मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कवि महेंद्रभटनागर


कवि महेंद्रभटनागर
  — डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

हिंदी साहित्येतिहास में कवि महेंद्रभटनागर की पहचान प्रगतिशील काव्य-धारा और गीति-रचना के अन्तर्गत स्पष्ट बन चुकी है। वे एक स्थापित कवि हैं स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता के यशस्वी हस्ताक्षर। उन्हें प्रगतिवादी काव्य-धारा के द्वितीय उत्थान का केन्द्रीय कवि माना जाता है। सन् 1946 के आसपास उन्होंने हंसमें लिखना प्रारम्भ किया। हंससे उन्हें प्रगतिशील कविता की पहचान मिली। हंसएवं अन्य तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रमुखता से प्रकाशित हुए। यथा —‘जनवाणी’, ‘रक्ताभ’, ‘नया साहित्य’, ‘नया पथ’, ‘जनयुगआदि तमाम पत्र-पत्रिकाओं में। महेंद्रभटनागर की प्रांजल काव्य-सृष्टि ने तत्कालीन लब्ध-प्रतिष्ठ कवियों और समालोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। उनकी काव्य-सृष्टि के विविध पक्षों पर पर्याप्त विमर्श हुआ है; जो अनेक सम्पादित आलोचना-कृतियों में उपलब्ध है। हिंदी के कवि और आलोचकों ने महेंद्रभटनागर की कविता पर जो विचार व मन्तव्य प्रकट किये वे विचारोत्तेजक हैं। इनसे उनकी लोकप्रियता का बोध ही नहीं होता; वे गहन व विस्तृत परीक्षण के लिए भी अन्वेषकों और प्रबुद्ध पाठकों को उकसाते हैं। कतिपय कवियों-आलोचकों की धारणाओं को यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है।
          महेंद्रभटनागर की प्रथम काव्य-कृति टूटती शृंखलाएँसन् 1949 में प्रकाशित हुई। इस कृति पर यशस्वी कवि डा. शिवमंगल सिंह सुमनका कथन महत्त्व रखता है। सुमनजी ने लिखा:
          ‘‘युग की अस्त-व्यस्त मानसिक दशा तथा अप्रतिहत संघर्ष की जागरूक वाणी के उन्मेषशील स्वर इसकी झंकार में समाहित हैं। महेंद्रभटनागर की आतुर निर्भीक व्यंजना तथा कलात्मक गढ़न, प्रगतिशील काव्य के स्वर्णिम भविष्य की ओर संकेत करती है। कवि में जन-संस्कृति के नव-निर्माण की जो अदम्य आस्था है, वह उसके स्वर को और सबल तथा साधनापरक बनाती है। हिंदी के वर्तमान कवियों में उसने सहज ही गौरवपूर्ण स्थान बना लिया है। युग की वाणी उसके कंठ में ढलकर जन-जीवन के अश्रु-हास की सजीव गाथा बन गयी है। टूटती शृंखलाएँसंक्रमण-युग के युगान्तरकारी काव्य की भूमिका बनकर आयी है और निःसंदेह भावी समाज के अधिकांश भावात्मक उपकरण उसमें अंकुर रूप में देखे जा सकते हैं।’’
          ‘टूटती शृंखलाएँपर लिखित श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध की समीक्षा भी अपने में विशिष्ट है; जिसमें उनके कविता-कर्म को सप्तक-कवियों के समकक्ष रखने की ध्वनि निहित है:
          ‘‘तरुण कवि वर्तमान युग के कष्ट, अंधकार, बाधाएँ, संघर्ष, प्रेरणा और विश्वास लेकर जन्मा है। उसके अनुरूप उसकी काव्य-शैली भी आधुनिक है। इस तरह वह तार-सप्तकके कवियों की परम्परा में आता है;  जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी-काव्य की छायावादी प्रणाली को त्याग कर नवीन भावधारा के साथ-साथ नवीन अभिव्यक्ति शैली को स्वीकृत किया है। इस शैली की यह विशेषता है कि नवीन विषयों को लेने के साथ-साथ नवीन उपकरणों को और नवीन उपमाओं को भी लिया जाता है तथा काव्य को हमारे यथार्थ जीवन से संबंधित कर दिया जाता है। इसे हम वस्तुवादी मनोवैज्ञानिक काव्य कह सकते हैं। इस अत्याधुनिक के समीप और उसका भाग बनकर रहते हुए भी कवि की अभिव्यक्ति शैली में दुरूहता नहीं आ पायी। भाषा में रवानी, मुक्त छंदों का गीतात्मक वेग और अभिव्यक्ति की सरलता, काव्य-शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाय तो माधुर्य और प्रसाद गुण महेन्द्रभटनागर की उत्तरकालीन कविताओं की विशेषता है। किन्तु सबसे बड़ी बात यह है, जो उन्हें पिटे-पिटाये रोमाण्टिक काव्य-पथ से अलग करती है और तार-सप्तकके कवियों से जा मिलाती है वह यह है कि अत्याधुनिक भावधारा के साथ टेकनीक और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका उत्तरकालीन काव्य Modernistic या अत्याधुनिकतावादी हो जाता है। उसका प्रभाव हृदय पर स्थायी रूप से पड़ जाता है। श्री महेन्द्र भटनागर वर्तमान युग-चेतना की उपज हैं।’’
          सन् 1953 में महेंद्रभटनागर की अन्य काव्य-कृति बदलता युगप्रकाश में आयी; जिसकी भूमिका प्रोफ़ेसर प्रकाशचंद्र गुप्त ने लिखी। इस कृति को लक्ष्य करते हुए डा. रामविलास शर्मा ने अपना अति महत्त्वपूर्ण अभिमत अंकित किया:
          कवि महेन्द्रभटनागर की सरल, सीधी ईमानदारी और सचाई पाठक को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती है। प्रयोग के लिए प्रयोग न करके, अपने को धोखा न देकर और संसार से उदासीन होकर संसार को ठगने की कोशिश न करके इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी ज़िन्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।
          महेन्द्रभटनागर की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है, उनमें नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का अवसाद भी है। इसी लिए कविताओं की सचाई इतनी आकर्षक है। यह कवि एक समूची पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो बाधाओं और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का निर्माण कर रहा है।
          महेन्द्रभटनागर की कविता सामयिकता में डूबी हुई है। वह एक ऐसी जागरूक सहृदयता का परिचय देते हैं जो अशिव और असुन्दर के दर्शन से सिहर उठती है तो जीवन की नयी कोंपलें फूटते देख कर उल्लसित भी हो उठती है।
          कवि के पास अपने भावों के लिये शब्द हैं, छंद हैं, अलंकार हैं। उसके विकास की दिशा यथार्थ जीवन का चितेरा बनने की ओर है। साम्प्रदायिक द्वेष, शासक वर्ग के दमन, जनता के शोक और क्षोभ के बीच सुन पड़ने वाली कवि की इस वाणी का स्वागत
            ‘जो गिरती दीवारों पर नूतन जग का सृजन करे
                       वह जनवाणी  है !
                       वह युगवाणी है !
          ‘नयी चेतना’ (प्रकाशन सन् 1956) और जिजीविषा’ (प्रकाशन सन् 1960) महेंद्रभटनागर की प्रमुख प्रगतिवादी काव्य-रचनाएँ हैं। प्रगतिशील कविता का अध्ययन इन कृतियों के विवेचन बिना अपूर्ण है।
          आधुनिक साहित्य के विशिष्ट अध्येता विद्वान प्रो. सुरेंद्र चौधरी ने महेंद्रभटनागर की कविता के प्रति जिस तुलनात्मक दृष्टि को उजागर किया; वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है:
          ‘‘वर्त्तवाल और महेंद्रभटनागर एक ही दशक के दो महत्त्वपूर्ण कवि हुए। इसी समय उर्दू में प्रसिद्ध प्रोग्रेसिव शायर साहिर भी उभरे। इनका मिला-जुला अध्ययन काफ़ी रोचक रहेगा। यह लोक-व्यापी आन्दोलन, अपने समय का सबसे गतिशील अभिव्यक्ति था।’’
          खेद है, सुरेंद्र चौधरी जी के निधन के कारण, महेंद्रभटनागर की कविता पर  जो वे लिखना चाहते थे; वह पूर्ण नहीं कर सके। उनके विचार प्रकाश में नहीं आ सके। लेकिन वे महेंद्रभटनागर की कविता के अध्ययन व मूल्यांकन के प्रति एक विशेष दृष्टि ज़रूर दे गये; जिस पर समुचित अन्वेषण अपेक्षित है।
          महेंद्रभटनागर ने अंगरेज़ी में जो काव्य-रचना की है (उनकी पर्याप्त कविताएँ अंगरेज़ी में अनूदित भी हैं।); उस पर भी बहुत-कुछ लिखा गया है; जो कई ज़िल्दों में प्रकाशित है। डा. विद्यानिवास मिश्र ने उनकी कृति ‘Forty Poems’ (प्रकाशन सन् 1968) की भूमिका में जो लिखा वह यहाँ अविकल रूप में उद्धृत है:
"The thing which strikes foremost is the note of blazing optimism coming out of these poems, be they songs of love, songs of future of man or songs of the advent of a new era ushered in by the common man all over the world. Though unfortunately I cannot share this optimism, I am deeply moved by the vigour with which it has been projected by the poet. Mahendra Bhatnagar is Browning, Shelley and Maykovsky welded into one, he is a visionary, he is a comrade-in-arms and he is an architect. His ‘Man fired with faith divine moves on’ because he is firm in his conviction that ‘one day the heart-rose shall bloom in the midst of impediments galore.’ He seeks strength from ‘the firmament’ which ‘has changed its colour’ and from the wind’ which is always ‘humming a tune’, from the ‘gracious mother earth’ which is blessing man with a life - ‘long and happy’.
     He sings of youth in a new vein, youth for him is not a passing phase, it is something ‘which endures’. To him woman no more bears ‘frailty’ as her other name, she is no longer ‘a source of pleasure and pastime’. In this emancipated woman he has found a companion. He is ‘never alone’, ‘the resurgent age is with him’, the future is driving him on. These are a few pieces which reflect the inner struggle between this optimism and disillusionment, but they are subdued by the dominating voice of hope. Such a sincere optimism is a rare quality and deserves full applause; more so, when we have the perspective of a sad and sick man of today.
             The poet has a very sensitive ear for cadences and knows how to use them. His diction is chaste though racy, transparent and yet colourful, his imagery drawn partly from common-place of life and partly from poetic conventions, is simple and effective, it is not pretentious, as the so called modern imagery is and is the most suited instrument for the content.
            I envy the impetuosity of Mahendra Bhatnagar and at the same time I admire his patience (‘the wall won’t collapse’) and his courage. If at times he is carried away by his creed, it only shows his zeal and not his weakness. If at times, he looks utterly lost in 'the masses idea', it only shows his devotion to the cause and not his lack of  personality. If at times he turns a romantic visionary, it is an indicator of his fiery youth and not of his blindness to reality."
                   कहना न होगा, महेंद्रभटनागर की कविता ने काव्य-मर्मज्ञों का ध्यान निरन्तर आकर्षित किया है।
          लब्ध-प्रतिष्ठ जनवादी आलोचक डा. शिवकुमार मिश्र ने अपना मत इन शब्दों में अंकित किया:
          ‘‘महेंद्रभटनागर की कविता की, शुरूआती दौर से ही, यह विशेषता रही है कि कविताओं में भोगे और अर्जित किये हुए अनुभव-संवेदनों को ही उन्होंने तरज़ीह दी है। किताबी, आयातित या उधार लिया हुआ, उसमें लगभग कुछ भी नहीं है, न रहा है। इसी नाते उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय भी है और सहज तथा प्रकृत भी। प्रगतिशील आन्दोलन के शुरूआती दौर में जो उफ़ान और आवेग, जो Loudness कविता में थी, उनकी कविता में उसकी अनुगूँजें नहीं आयीं। न तो वे  पहले Loud थे और न ही आज हैं। रचनाधर्मी प्रयोग  भी उसमें नहीं हैं। वह सीधी और सहज कविता है, फिर भी सपाट और सतही नहीं। चूँकि वह अनुभव-प्रसूत है अतएव उसमें शिल्प के बजाय बात बोली है सारगर्भित बात, जिसे किसी भंगिमा की दरकार नहीं, जो अपने कथ्य और उससे जुड़ी संवेदना के बल पर पढ़ने वाले के दिल-दिमाग़ में उतर जाती है। उसकी विशेषता उसकी प्रशांति तथा प्रांजलता है। कुल मिलाकर, महेंद्रभटनागर की कविता धरती और जीवन के प्रति अकुंठ राग की कविता है। वह मानव-जिजीविषा की कविता है, जो मरना नहीं जानती।’’ 
          जब कि डा. रवि रंजन (केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद) ने रेखांकित किया:
          महेंद्रभटनागर लगभग बीसवीं सदी के मध्य से ही हिंदी काव्य-परिदृश्य पर अपनी रचनात्मक शक्ति एवं सीमा के साथ कमोबेश चर्चा में रहे हैं। ... अन्तर्वस्तु की दृष्टि से महेंद्रभटनागर की कविताएँ वैविध्य पूर्ण हैं। उनमें यथास्थिति के विरुद्ध गहरा आक्रोश मौजूद है। तटस्थता की ऐयाशी के बजाय वहाँ एक ख़ास क़िस्म की रचनात्मक बेचैनी मिलती है, जिसके तहत कवि अपने समय और सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को उसके दिनानुदिन तीव्रतर होते जा रहे अन्तर्विरोधों एवं संघर्ष को वाणी देता रहा है। इस दरमयान हर कविता का अपने परिवेश के तमाम अन्तर्विरोधों एवं संघर्षों से पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो गया हो, यह ज़रूरी नहीं है, पर महेंद्रभटनागर के रचना-संसार पर मुकम्मल तौर से नज़र दौड़ाने पर उनके अन्तःकरण के व्यापक आयतन का पता चलता है, जिसे कतई भुलाया या झुठलाया नहीं जा सकता। ... जहाँ तक उनकी काव्य-भाषा का ताल्लुक है, हम पाते हैं कि कवि ने संस्कृत और अंगरेज़ी के तमाम आरोपित प्रभावों से मुक्त करके उसके सरल और देसी रूप को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। दूसरे शब्दों में कहें तो बोलचाल का लहज़ा एवं व्यवहार ही वस्तुतः उनकी कविताओं की भाषिक संरचना का एकमात्र आधार है। इसके चलते यदि उनकी काव्य-भाषा तत्सम से तद्भव की ओर उन्मुख हुई है, तो यह स्वाभाविक ही है। कारण यह है कि तद्भवीकरण हिंदी के मिज़ाज में है, जो इसके जनभाषा होने का सबूत भी है। सच तो यह है कि  उनकी  कविता में  रचना-विशेष की  नैसर्गिक आकांक्षा  के अनुरूप विविध भाषिक प्रयोगों के नमूने मिलते हैं और यह एक कवि की अनुभूति की व्यापकता एवं गहराई का परिचायक है। ... समग्रतः यह कहा सकता है कि महेंद्रभटनागर की कविता बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की तमाम प्रगतिशील सांस्कृतिक चिंतन सरणियों एवं कलात्मक तकनीकों का वरण करने के बावज़ूद आदि से अंत तक कविता बनी रहती है, कोरा भावोच्छ्वास या नारा नहीं। ... उसकी कविता में एक संवेदनशील कवि की वैचारिकता एवं  विचारक की संवेदनशीलता के बीच उत्पन्न सर्जनात्मक तनाव विद्यमान है। .. विष्णु नागर की एक काव्य-पंक्ति उधार लेकर कहें तो कवि महेंद्रभटनागर की कविता ऐसी अच्छी कविताहै, जो न केवल सबसे अच्छे दिनों में याद आएगी’, बल्कि वह सबसे बुरे दिनों में भी पहचानी जाएगी।
          डा. देवराज (मणिपुर विश्वविद्यालय) ने महेंद्रभटनागर की कविता के मर्म को समझा है और उनकी विचार-धारा का सही विश्लेषण किया है:
          ‘‘प्रगतिवादी-जनवादी कविता के यशस्वी हस्ताक्षर हैं महेंद्रभटनागर। उनका काव्य-रचना-कर्म सन् 1941 से प्रारम्भ हुआ; जो अनवरत रूप से गतिमान है। महेंद्रभटनागर ने कम लिखा; किन्तु जितना लिखा विशिष्ट व उत्कृष्ट लिखा। परिमाण में उनकी कविताएँ लगभग एक-हज़ार होंगी; जो उनके बीस काव्य-संकलनों में समाविष्ट हैं।
          महेंद्रभटनागर की विचारधारा वाम है; किन्तु वह आरोपित नहीं। वह जीवन-अनुभवों की उपज है। समाजार्थिक यथार्थ उनका प्रमुख सरोकार है; किन्तु व्यक्ति-यथार्थ की अभिव्यक्ति भी उन्होंने निःसंकोच की है; जिसमें उल्लास है तो दर्द भी। गहन वेदना के नीले तन्तु से उनके काव्य के आवेष्टित होने के फलस्वरूप उन्हें जीवन-त्रासदी का कवि भी घोषित किया गया है।
          महेंद्रभटनागर व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर हैं। नये इंसान की अवतारणा के लिए सतत प्रयत्नरत। उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध। यही कारण है, गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी और विवेकानन्द के वैयक्तिक आचरण से वे अत्यधिक प्रभावित हैं। स्वतंत्र चिन्तन उन्हें किसी वादमें बँधने नहीं देता।
          महेंद्र जी की काव्य-कला-सौष्ठव संबंधी विशेषताएँ हैं: प्रसन्न-प्रांजल अभिव्यक्ति, सहज भाषा-प्रवाह, अभिनव मात्रिक छंदों व प्रचलित चिर-पहचानी तुकों (आन्तरिक भी) से सज्ज, लय व संगीति धर्मी प्रभावी गूँजों-अनुगूँजों से परिपूर्ण।’’
           द्वि-भाषिक कवि ( हिन्दी और अंग्रेज़ी) महेंद्रभटनागर की काव्य-विशेषताएँ सूत्र रूप में प्रस्तुत हैं:
‘‘सन् 1941 के लगभग अंत से काव्य-रचना आरम्भ। तब कवि (पन्द्रह-वर्षीय ) विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियरमें इंटरमीडिएट (प्रथम वर्ष) का छात्र था। सम्भवतः प्रथम कविता सुख-दुखहै; जो वार्षिक पत्रिका विक्टोरिया कॉलेज मेगज़ीनके किसी अंक में छपी थी। वस्तुतः प्रथम प्रकाशित कविता हुंकारहै; जो विशाल भारत’ (कलकत्ता) के मार्च 1944 के अंक में प्रकाशित हुई।
लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्राता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्रयोत्तर।
हिन्दी की तत्कालीन तीनों काव्य-धाराओं से सम्पृक्त राष्ट्रीय काव्य-धारा, उत्तर छायावादी गीति-काव्य, प्रगतिवादी कविता।
समाजार्थिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार।
सन् 1946 से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध । हंस’ (बनारस / इलाहाबाद) में कविताओं का प्रकाशन। तदुपरांत अन्य जनवादी-वाम पत्रिकाओं में भी। प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर।
सन् 1949 से काव्य-कृतियों का क्रमशः प्रकाशन।
प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित।
समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त अन्य प्रमुख काव्य-विषय –— प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन।
दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
काव्य-शिल्प के प्रति विशेष रूप से जागरूक।
छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में काव्य-सृष्टि। छंद-मुक्त गद्यात्मक कविता अत्यल्प। मुक्त-छंद की रचनाएँ भी मात्रिक छंदों से अनुशासित।
काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों के अतिरिक्त तद्भव व देशज शब्दों एवं अरबी-फ़ारसी (उर्दू), अंग्रेज़ी आदि के प्रचलित शब्दों का प्रचुर प्रयोग।
सर्वत्र प्रांजल अभिव्यक्ति। लक्षणा-व्यंजना भी दुरूह नहीं। सहज काव्य के पुरस्कर्ता। सीमित प्रसंग-गर्भत्व।
विचारों-भावों को प्रधानता।
कविता की अन्तर्वस्तु के प्रति सजग।’’
           महेंद्रभटनागर-विरचित  समाजार्थिक यथार्थ की कविताओं से उनके सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को समझा जा सकता है। आशा है, सुधी समीक्षक महेंद्रभटनागर की कविता का मूल्यांकन  कवि-विकास  और ऐतिहासिक  परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर करेंगे।
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रीडर : हिंदी-विभाग,
डॉ. शकुन्तला मिश्रा पुनर्वास विश्वविद्यालय, लखनऊ (उ. प्र.)
फ़ोन : 94 159 24 888


गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

मेरे आत्मीय डॉ. कुमार विमल

मेरे आत्मीय डॉ. कुमार विमल Hindi literature Magazine : Srijangatha http://www.srijangatha.com/Sansmaran1Dec2011#.TteqLkntfeU.email

From Mahendra Bhatnagar
drmahendra02@gmail.com

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भुवनेश्‍वर की अंग्रेजी कविता 'शुक्राणु का रोमांस'

कवि, एकांकीकार, कथाकार और अपने समय की विराट प्रतिभा भुवनेश्‍वर ने हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी कुछ कविताएं लिखी थीं। 5 अगस्‍त, 1936 को लिखी गई कविता Romance of Spermetozoa अर्थात 'शुक्राणु का रोमांस' अपनी तरह की अनुपम कविता है। करीब 75 साल पहले लिखी गई इस कविता में कितनी गहरी वैज्ञानिक चेतना है, यह इसे पढ़कर महसूस किया जा सकता है। इस कविता का पहला अनुवाद भुवनेश्‍वर के मित्र और कवि-कथाकार रमेश बख्‍शी ने किया था। अपने समय की भाषिक जरूरत के मुताबिक मैंने इसका फिर से अनुवाद किया है।


ठीक दुर्गद्वार पर ही
लड़े योद्धा
ठीक दुर्गद्वार पर ही
जिसे कहते हैं अंडाणु
उसकी हुई अंतहीन लड़ाई
शुक्राणुओं के साथ

बेखबर, प्रेमांध, घायल, परेशान और थकान से चूर
एक पुरुष और एक स्‍त्री के बाजू
जकड़ गए वहशत में
पसीने में लथपथ, डूबते-उतराते एक दूसरे में
मरने की हद तक समाहित होते हुए
और ठीक दरवाजे पर
चल रहा था एक युद्ध
जहां मौत-सी खामोशी थी
और खामोश थी मौत

तभी निकल कर आया विजेता
उस दिन का शूरवीर सूरमा
दाखिल हुआ उस दुर्ग में वह
जिसे कहते हैं डिंब

उसने उस स्‍त्री का आंखों में आंखें डालकर देखा
स्‍त्री जिसे उसने प्रेम किया
स्‍त्री जिसे उसने जीता
और फिर स्‍त्री-पुरुष दोनों
धीरे-धीरे शांत होते चले गए

और फिर कुदरत की वह प्रयोगशाला झनझना उठी
और कांपती चली गई
और समय का पहिया भी
घड़घड़ाहट के साथ घूमता चला गया

हे निढ़ाल आदमी
निराशा के शिकार मनुष्‍य
हिम्‍मत और हौंसले के अपने हाथ खोलो
उस विजेता शूरवीर सूरमा के लिए
जो गौरवान्वित है कामदेव-सा
और अब भी है तुम्‍हारे ही पक्ष में

वही शूरवीर योद्धा लड़ा था
वही सूरमा विजयी हुआ था
वही विजेता
हमारा जन्‍मदाता है।

बुधवार, 28 सितंबर 2011

जनप्रतिबद्ध भावनाओं की विचारशील कविताएँ

इंदौर। प्रगतिशील  लेखक संघ  व जनवादी  लेखक संघ की इंदौर इकायों  ने 25 सितंबर 2011 रविवार को देवी अहिल्या केन्द्रीय लायब्ररी के अध्ययन कक्ष में कवि श्री अनंत श्रोत्रिय के रचना पाठ का आयोजन किया। श्री अनंत श्रोत्रिय ट्रेड युनियन व कर्मचारी संगठनों से जुड़े रहे हैं। वे  प्रगतिशील विचाराधारा के प्रतिबद्ध कवि हैं और फिलहाल प्रगतिशील  लेखक संघ   की इंदौर इकाई के अध्यक्ष हैं। हाल ही में साहित्यक पत्रिका राग भोपाली ने अनंत श्रोत्रिय के रचनाकर्म पर एकाग्र एक अंक निकाला  है। श्री श्रोत्रिय ने "पूरब का सूरज" कविता सुनाकर कार्यक्रम की शुरुआत की।

उठेंगे कदम, जूझेंगे हम
साथ जूझता होगा जनजन
हाथ उठा मुट्ठी तानी
ताल मिली गरजा जनजन
उन्नीस सौ बयालीस, आर.एन.आय. का रिवोल्ट
उद्वेलित करते, गरजा जनजन
हुंकार भरता नभ, बना प्रेरणा
बढाओ कदम
पूरब में सूरज बिखेरे  लाली
उड़ावे गुलाल यही तो सपना
दिन विहँसा किरणें विकीर्ण
जनजन में जागी खुशियां.

उनके बाद प्रदीप मिश्र, विनीत तिवारी और प्रांजल श्रोत्रिय ने श्री अनंत श्रोत्रिय की चुनी हुई कविताओं का पाठ किया। पोस्टर, यह रास्ते, सर्वोदय, प्रामाणिक ज्ञान आदि कविताओं को काफी सराहना मिली। वरिष्ठ कथाकार श्री सनत कुमार ने श्री श्रोत्रिय के मालवी लेखन और गद्य लेखन पर अपना वक्तव्य केन्द्रित करते हुए कहा कि १९५० के दशक के शुरुआती वर्षों में श्री अनंत श्रोत्रिय का एक आलेख महाकवि निराला पर आया था और उसने मालवा के पाठकों को निराला से परिचित करवाया था. वह बहुत अच्छा आलेख था जिसमें साहित्य के वैज्ञानिक आधारों पर निराला की कविता का विवेचन किया गया था. उन्होंने ये भी कहा कि श्री श्रोत्रिय की कविता अवधारणात्मक वृत्ति  की प्रकृतिमूलक कविता है.   द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसी जटिल अवधारणा को भी उनहोंने कविता में पिरोया है।


हमारा अस्तित्व भी एक प्रश्न चिन्ह फिर क्यों कर यह सब वाद-विवाद,
जब सब कुछ है असत्य, अस्तित्वहीन तो यह माथापच्ची क्यों कर?

उन्होंने मालवी  जीवन के सुख-दु:ख, आशा-निराशा को बिना  लाउड हुए अभिव्यक्त किया है। उन्होंने मालवा  के जनकवियों के मूल्यांकन का महत्त्वपूर्ण काम किया है। उनके साथ मालवा के प्रगतिशील कवियों की एक पूरी परंपरा है जिनमें मान सिंह राही, रंजन,  प्राण गुप्त  और मजनू इंदौरी के नाम प्रमुख हैं. उनकी विरासत का सही मूल्यांकन होना अभी बाकी है। यह यात्रा मालवा में 60 वर्ष से विकसित हो रही है। श्रोत्रियजी की कविताओं में  प्रकृति  के रम्य चित्र हैं।

पानड़ा झर-झर झरी रिया
आमवा में लाग्या मोर
बागों फूल में की उठाया
हिरदा में उठे हिलोर
 लीली लीली चादर तणी खेत में
इतराती अरे (अलसी) अई-वई डोले

उन्होंने कहा कि श्रोत्रियजी की कुछ कविताएं तो केदारनाथ अग्रवाल  की याद दिलाती हैं। इस अवसर पर कवि ब्रजेश कानूनगो ने कहा कि श्रोत्रियजी की कविताओं में कला, शिल्प, और  बौद्धिकता  का इतना आग्रह नहीं है, जितना कि अभिव्यक्ति और सम्प्रेशनीयता  का। वे अपनी कविताओं के जरिए एक  प्रतिबद्ध कवि नज़र आते हैं। उनकी कविताएं रातनैतिक कविताएं हैं। कवि में वामपंथी एक्टिविस्ट साफ़ साफ़ दिखाई देता है। मनुष्यता व मनुष्य के पक्ष में अनंत जी की आकांक्षाएं अनंत हैं। वे 82 की उम्र में भी वामपंथी मूल्यों के प्रति सतत संघर्षरत हैं। उनका सकारात्मक कवि इस सफर को जारी रखना चाहता है। वे कहते हैं -

सफर लंबा है
मंजिल  समीप नहीं
इंसान ने फिर भी
कितना तय कर लिया रास्ता

लेखक, कवि एवं एक्टिविस्ट विनीत तिवारी ने कहा कि श्रोत्रिय जी की कवितायें उस दौर कि कवितायें हैं जब साधारण से साधारण कविता भी एक वैश्विक चेतना तक पहुँचने लगी थी. उस दौर में कपड़ा मिलों में काम करने वाले कवि भी सिर्फ अपनी तकलीफों या संघर्षों या घर परिवार के बारे में ही नहीं लिख रहे थे बल्कि वे एशिया के संघर्षरत अन्य देशों के बारे में या अंगोला या रूस, चीन की जनता के के बारे में भी लिख रहे थे और एक तरह का अंतरराष्ट्रीयतावाद उनमें विकसित हो रहा था. आज प्रतिष्ठित हो चुके कवियों के भीतर भी यह चेतना या तो नदारद है या बहुत कम मौजूद है. यह ज़रूर देखना चाहिए कि श्रोत्रियजी की कविताओं में शिल्प के प्रति असजगता है क्योंकि उन्होंने कवि कर्म को भी एक एक्टिविस्ट की ही तरह किया है. बहुत सारे दोहराव भी इन कविताओं में हैं लेकिन अपने समाज, राजनीति की जनपक्षधर समझ और वामपंथी सोच को इसमें साफ़ पारदर्शी तरह से देखा जा सकता है. उनकी कविता "पोस्टर" आम जन के भीतर विकसित होने वाली राजनीतिक समझ की प्रक्रिया की बानगी है-


दीवार पर चिपका पोस्टर
लाल नीले रंगों में छपा
इसके अक्षर समेटे हैं
बीज क्रांति के, संघर्ष के

कार्यक्रम में कवि राजकुमार कुंभज ने श्रोत्रियजी की कविताओं और उनके जीवन को जनान्दोलनों का अभिन्न हिस्सा बताया और कहा कि श्रोत्रियजी की कविताओं में मुक्तिबोध के बिंब व प्रतीक याद आते हैं जो मनुष्य जीवन की जटिलताओं को व्यक्त करते हैं। उनके कवि कर्म में सारी चीजें जनसंघर्ष से निकल कर आई हैं। वे जुलूस को देखते हुए दर्शक नहीं बल्कि जूझते हुए संघर्षरत योद्धा की तरह नज़र आते हैं। इस घनीभूत पीड़ा में भाषा उनकी कविता के पीछे पीछे आ रही है। उनके तमाम  प्रतीक कलावाद के निषेध में आते हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता इंदौर इप्टा के अध्यक्ष विजय दलाल ने की। इस अवसर पर चुन्नीलाल वाधवानी, विक्रम कुमार, अजय लागू , सुलभा लागू , विश्वनाथ कदम, केसरी सिंह चिढार , सारिका श्रीवास्तव आदि मौजूद थे। संचालन किया प्रलेस इंदौर के श्री एस. के. दुबे ने।
(रपट : एस.के. दुबे)

सोमवार, 5 सितंबर 2011

डा. ओडोलेन स्मेकल

चेक गणराज्य के हिन्दी कवि
मित्र डा. ओडोलेन स्मेकल
— डा॰ महेन्द्रभटनागर


सोवियत-संघ, चीन, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और चेकोस्लोवेकिया के हिन्दी- साहित्य प्रेमियों से सम्पर्क में आया; किन्तु सर्वाधिक निकटता मात्र चेकोस्लोवेकिया के डा. ओडोलेन स्मेकल से रही। यह एक संयोग मात्र है कि सर्वप्रथम किसी विदेशी विद्वान / लेखक से यदि परिचय हुआ तो वह डा. ओडोलेन स्मेकल से। उनसे प्रथम सम्पर्क भी अपने में विशिष्ट रहा। भारत में प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ विदेशों में भी जाती हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में नये प्रकाशनों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती हैं; जिनमें लेखक का पता तो नहीं, प्रकशक का पता रहता है। डा. स्मेकल ने किसी पत्रिका, सम्भवतः ‘नया पथ’ (लखनऊ) में मेरे रेखाचित्र / लघुकथा संग्रह ‘लड़खड़ाते क़दम’ की समीक्षा देखी-पढ़ी होगी। ‘लड़खड़ाते क़दम’ के प्रकाशक ‘स्वरूप ब्रदर्स’,खजूरी बाज़ार, इंदौर के माध्यम से उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया; पत्र भेजा। ग़नीमत है, प्रकाशक ने यह पत्र मेरे पते पर, पुनर्निर्देशित कर दिया। यों डा. स्मेकल से मेरा परिचय हुआ और पत्राचार शुरू हुआ। यह परिचय आश्चर्यजनक था; सुखद था।
डा. स्मेकल के प्रारम्भिक पत्र उपलब्ध नहीं। उनका 9 सितम्बर 1955 का पत्र ही, मेरे लिए सुरक्षित प्रथम पत्र है:

Czechoslovakia / 9th Sept.1955

My dear brother Mahendra,
I owe you an apology for my inability to write to you in response to your letter of July 18, 1955. I am writing this letter in English for type-writing facility.
Yes, I am in receipt of your poetry and thank you from the bottom of my heart. I am so enthusiastic about your poems, that I intend to write for our publicity an essay about you in connection with modern Hindi progressive poetry. For this purpose I should be grateful to you for same articles they have been written perhaps about you in several periodicals. I should like to have also some assistent material and names of main Hindi and Indian progressive poets in your group and a survey of trends in Indian poetry of modern times.
I have just translated some of the new poems you have sent me; when published somewhere, I shall give you notice. A propos, did you get my Czech periodicals of Novy Orient with your poems? It is a great pleasure that one or two poems of yours have been also broadcasted in CSR radio.
You are writing, my dear Indian bother, in last letter that ‘ap se ek zarui kam bhi hai’. What is the matter please? You may rest assured of my fulest co-operation in your effort. I would do all I can in helping you.
I wish you great success in your literary career and remain,

Your Czech brother
Odolen Smekal

I should be also grateful for some details of your ownडा. स्मेकल ने 'Novy Orient’ के जो दो अंक भेजे थे; जिनमें मेरी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हैं; मेरे पास सुरक्षित haडा. स्मेकल के फिर दो हिन्दी-पत्र रोमन लिपि में टाइप किये, मिले। जिनका नागरी-लिप्यन्तर निम्नांकित है :

चेकोस्लोवेकिया / दि. 18-10-1956

प्रिय भाई,
आपका 18 सितम्बर ‘56 का पत्र मिल गया था। अनेक - अनेक धन्यवाद। ‘अजन्ता’ नामक मासिक पत्र जिसमें मेरा संक्षिप्त परिचय छापा गया है मुझे नहीं मिला। भेजने के लिए मैं श्री यशपाल जी से प्रार्थना करूंगा। आपको अधिक कष्ट नहीं देना चाहता।
आप चेक भाषा सीखना चाहते हैं यह समाचार पढ़ कर मैं गद्गद हो उठा। इस में आपको भारत स्थित चेक राजदूतावास से सहयोग अवश्य मिलेगा। दो महीने के अन्दर में मेरी ‘हिन्दी पाठ्य-पुस्तक’ निकलेगी; जिसमें बहुत से हिन्दी-वाक्य चेक में अनूदित हैं। आपकी सुविधा व पढ़ने के लिए अवश्य भेज दूंगा। कठिनाई तो आपको ठीक उच्चारण में होगी। मुझे आशा है कि शायद इस वर्ष अध्ययन के लिए भारत जाऊंगा। फिर आपको स्वयं चेक भाषा पढ़ाऊंगा। यों आपके सहयोग से हम दोनों अपनी भाषाओं में साहित्य से अच्छे अनुवाद कर सकेंगे। ऐसा पक्का विश्वास है कि हमारी मैत्री हमारे सारे जीवन के लिए सुन्दर और लाभदायक होगी।
जहाँ तक आपकी कविताओं का प्रश्न है मैं नीचे रूपान्तरों की सूचना दे रहा हूँ। 26 जनवरी को भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारी आकाशवाणी में साहित्यिक प्रोग्राम में आपकी कविताएँ प्रसारित होंगी। इस आध घंटे वाले प्रोग्राम में कुछ और भारतीय कविताएँ शामिल होंगी, लेकन सब मेरे अनुवाद में।
आधुनिक हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन हम को समयाभाव से अनिश्चित काल के लिए स्थगित करना होगा।
अब मैं आपकी नयी कविताओं की राह देख रहा हूँ। अब तक अनूदित कविताओं की सूचना यह है:

हिम्मत न हारो!, काटो धान, बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे!, झुकना होगा, गाओ गान, दीप, चुनौती, परिवर्तन, एकाकीपन, बदलता युग, धरती की पुकार, परिवर्तन हो, खेतिहर, खेतों में, अभियान, मशाल, री हवा!, घटाएँ, दीपक, आज तो, नया प्रकाश, जीवन-पथ के राही से, मनुष्य जीवन, पतझड़ और वसंत, तुम्हारी याद, मिटाते चलो, दमित नारी, हम एक हैं , युद्ध-क्षेत्र पर, सोओ नहीं!, मेरे देश में।

यदि हलेक की कविता छपी हो तो कृपया भेजने का कष्ट करें। आशा है आप और आपकी पत्नी स्वस्थ व कुशल हैं।
आपका ही भाई,
ओडोलेन स्मेकल

डा. स्मेकल का संक्षिप्त परिचय लिख कर ‘अजन्ता’ (हैदराबाद) मासिक को भेजा था। जो अगस्त 1956 के अंक में छपा था। डा. स्मेकल-द्वारा तैयार की गयी ‘हिन्दी पाठ्य पुस्तक’ की साक्लोस्टाइल हुई प्रति प्राप्त हुई थी; जिसमें मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ भी मुद्रित थीं। डा. स्मेकल ने चेक भाषा में अनुवाद तो मेरी अनेक कविताओं के किये; किन्तु वे पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हो सके।
रोमन लिपि में टाइप किया हुआ दूसरा पत्र इस प्रकार है:

प्राहा / दि.11-3-57

प्रिय भाई,
एक युग के पश्चात आज मुझे आपको पत्र लिखने का अवसर मिला। आपका पत्र तदुपरांत आपकी भेजी पत्रिकाएँ, कविता-संग्रह और निबंध यथासमय प्राप्त हुए। मैं सब कुछ के लिए आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ। मुझे दुःख है कि कार्य-भार के कारण आपको पहले यथावत् न लिख सका, आपको नियमित रूप से और बिना विलम्ब के उत्तर दे नहीं सका। आजकल बहुत सी बातें योग्य सेवा से आपको सूचित करना चाहूंगा।
आपके सब साहित्यिक निबंध पढ़ डाले। आपके निबंध जो प्रगतिशील दृष्टिकोण से लिखे हैं मेरी हिन्दी-साहित्य की जानकारी बढ़ाने के लिए बड़े सहायक हुए। ‘दिव्या’ पर यह पुस्तक अत्यंत शिक्षाप्रद और विद्यार्थियों के लिए मेरे विचार में इस प्रकार के लेख की बड़ी आवश्यकता है। यह तो वयस्कों के ज्ञान-वर्द्धन के लिए भी बहुत ही उपयुक्त पुस्तिका हो सकती है। आपकी भेजी हुई कविताओं में से मैं अब तक केवल दो कविताओं का अनुवाद कर सका हूँ — ‘हिम्मत न हारो’ / ‘विश्वास’। इतनी कम नहीं कि वे मुझे पसंद नहीं आयीं; प्रत्युत आपकी कविताएँ मुझे बड़ी रुचिकर जान पड़ती हैं और उन्हें पढ़ने और अनुवाद करने में मैं सदा प्रसन्नता प्राप्त कर रहा हूँ; प्रत्युत किसी और प्रकार के कार्य में लगे रहने के कारण उनके अनुवाद करने की सम्भावना नहीं मिली।
भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आपकी कविता ‘काटो धान’ जनवरी मास की 24 तारीख़ को चेक आकाशवाणी में प्रसारित हुई। उसकी प्रशंसा मेरे मित्रों ने खूब की। वह उन्हें सारे प्रोग्राम से सबसे अच्छी लगी।
यद्यपि मैं ऐसा दीर्घ काल मौन रहा फिर भी हिन्दी और आपकी कविता और प्रकाशित करने की सम्भावना ध्यान में ही रही। इस बीच के समय में मैंने आपकी उत्तम कविताओं का अनुवाद एक हमारे प्रकाशन मंडल को प्रकाशित करने का प्रस्ताव दिया। मुझे कहा गया कि भारत जैसे महान् देश की केवल एक ही कवि की कविता पुस्तक रूप में छापना असम्भव है। इसलिए मैंने हिन्दी कविता का प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित करने का सुझाव दिया। इस विषय पर अभी कार्रवाई हो रही है। किन्तु सभी लक्ष्यों से प्रतीत हो रहा है कि मेरा यह प्रस्ताव स्वीकृत होगा। आप यदि इस काम में मेरी सहायता कर सकें तो हिन्दी कविता की उत्तम रचनाओं के चुनाव में आप सहायक हों और उपयुक्त सामग्री काफ़ी सोच-समझ कर भिजवाने की कृपा करें।
यों समझिए, जो बात अब निश्चित हुई है वह यह कि भारतीय लोक-कथाओं की दो पुस्तकें मेरे अनुवाद में भविष्य में दो वर्षों में प्रकाशित होंगी। अब इसी कार्य में लगा हूँ। मैं न केवल उनके अनुवाद करने में रत हूँ लेकिन जो सबसे दुखमय बात है कि मेरे हाथ काफ़ी उपयुक्त लोक साहित्य संबंधी सामग्री मिलती नहीं। मुझे बहुत से भारतीय मित्रों के यहाँ यह लोक साहित्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना चिट्ठियाँ भेजनी पड़ती हैं। यह विशाल पत्र।-व्यवहार मेरा बहुत-सा समय जो मेरे लिए इतना बहुमूल्य है कूड़ा रहा है। पुस्तकों का अभाव में कैसे पार कर सकूँ ? मेरे कार्य में यह सबसे बड़ी कठिनाई और बाधा है; जिनका कड़ा सामना मुझे करना पड़ता है। परन्तु मैंने निश्चय किया कि भारतीय लोक कथाओं की दो पुस्तकें और लोक गीतों की एक पुस्तक प्रकाशनार्थ प्रस्तुत कर दूंगा। और मेरा यह निश्चय अटल है। मेरी पूर्ण आशा है कि इस कार्य में मेरी साधना सफल होगी; क्योंकि भारतीय लोक साहित्य का क्षेत्र। हमारे देश में सर्वथा अज्ञात है और इस में भारत की इतनी उत्कृष्ट निधि है। इस अभाव की पूर्ति शीघ्र ही करनी चाहिए।
एक दूसरा कार्य मेरे सामने है। मेरी इच्छा है कि मेरे देश की लोक कथाएँ भी भारतीय जनता को उपलब्ध हो सकें। इस कारण प्रायः तीन मास हुए ‘बाल भारती’ सम्पादक मंडल को दो-तीन कथाओं का अनुवाद भेज दिया था। अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। दूसरी लोक कथाएँ मैंने ‘कहानी’ सम्पादक श्रीपतराय जी को भेज दी थीं। परिणाम यही रहा। इस लिए मैंने सब प्रकार के अनुवाद आपके सहयोग के साथ करने की ठान ली। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं है तो भविष्य के लिए मैं आपको ऐसा नम्र सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूँ कि हम दोनों मिल कर चेक लोक कथाओं का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशनार्थ तैयार करें। क्या भारतीय प्रकाशकों को इसमें अभिरुचि है ? इस पर आपका क्या विचार है ? कृपया सूचित कर दें।
इस बात से कुछ और प्रश्न संबंधित हैं। वह आपका चेक भाषा सीखने का प्रश्न। उत्तम होता यदि आप चेक भाषा जानें और हमारे साहित्य की कुछ आदर्श रचनाएँ अपनी भाषा में रूपान्तरित कर सकें। इस विषय में जो सहायता मुझसे हो सकेगी वह करने का प्रयत्न करूंगा। क्या आप अभी उसे सीखने की अभिलाषा है ? अधिकतर एक सप्ताह में मेरी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक निकलेगी। उसके निकलने बाद तुरन्त ही आप की सेवा के लिए एक प्रति भेजनी होगी। साथ ही साथ यह आप पर लिखी समीक्षा सामग्री और कई चेक लोक कथाओं का अनुवाद भेज दूंगा। उसी हिन्दी पाठ्य-पुस्तक से आप कुछ न कुछ चेक पढ़ सकेंगे। मुझे चेक-हिन्दी वार्तालाप प्रस्तुत करने की इच्छा है। अनेक भारतीय सज्जन पत्रों के माध्यम से चेक भाषा सीखने के इच्छुक हैं और उनको सिखाने का अनुरोध करते हैं। मैं यह काम किस प्रकार करूँ ? यदि चेक-हिन्दी वार्तालाप एवं व्याकरण की पुस्तक रूप में भारत में प्रकाशन की सम्भावना हो तो उसे तैयार करने का प्रयत्न करूंगा। कृपया इस विषय पर भी अपने बहुमूल्य विचार जानने का अवसर दें।
आजकल मैंने आपको बहुत सी सूचनाएँ लिख दीं। आशा है आप प्रसन्न हैं। यद्यपि हमारे पत्र।-व्यवहार की गति विशेषकर मेरी ओर से बड़ी मंद हो रही है। मुझे बहुधा उसका प्रायश्चित हो रहा है। फिर भी मेरा पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी कठिनाइयाँ और समयाभाव समझते हैं। हो न हो हमारी आप से आत्मीयता पक्की हुई है। हमारे सामने सारा जीवन लगा रहता है, सब हमारे कार्य, साधनाएँ और अभिलाषाएँ भी। हम दोनों कुछ ऐसा परस्पर कार्यक्रम बना लें कि हमें भविष्य में हमारे दो देशों के सांस्कृतिक क्षेत्र में क्या क्या करने की इच्छा है और क्या क्या करना आवश्यक है, ताकि हमारे दो देशों की मित्रता और आपसी संबंध अधिक दृढ़ हो जाएँ।
मैं अपने कुछ और प्रस्ताव और भावनाएँ अगले पत्र के लिए स्थगित कर रहा हूँ। आशा है, आप सपत्नीक स्वस्थ व प्रसन्न हैं। योग्य सेवा से लिखें कि कृपा करें। मैं कुछ ही दिनों में अपको वह उपरोक्त पाठ्य-पुस्तक भेज दूंगा। साथ ही मेरा निज चित्र / फोटो। हिन्दी पत्रिकाओं के लिए विभिन्न प्रकार के चेकोस्लोवेक संस्कृति के विषय पर हिन्दी लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह भी आपको क्रमशः भेज दूंगा। शेष फिर। मेरी शुस भकामनाएँ आपके साथ हैं।
आपका भाई,
ओडोलेन स्मेकल

इस पत्र में, चेक - रेडियो से, 24 जनवरी 1957 को प्रसारित, ‘काटो धान’ के चेक - अनुवाद की सूचना विशिष्ट है। डा. स्मेकल ने पाँच संक्षिप्त लोक-कथाओं (‘हाँडी पका’, ‘एक गर्वीली कुमारी’, ‘कथा छोटी क्यों है’, ‘कुत्ते के बारे में’ और ‘पटरियाँ भी थक जाती हैं’) के हिन्दी-रूपान्तर मुझे भेजे थे; जिनकी भाषा शुद्ध करके मैंने श्री चिरंजीत-द्वारा सम्पादित ‘मधुकर’ के दिसम्बर 1957 के अंक में प्रकाशित करवाए।

मार्च 1959 में, डा. स्मेकल का एक पोस्टकार्ड मिला:

प्रियवर भाई,
स्नेह अभिवादन। दीर्घकालीन मौन के लिए सविनय क्षमा चाहता हूँ। मार्च में 20वीं तिथि को भारत का तीन मासिक भ्रमण करने जा रहा हूँ। आपसे, मेरे प्रिय कवि और मित्र से मिलने को अत्यंत उत्सुक हूँ। कैसे? कब? कहाँ? परामर्श दें। कृपया मुझे चेक दूतावास के पते पर दिल्ली में सूचित करें। कोई 22-29 तक बम्बई में रहूंगा, फिर दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दूंगा (विमान पथ से)। बम्बई का पता:
OS/Sion, Matunga Estate, Plot 16, Bombay.
समस्त प्रेम और सद्भावनाओं सहित —

आपका,
ओडोलेन स्मेकल

मिलने की इच्छा तो मेरी भी कोई कम न थी; किन्तु दिल्ली जाकर उनसे मिलना कठिन था। खेद है, भेंट न हो सकी।
फ़रवरी 1962 में डा. स्मेकल ने ‘बातचीत’ की जिस पुस्तक के संशोधन का प्रस्ताव रखा था; वह आगे चल कर मुझे प्राप्त हुई। उसमें काफ़ी संशोधन भी मैंने किये; किन्तु पूर्ण रूप से उसे मैं व्यवस्थित नहीं कर सका। हाँ, डा. स्मेकल यदि समक्ष होते तो अवश्य यह कार्य सम्पन्न हो जाता। आंशिक संशोधनों वाली पाण्डुलिपि मैंने प्रकाशक को लौटा दी। प्रकाशक ने न पारिश्रमिक भेजा; न मैंने माँगा। अपूर्ण कार्य का क्या पारिश्रमिक ! सम्मति-पत्र भेजा ज़रूर होगा; किन्तु जहाँ तक याद आता है — प्रकाशन-संबंधी ‘हरी झंडी’ प्रकाशक को नहीं दी; क्योंकि पाण्डुलिपि में कुछ और संशोधन शेष थे। डा. स्मेकल को दुःख तो हुआ। संबंधित पत्र इस प्रकार है:

Praha-Prague, dated : 16-2-62

प्रिय भाई,
बहुत दिनों के बाद आपके समाचार मिले। आपका पत्र पढ़ कर बड़ा प्रसन्न हुआ। मुझे भारत से लौट आये दो वर्ष बीत चुके हैं। पिछले वर्ष मेरी बिटिया ‘इन्दिरा’ का जन्म हुआ। अब हम सपत्नीक संतुष्ट है। आप भी अपने घर का कोई शुभ समाचार सुनाइए।
जहाँ तक मेरे काम की बात है बहुत-कुछ मैंने इस बीच में किया। विद्यार्थियों के लिए हिन्दी साहित्य की रूपरेखा समाप्त कर चुका हूँ। हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक प्रकाशक को छापने के लिए दे दी। वो तीन भाषाओं की है: हिन्दी, चेक और अंग्रेज़ी। अब प्रकाशक को किसी भारतीय हिन्दी-ज्ञाता की इस के संबंध में सम्मति आवश्यक है। लिखने की कृपा करें। आपको मेरी पाठ्य-पुस्तक एक दम भिजवा दी जाएगी। इस काम के लिए आपको पैसे मिलेंगे।
बहुत दिनों से किसी भी हिन्दी कविता का अनुवाद नहीं किया। कृपया अपनी नई कृतियाँ ज़रूर भेज दें। एक मास के भीतर चारेक चेक कविताएँ अवश्य भेज दूंगा। अब इनकी खोज में हूँ। यही काम मैं आपको भी सौंपता हूँ, मुझे एक भाव की कविताएँ, विशेषकर वैज्ञानिक उपलब्धियों के उल्लास तथा श्रमिक जीवन पर हिन्दी कविताएँ चाहिए। अब साहित्यिक काम और अनुवाद के लिए समय मैंने निकाला है। हमारा पारस्परिक सहयोग दोनों के लिए लाभकारी होगा। आप जल्दी उत्तर देने की कृपा करें। योग्य सेवा लिखें।
आपका,
ओदोलेन स्मेकल

दि. 1-4-1962 का पत्र।

प्रिय भाई,
आपका पत्र मिला, प्रसन्नता हुई। आपकी इच्छानुसार अपने परिवार का फ़ोटो भेज रहा हूँ। दो मास का पुराना है।
मेरे भारत रहते समय हमारी भेंट न हो सकी इसका खेद आपको न हो। एक तो आशा मुझे है कि भविष्य में फिर से भारत जाने का अवसर मिलेगा, दूसरे मुझे विश्वास है कि कुछ समय बीतकर आप भी हमारे देश आ ही सकेंगे। पहले हम दोनों को कुछ काम करना पड़ेगा। आप कृपया लिख दें कि भारत में हिन्दी के संबंध में इस और अगले वर्ष में कोई महत्त्वपूर्ण सम्मेलन होने वाला है या नहीं जिसमें मैं अपना भाग ले सकूँ। मैं सपरिवार, इसका अर्थ, सपत्नीक भारत जाना चाहता हूँ। लेकिन इसके बारे में फिर।
आज आपको तीन बालोपयोगी कविताएँ भेज रहा हूँ। कवि प्रसिद्ध हैं। अब अगले पत्र में एक भाव की कविताएँ भेजता रहूंगा।
हिन्दी साहित्य की रूपरेखा’ चेक में लिखी है। ‘हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक’ आपको हमारे दूतावास द्वारा भेजी जाएगी। पुस्तक के चौथे भाग में उद्योग के संबंध में कुछ वाक्य अपूर्ण हैं। आपसे बड़ी प्रार्थना है वाक्यों को पूरा करने की कृपा करें। दूसरी प्रार्थना यह है कि आप जहाँ कहाँ त्रुटियाँ मिलती हैं उन्हें दूर कर दें। आपका बड़ा आभारी रहूंगा शेष फिर।
आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल

दि. 10-7-62 का पत्र।

प्रिय भाई,
बहुत दिनों से आपके समाचार नहीं मिले। दो तीन मास की बात होगी मैंने आपको तीन चेक कविताओं सहित एक पत्र। भेज दिया था, परन्तु उसका उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। कृपया लौटती डाक से आपके हाल की सूचना दीजिए। इस सप्ताह के अंत में छुट्टियों के दो महीने वाले अवकाश के लिए सपरिवार प्रस्थान कर रहा हूँ। आपकी सूचना प्राप्त करने पर आपकी सेवा में दूसरी चेक कविताएँ भेजने का विचार है। मुझे आशा है इन दिनों आपके पास मेरी चेक-अंग्रेज़ी-हिन्दी बातचीत की पाठ्य-पुस्तक, आपकी सम्मति देने के लिए मिलती है। इसके विषय में आपकी क्या राय है ? इस संबंध में मेरी आपसे एक बड़ी प्रार्थना है। मेरे वहाँ कुछ वाक्य अपूर्ण रहे। उनका अनुवाद करना मेरे सामर्थ्य से परे है। वाक्य इन्हीं विषयों के हैं :
Earth works, Construction, Structure Building Assembly, Metallurgical Works, Machining, Work with hand tools, Assembly, Electr …, Miscellaneous, Accident Prevention.
यह सब चौथे भाग के वाक्य हैं । इन वाक्यों के अनुवाद करने के लिए मैं आपका बहुत आभारी और ऋणी रहूंगा। सारी पुस्तक आप कब वापस दे सकेंगे ?
शेष आपका उत्तर आने के बाद। आशा है मौन रहते हुए भी आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं। अपने और पुस्तक के बारे में योग्य सेवा लिखें।
आपका चेक भाई,
ओडोलेन स्मेकल

प्राग-प्रहा / दि. 20-12-62

प्रिय भाई,
आपके दो पत्र। दो मास पूर्व मिल गये। उस समय मैं सपरिवार अपनी माताजी के यहाँ छुट्टियों में रहा। कोई 24 सितम्बर को प्राग हम लौट आये लेकिन पढ़ाने से पहले ही मैं बीमार पड़ गया। प्रायः दो मास तक मुझे अस्पताल में रहना पड़ा। सारे शरीर पर त्वचा-रोग फैल गया। अब अस्पताल से लौट कर पढ़ाने लग रहा हूँ। कुछ स्वस्थ हो गया हूँ। आशा है कुछ दिनों में बिल्कुल अच्छा हो जाऊंगा।
जहाँ तक मेरी पाठ्य-पुस्तक की बात है आपने अपनी सम्मति लिख दी भी यह जानने की इच्छा है। प्रकाशक को अभी तक मेरी पाण्डुलिपि नहीं मिल गयी। हो सकता है आपने समयाभाव के कारण पाठ्य-पुस्तक हमारे दूतावास को नहीं दे दी। यह भी संभव है आपने पुस्तक भेज दी थी लेकिन वह अभी तक हमारे देश नहीं पहुँच गयी। कृपया शीघ्र लिखने का कष्ट करें बात कैसी है ? हम आपकी सम्मति की प्रतीक्षा में हैं। इस बीच में, मैंने प्रत्येक परिच्छेद के लिए विशिष्ट शब्दावली तैयार की। वह काम पूर्ण हो गया। अब छापने का समय आ गया है।
इसी काम से मेरा भाषा संबंधी कार्य समाप्त हो रहा है। अब से मेरा ध्यान हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित रहेगा। अनुसंधान व अनुवाद के लिए अधिक समय रह जाएगा। हिन्दी साहित्य की रूपरेखा प्रकाशित हो चुकी है। आपकी सेवा में इसे भेज दूंगा। पुस्तक में आपके नाम का उल्लेख और कविता का नमूना भी छप चुका है। आशा है प्रसन्न होंगे।
इस वर्ष के अंत तक आपको चेक कविता के दूसरे अनुवाद नहीं भेज सकूंगा, लेकिन आगामी वर्ष के प्रारम्भ में आपको निःसंदेह प्राप्त होंगे। कई मास से भाई, आपकी नयी कविताओं की प्रतीक्षा में हूँ। अभी तो कुछ भी नहीं मिल गया। आप तीन महीने से मौन रहे हैं। अपने कुशल मंगल का समाचार दीजिए। मेरी धर्मपत्नी पुत्री इंदिरा के साथ स्वस्थ व प्रसन्न है। हम सब लोग आपके पत्र की राह देख रहे हैं। जल्दी लिखने की कृपा करें। हमारे देश में आपको किसी चीज़ की आवश्यकता हो यह भी लिखना न भूलिए। हम सानंद भेजने की कोशिश करेंगे। शेष फिर। योग्य सेवा लिखें।

आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल

चेकोस्लोवेकिया / 4-5-63

प्रिय भाई,
सप्रेम वंदे। पिछले महीने मुझे पाठ्य-पुस्तक हमारे विदेश मंत्रालय से मिल गयी। पुस्तक में आप द्वारा अनूदित हिन्दी-वाक्यों को पाकर बड़ा हर्ष हुआ है। इसके और वाक्यों के संशोधन के लिए आप मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए। पर एक बात हमें स्पष्ट नहीं। आपने पुस्तक पर अपनी सम्मति लिख दी या नहीं? न तो पाठ्य-पुस्तक में वह सम्मति-पत्र मिला, न तो प्रकाशक ने डाक से। हो सकता है आपने सम्मति-पत्र लिख दिया, हमारे दूतावास को पुस्तक सहित दे दिया और वह कहीं खो गया। बात यह है कि जब-तक आपकी विस्तारपूर्ण सम्मति प्रकाशक को नहीं मिलेगी, पुस्तक छप नहीं सकेगी। मैं इस बीच में अपनी हस्तलिपि अंतिम बार सावधानी के साथ पढ़ रहा हूँ, और अपनी शक्ति के अनुसार संशोधन कर रहा हूँ। लेकिन वह काम शीघ्र ही पूरा कर दूंगा। आपकी सम्मति मिलते ही प्रकाशक पुस्तक को छापने का आरंभ करेगा। मुझे किसी भी दूतावास पर विश्वास नहीं। यदि आप अपना सम्मति-पत्र प्रकाशक को भेज सकें तो सबसे अच्छा होगा। यदि आपने वह पत्र दूतावास को दे दिया तो दिल्ली में इस विषय में लिखने की कृपा करें। प्रकाशक को यह जानना चाहिए कि पुस्तक कैसी है, उसकी क्या विशेषता, बातचीत कैसी है, पुस्तक छापने योग्य है या नहीं, आप उसके अनुमोदक हैं या नहीं, इत्यादि। आशा है आपको प्रकाशक से अंग्रेज़ी में लिखित प्रार्थाना-पत्र। पिछले वर्ष मिल गया था। और कष्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपका कविता-संग्रह प्राप्त हुआ, हार्दिक धन्यवाद। पाठ्य-पुस्तक का कार्य समाप्त करने उसके कुछ काव्यों का अनुवाद चेक में कर सकूंगा।
मैं सपत्नीक स्वस्थ हूँ। आशा है आपका और आपकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य भी ठीक है।
आपका भाई,
ओडोलेन स्मेकल

चेकोस्लोवेकिया — प्राग / 20-2-64

प्रिय भाई,
सप्रेम अभिवादन। पिछले वर्ष के आपके दो पत्र (दि.11-3, 7-9-63) प्राप्त हुए। आपकी ‘मधुरिमा’, ‘जिजीविषा’, ‘संतरण’, और ‘टूटती शृंखलाएँ’ नामक पुस्तकें मुझको मिल गयीं। इन सभी चीज़ों के लिए आज जो धन्यवाद देने के लिए बैठ रहा हूँ, इसके लिए मुझे क्षमा प्रदान करें, यही मेरी आपसे बड़ी प्रार्थना है। अनेक कार्यों में संलग्न रहकर मुझसे यह त्रुटि हुई। एक बार फिर हृदय से धन्यवाद स्वीकार करें।
आपके अनेक प्रश्नों का उत्तर देने को जा रहा हूँ। पिछले वर्ष में मुझको अनुवाद करने को समय नहीं मिल गया। मुझे पाँच अहिन्दी भारतीय साहित्यों की रूपरेखा प्रकाशनार्थ तैयार करनी थी। इसके अतिरिक्त मैंने प्रेमचंद के ग्राम उपन्यासों पर एक शोध-निबंध लिख दिया था और इन दिनों आधुनिक हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। इस वर्ष के दौरान में ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य की उद्भव-प्रक्रिया’ नामक अनुसंधान-कार्य पर मेरा ध्यान केन्द्रित रहेगा। साथ-साथ वैज्ञानिक Candidate डिग्री प्राप्त करने के लिए इससे संबंधित परीक्षाओं में बैठना चाहूंगा। अतः कार्य अधिक होने के कारण न तो इसी साल में अनुवाद के लिए समय निकाल सकूंगा। आपकी कविताएँ अपने एक छात्रा को दे दूंगा जिससे वह उनका अनुवाद करने का प्रयत्न करे। एक दो वर्ष बीतने पर फिर अनुवाद कार्य के लिए समय निकाल सकूंगा। अब मेरे लिए बहुत ज़रूरी है ऊपर लिखित उपाधि प्राप्त करने को।
हिन्दी बातचीत की पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हो गई। हमारे देश में देवनागरी लिपि में पुस्तकों के प्रकाशन में बहुत समय लगता है। पुस्तक केवल अगले वर्ष प्रकाशित होने वाली है। बातचीत की पुस्तक का उल्लेख करते हुए मुझे एक बात का बहुत दुःख हो रहा है। आपने पुस्तक में से तीन अध्यायों का संशोधन किया था तथा एक का अनुवाद करके, इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी हूँ। मेरे कार्य के लिए अपना बहुमूल्य समय निकाल कर आपने बहुत कृपा की। आप फिर से मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। लेकिन मेरे विचार में पूरे पुस्तक का संशोधन करना था। यह आपके लिए असम्भव था इसमें कोई संदेह नहीं। किसी अपने हिन्दी छात्र को संशोधन के लिए दे देते और वह शोध अध्यायों को ठीक करदे मेरी राय में बहुत अच्छी बात होती। अब मैं बहुत चिन्तित हूँ कि मेरी वह पुस्तक इतनी अच्छी नहीं होगी, जितनी मेरी इच्छा थी। यह बात है। यही तो मेरे दुःख का कारण भी है। अस्तु।
आजकल आप क्या लिख रहे हैं ? आपके ‘साहित्यिक निबंध’ मुझको नहीं मिल गये। आशा है दो-तीन वर्ष में भारत जाने का फिर से अवसर मिलेगा। तब हम अवश्य मिलेंगे। मैं सपत्नीक जाने का विचार रखता हूँ। हम इधर संतुष्ट हैं। इन्दिरा और अरुण सानंद हैं। हो सके, आपको नहीं मालूम कि हमारे पुत्र को जन्मे आध वर्ष बीत चुका है। शेष फिर, आज मैंने बहुत लिख दिया। पत्र। दें। आशा है आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं।
आपका चेक भाई
ओडोलेन स्मेकल

सन् 1966 में डा. स्मेकल का पत्नी-सहित भारतशुभागमन का कार्यक्रम फिर बना:

प्राग / 21-1-1966

परम प्रिय भाई,
सस्नेह नमस्कार। बहुत दिनों से आपके समाचार नहीं मिले। आशा है, आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न हैं।
मैं 29/1 को एक मासिक भारत यात्रा पर सपत्नीक जा रहा हूँ। दिल्ली में फ़रवरी का पहला सप्ताह बिताने का कार्यक्रम है, फिर आगरा, ग्वालियर, झाँसी, लखनऊ आदि नगरों में थोड़ी देर ठहरने का विचार है।
इस बार हमको मिलना अवश्य चाहिए। कृपा करके मुझे दिल्ली के पते पर सूचित करे दें यदि यह सम्भव है कि मैं सपत्नीक आपके यहाँ ठहर सकूँ और ग्वालियर घूमने की व्यवस्था भी यदि आप करा सकें। कष्ट के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ। शेष मिलने पर।
आपके जल्दी मिलने की राह देखते हुए —
आपका ही,
ओडोलन स्मेकल

अफ़सोस है, इस बार भी, हम नहीं मिल सके। सन् 1967 के पत्र में डा. स्मेकल ने भी खेद प्रकट किया:

प्राहा / 8-7-1967

प्रिय भाई,
सप्रेम वंदे। आपका 18-6-67 का कृपा-पत्र प्राप्त हुआ। मुझे अत्यंत हर्ष हुआ है कि हमारा पत्र-व्यवहार फिर चला है और विश्वास है कि भविष्य में चलता रहेगा।
जिस पत्र का आप उल्लेख करते हैं वह मुझे मेरे भारतीय पते पर नहीं मिला था। आपसे भेंट करने की बहुत इच्छा थी, लेकिन मध्य-प्रदेश के लिए मुझे समय नहीं बच गया। आशा है, दो-तीन वर्ष बाद फिर भारत जाने का सुअवसर मिलेगा, तब केवल राजस्थान तथा मध्य-प्रदेश जाऊंगा।
आपका गीत-संग्रह नेशनल पब्लिशिंग हाउस की ओर से मुझको प्राप्त हुआ, बहुत धन्यवाद। ‘चयनिका’ और ‘Forty Poems’ निश्चय ही भेज दें। आठ-दस वर्ष से मुझे अनुवाद करने के लिए समय नहीं मिला। अब फिर से हिन्दी से रूपान्तर के लिए मैं समय निकाल सकूंगा।
मैंने कई अपने शोध-कार्य समाप्त किये हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर, हिन्दी लोक कथाओं पर, हिन्दी भाषा के इतिहास पर, हिन्दी ग्राम उपन्यासों पर इत्यादि। खेद है, मेरी चेक-हिन्दी-अंग्रेज़ी वार्तालाप वाली पाठ्य-पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं हो गई यद्यपि वह मुद्रणाधीन है। कहते हैं अगले वर्ष निकल जाएगी।
आप हिन्दी-विभागाध्यक्ष बन गये, मेरी मंगल-कामनाएँ स्वीकार करें। महू में कौन-सी हिन्दी पत्रिकाएँ निकलती हैं, इस भू-भाग की लोक-कथाएँ क्या संकलित तथा प्रकाशित हो गईं ? कृपा कर इस विषय में समाचार भी दें।
शेष विधिवत् पत्र-व्यवहार में —
आपका भाई,
ओदोलेन स्मेकल


सन् 1975 में भी डा. स्मेकल दिल्ली आये और फिर तो वे भारत में ‘चेक गणराज्य’ के राजदूत बन कर रहे। इधर के पत्र इस प्रकार हैं:


प्रिय भाई,
विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर मैं अब भारत में रह रहा हूँ। 1 फ़रवरी से 15 तक दिल्ली में रहूंगा। फिर बंबई से होकर 20 फरवरी को अपने देश लौट रहा हूँ।
आपके पत्र। निरुत्तर रहे, मैं बड़ा पापी हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ। किंतु हम युरोप में अतिव्यस्त रहते हैं। कृपा कर अपना सबसे नया फोटो तथा पिछले चार-पाँच वर्षों की कृतियाँ भेज दें। मैं दिल्ली में जनपथ होटल में रहता हूँ परन्तु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नाम पर भेजना अधिक अच्छा होगा।
सस्नेह, सधन्यवाद
आपका चेक बन्धु
ओदोलेन स्मेकल
वाराणसी, 21-1-75

चेक गणराज्य का दूतावास
50, एम - नीति मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली
मार्च 1993

प्रिय डा. महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आपका पत्र प्राप्त हुआ। कार्यालय में हिन्दी टंकण यंत्र और टंकक उपलब्ध न होने के कारण मैं स्वयं ये पत्र हाथ से लिख कर भेज रहा हूँ। राजदूत का कार्यभार सँभालने के पश्चात मैं अति व्यस्त हो गया हूँ। यह जानकर कि आप मार्च के प्रथम सप्ताह में दिल्ली आ रहे हैं, अति प्रसन्नता हुई। आपके दिल्ली आने की प्रतीक्षा करूंगा। मेरा पूर्ण डाक पता इस प्रकार से है।
धन्यवाद।
ओदोलेन स्मेकल
आपका मित्र / प्रभारी राजदूत

सन् 1993 में उनसे मिलने दिल्ली गया भी; किन्तु उनके कार्यालय न जा
सका ! मात्र फ़ोन पर लम्बी वार्ता की। डा. स्मेकल बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें फ़ोन पर मेरी आवाज़ बहुत ही रुचिकर लगी। बातचीत के दौरान बार-बार इसका उल्लेख करते रहे।
उनके एक कविता-संग्रह पर अपना ‘अभिमत’ भी मैंने दिया; जो इस प्रकार है:

‘नमो-नमो भारत माता’

अभिमत

‘नमो-नमोभारतमाता’ कविता-संग्रह के रचयिता चेकोस्लोवेकिया-निवासी, भारत और हिन्दी-प्रेमी एवं प्रसिद्ध भारत विद्या-विद्वान् डा. ओदोलन स्मेकल हैं।
‘नमो-नमो भारत माता’ जैसा कि अभिधान से ही स्पष्ट है; भारत के प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण भावोद्गारों का स्तवक है। यह एक विशुद्ध सांस्कृतिक काव्य है। कवि ने भारत का व्यापक भ्रमण किया है। उसकी विभिन्न प्रादेशिक संस्कृतियों और सभ्यताओं का अवलेकन किया है। भारत की विविधता, प्राकृतिक सौन्दर्य, पौराणिक आख्यानों, इतिहास, सांस्कृतिक-धार्मिक केन्द्रों, स्त्री-पुरुषों, प्रेम-गाथाओं, कलाओं आदि के प्रति उसका अद्भुत लगाव इन कविताओं में प्रतिबिम्बित है। भारत देश की महिमा का बखान करते वह अघाता नहीं। एक विदेशी के हृदय में भारत के प्रति इतने सम्मान और प्रेम का पाया जाना विस्मयकारी है। विदेश में जन्म लेने पर भी ओदोलेन स्मेकल का मन और आत्मा भारतीयता के रंग में डूबे हुए हैं। उनकी कविता-सृष्टि प्रांजल और प्रभावी है। भाषा की स्वच्छता भी द्रष्टव्य है।
— डा. महेंद्र भटनागर

‘डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय’, आगरा की ‘हिन्दी शोध उपाधि समिति’ का दो-वर्ष ( मार्च 1996 से फ़रवरी 1998) बाह्य विशेषज्ञ सदस्य रहा। पी-एच.डी. हेतु शोध-कार्य करने के विचारार्थ प्रस्तुत एक शोधार्थी का विषय डा. ओडोलेन स्मेकल के जीवन और साहित्य पर था; जो स्वीकृत किया। एक दिन, इसी शोधार्थी ने सूचित किया कि डा. ओडोलेन स्मेकल दि. 14 जुलाई 1998 को नहीं रहे। भारत से अपने देश वे कब चले गये; पता न चला। उनके निधन का दुखद समाचार पढ़ कर हतप्रभ रह गया। डा. स्मेकल बहुत जल्दी चले गये ! उनका जन्म 18 अगस्त 1928 को हुआ था।

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