयित्री श्रीमती मृणालिनी घुले (ग्वालियर) और कवयित्री डा. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर विश्वविद्यालय) द्वारा किये गये अनुवाद भी प्रकाशित होते रहे हैं। भारतीय भाषाओं में किये गये काव्यानुवाद, इन भाषाओं की पत्रिकाओं के अतिरिक्त, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की द्वि-मासिक पत्रिका भाषा में निरन्तर प्रकाशित हो रहे हैं।

काव्यानुवाद बड़ा कठिन और श्रमसाध्य कर्म है। अनुवादक एक प्रकार से अनुगायक होता है। अन्त:प्रेरणा ही अनुवादक को अनुवाद करने के लिए प्रेरित करती है। कविताएँ जब अनुवादक को अपील करती हैं तभी वह उनका अनुवाद करने में प्रवृत्त होता है।

चौरासी-वर्षीय महेंद्रभटनागर की जीवन-दृष्टि क्या है?

जीवन जैसा जी सके; जीया। जीना है तो प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। जीवन में अनुकूल कम; प्रतिकूल अधिक रहता है। राज्य, समाज, परिवार से सदैव द्वन्द्व की स्थिति बनी रहती है। सहायक कम; बाधक अधिक। इसीलिए स्वावलम्बन को महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य माना गया है। हर व्यक्ति को अपने दम-ख़म पर ही जीना है। माना जीवन में बहुत-कुछ आकस्मिक घटित होता है; किन्तु स्व-विवेक से जीवन को सुनियोजित बनाने की चेष्टा भी मनुष्य करता ही है। हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी आस्थाएँ, हमारे विचारणाएँ, हमारे अनुभव जीवन-भविष्य को बनाने- सँवारने का उपक्रम करते हैं भले ही, हम इच्छानुकूल जी न सकें। बस, इसी कश--कश का नाम जीवन है। कोई असामयिक; तो कोई दीर्घायु में महाप्रस्थान करता ही है।

आज ८४ वर्ष की उम्र में, जब सिंहावलोकन करता हूँ तो अतीत के मधुर और तिक्त द्रश्य चलचित्र के समान, बंद आँखों के सामने से गुज़रने लगते हैं। अफ़सोस, ऐसे अग्रज जिन्होंने चाहा, सहयोग किया आज जीवित नहीं हैं। अधिकांश आत्मीय समवयस्क भी साथ छोड़ गये। यहाँ तक कि अनेक प्रिय अनुज भी साथ नहीं रहे। अत: एकाकीपन की अनुभूति होना स्वाभाविक है। मुझे महेंद्र नाम से अब कौन पुकारे! एक अपरिचित नाम भटनागर जी सुनायी देता है। मेरा नाम महेंद्रभटनागर या महेंद्र है; भटनागर जी नहीं। भटनागर जी से तात्पर्य क्या? कार्यस्थों में भटनागर होते हैं माथुर, श्रीवास्तव, सक्सेना आदि की तरह। इनसे किसी की पहचान नहीं बनती। एकाकीपन महसूस न हो; इसलिए नयी पीढ़ी से जुड़ना अच्छा लगता है। वृद्धावस्था में बालक बनने की भावना जाग्रत होती है। किन्तु नयी पीढ़ी और बाल-वृंद में आपके प्रति कोई दिलचस्पी नहीं होती सम्मान-भाव भले ही हो। हर कोई अपने विकास में व्यस्त है; जो स्वाभाविक है। आपका बोझ ढोने के लिए किसी को फ़ुर्सत नहीं। यदि यह दृष्टि आपके पास है तो वृद्धावस्था में एकाकीपन को भी संतोष और हर्षोल्लास के साथ जीया जा सकता है।

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Dr. Mahendra Bhatnagar,

110 BalwantNagar, Gandhi Road, GWALIOR — 474 002 [M.P.]

E-mail : drmahendra02@gmail.com

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Dr. Aditya Prachandia,

Prof. Hindi, Dayalbaag Educational Institute (Deemed University),

DAYALBAAG, AGRA (U.P.)