डॉ॰ महेंद्रभटनागर की
काव्य-गंगा
—
दिनेश कुमार माली
भले ही, डॉ॰ महेंद्रभटनागर से मैं अभी तक व्यक्तिगत तौर पर नहीं मिल पाया, मगर उनसे मेरी जान-पहचान आठ-दस साल पहले
अंतरजाल पर हुई थी। उस समय मैं अपने पहले हिन्दी-ब्लॉग ‘सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ’ पर काम कर रहा था। उस दौरान डॉ॰ महेंद्रभटनागर अंतरजाल पर काफ़ी सक्रिय थे
और आज भी हैं। जीवन के नब्बे बसंत देखने वाला शायद ही कोई कवि, लेखक या रचनाकार इतना सक्रिय होगा। देश-विदेशों
में होने वाले कवि-सम्मेलनों में भाग लेने के दौरान जितने भी बड़े कवि मुझे मिलते और
उनसे अगर ग्वालियर के किसी कवि के बारे में बातचीत होती तो डॉ॰ महेंद्रभटनागर का
नाम अति सम्मान के साथ सबसे पहले लिया जाता।यह मेरा अहोभाग्य है कि उन्होंने मुझे
अपने आद्याक्षर किए हुए तीन कविता-संग्रह ‘जीवन : जैसा जो है’, ‘कविताएँ : मानव-गरिमा के लिए’ तथा ‘चाँद, मेरे प्यार!’ उपहार-स्वरूप भेजे । कविता-
प्रेमियों के लिए यह अत्यंत ही हर्ष का विषय है कि ‘अनुभूति-अभिव्यक्ति’
वेब-पत्रिका ने पीडीएफ़ फार्मेट में ‘चाँद, मेरे प्यार!’ कविता-संग्रह को प्रकाशित किया है।
सुधी हिन्दी-पाठकों के लिए डॉ॰ महेंद्रभटनागर
का नाम चिर-परिचित है। सन् 1926 में झाँसी में जन्मे डॉ॰
महेंद्रभटनागर ने अपनी समूची ज़िंदगी हिन्दी-साहित्य की कटिबद्धता से सेवा की। सन् 1984 में मध्यप्रदेश सरकार की शैक्षिक सेवा में प्रोफ़ेसर-पद
से सेवानिवृत्ति के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, ग्वालियर की जीवाजी यूनिवर्सिटी में प्रिंसिपल इंवेस्टिगेटर तथा इन्दिरा गांधी
खुला विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रहे। साथ ही साथ, वे इंदौर विश्वविद्यालय, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन तथा भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा की विभिन्न समितियों के सदस्य व चेयरमैन
रह चुके हैं। ‘ग्वालियर शोध संस्थान’, ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ और ‘राष्ट्र-भाषा प्रसार समिति, भोपाल’ की प्रबंधन-समिति के सदस्य बतौर भी उन्होंने
काम किया है। समय-समय पर भारत के विश्वविद्यालयों और शिक्षा-बोर्ड के सिलेबस में
उनकी कविताएँ छपती रही हैं। इंदौर और ग्वालियर के आकाशवाणी-केन्द्रों की
ड्रामा/लाइट म्यूजिक की ‘ऑडिशन कमेटी’ के सदस्य थे। इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और नई दिल्ली के नेशनल रेडियो चैनल पर
उनकी बहुत सारी कविताएँ, वार्ताएँ और अन्य दूसरे प्रोग्राम प्रसारित होते रहे हैं।
बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद, पटना; उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ; राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर तथा हिन्दी साहित्य परिषद, गुजरात आदि साहित्यिक संस्थाओं में पारितोषिक-निर्णायक
की भूमिका अदा करते रहे हैं। अंग्रेज़ी भाषा में उनकी कविताओं के ग्यारह संग्रह
प्रकाशित हो चुके हैं, ‘फोट्टी पोयम्स ऑफ़
महेंद्रभटनागर’, ‘आफ़्टर द फोट्टी पोयम्स’, ‘डॉ॰ महेंद्रभटनागर की पोयट्री’, ‘एक्ज़ूबरेन्स एंड अदर पोयम्स’, ‘डेथ-परसेप्शन : लाइफ़-परसेप्शन’, ‘पेशन एंड कंपेशन’, ‘पोयम्स : फॉर ए बेटर वर्ल्ड’, ‘लिरिक-ल्यूट’, ‘ए हेंडफूल ऑफ लाइट’, ‘न्यू एनलाइटेंड वर्ल्ड, तथा ‘डॉन टू डस्क’ हैं ।
उनके विशिष्ट कविता-संग्रह हैं: -‘एनग्रेव्ड ऑन द कैनवास ऑफ़ टाइम’, ‘लाइफ : एज़ इट इज़’, ‘ओ, मून, माई स्वीट-हार्ट’, ‘नेचर पोयम्स’ तथा ‘डेथ एंड लाइफ़’। ‘ए मॉडर्न इंडियन पोयट : डॉ॰ महेंद्रभटनागर’ में उनकी कविताओं के फ्रांसीसी में अनुवाद प्रकाशित हैं। इसके अलावा, अठारह कविता-संग्रहों का एक समग्र हिन्दी भाषा
में ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ अभिधान से प्रकाशित हुआ है। आपके साहित्य पर अनेक शोध-कार्य
भी हुए हैं। आपकी कविताओं का हिन्दी के जाने-माने कवियों, लेखकों, आलोचकों ने जैसे — डॉ॰ वीरेंद्र सिंह, डॉ॰ किरण शंकर प्रसाद, डॉ॰ रवि रंजन, डॉ॰ हरिचरण शर्मा, डॉ॰ विनयमोहन शर्मा, डॉ॰ एस॰ शेषारत्नम आदि ने
उनकी काव्य-संवेदना, रचना-कर्म, काव्य-साधना, परख-पहचान, व्यक्तित्व, शिल्प, अंतर्वस्तु, अभिव्यक्ति, शोध के अतिरिक्त तेलुगु- कवि कालोजी नारायण राव
के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया गया है। यही ही नहीं, अंग्रेज़ी में डॉ॰ बैरागी चरण द्विवेदी, डॉ॰ सुरेश चन्द्र द्विवेदी, डॉ॰ आर॰ के॰ भूषण तथा केदारनाथ शर्मा ने उनकी
कविताओं पर गहन अनुसंधान किया है।
प्रोफ़ेसर डॉ॰ सत्यनारायण व्यास (जयपुर) उनके
बारे में लिखते हैं:
“लगभग आधी शताब्दी के वक्ष पर फैले, बीस काव्य-कृतियों का रचना-कर्म किसी भी
समीक्षक या साहित्य-चिंतक को गंभीर बना देने में सक्षम है। इतने बड़े काल-कैनवास पर
जहाँ हिन्दी- कविता के कई आंदोलन उठे, बढ़े और गिरे, कवि महेंद्रभटनागर के दस्तख़त
बराबर बने रहे। यह कहना बेमानी होगा कि उन काव्यान्दोलनों से महेंद्रभटनागर असंपृक्त
या अप्रभावित रहे। देश की आज़ादी से लेकर देश की जमकर बर्बादी के सजग साक्षी डॉ॰
महेंद्रभटनागर ने कालजयी न सही, काल-चेतना की आचार-संहिता का
रचनात्मक ईमान अपनी कविता में जगह-जगह दर्ज़ किया है। किसी श्रेष्ठ कवि का स्वदेश
और स्वजन के प्रति यह छोटा दायित्व नहीं है। कवि का संपूर्ण रचना-कर्म एक साथ पढ़ने
पर, उसका सर्वाधिक प्रतिशत अपने समाज और समय के
हार्दिक जुड़ाव का निकलता है और साहित्य की निर्विवाद हो चली उपयोगितावादी दृष्टि
से कवि का यह बहुत बड़ा दाय है। कहीं भी यह ज़िम्मेदार और विश्वसनीय जन-कवि
आत्म-वंचना का शिकार होता नज़र नहीं आता। यहाँ तक कि व्यक्तिगत रोमांस की कविता में
भी वह सामाजिक दायित्व की आभा से अंतस को उजलाए हुए स्वस्थ प्रेम के ही उद्गार
प्रकट करता है।”
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी-विभाग के
भूतपूर्व विभागाध्यक्ष श्री आर॰एस शर्मा कवि महेंद्र की तुलना डबल्यू॰ बी॰ यीट्स
तथा टी॰ एस॰ इलियट से करते हैं। डॉ॰ शिव कुमार मिश्र उनकी कविताओं पर अपनी टिप्पणी
देते हुए लिखते हैं:
“महेंद्रभटनागर की कविताएँ एक ऐसे कवि के रचना-कर्म की फलश्रुति हैं, अपने अब-तक के आयुष्य के छह दशकों तक अपने समय से सीधी
आँखें मिलाते हुए जिसने उसके एक-एक तेवर को पहचाना और शब्दों में बाँधा है। इन
कविताओं में समय के बहुरंगी तेवर ही नहीं, पूरे समय के पट पर कभी साफ़-सुथरी परंतु ज़्यादातर पेचीदा और गड्डमड्ड लिखी
हुई उस इबारत का भी खुलासा है; जिसे बड़ी शिद्धत से कवि ने
पढ़ा, समझा और उसके पूरे आशयों के साथ हम सबके लिए
मुहैया किया है। छह दशकों की सृजन-यात्रा कम नहीं होती। महेंद्रभटनागर के कवि- मन की सिफ़त इस बात में है कि लाभ-लोभ, पद-प्रतिष्ठा के सारे प्रलोभनों से अलग, अपनी विश्व-दृष्टि और अपने विचार के प्रति पूरी
निष्ठा के साथ, अपनी चादर को बेदाग़ रखते हुए वे नई सदी की
दहलीज़ तक अपने स्वप्न और अपने सकल्पों के
साथ आ सके हैं।”
कहने का अर्थ यह है कि कवि की रचनात्मकता पर
तत्कालीन परिस्थितियों जैसे विभाजन और दंगे, आबादी का उन्मूलन और यंत्रणा, महात्मा गांधी की हत्या, तेलंगाना के किसानों का दमन, प्रगतिशील लेखकों की गिरफ्तारियाँ – पहले आम चुनाव से पूर्व की इन घटनाओं का प्रभाव
पड़ा, जिससे यह साफ़ हो जाता है कि उन्होंने नए भारत
की नींव को हिंसा और ख़ून-ख़राबे की ज़मीन पर निर्मित होते देखा। यही वज़ह है कि उस
कुंठा, हताशा, संघर्ष और आक्रोश ने उनके भीतर जीवनधर्मी चेतना को जन्म दिया। अपनी कविता ‘प्रजातंत्र’ में इस आक्रोश को प्रकट किया है:
जिसका उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है!
जिसका जितना अधिक उपद्रव-मूल्य है
वह उतना ही अधिक पूज्य है !
अनुकरणीय है!
अधिकांग है,
और सब विकलांग हैं!
स्वातंत्र्योत्तर समकालीन हिन्दी-कविता को नई ऊर्जा, उमंग व ऊष्मा देने डॉ॰ महेंद्रभटनागर की कविता का उर्वर प्रदेश लगभग छह
दशकों से फैला हुआ है। वे उस पीढ़ी के कवि हैं जिस समय हिन्दी-कविता में तरह-तरह के प्रयोग हो रहे थे। कवि
निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, नागार्जुन उनके समकालीन थे। यह कहा जा सकता है
कि उन्होंने भी हिन्दी-कविता को नई दिशा प्रदान की।
उनके अंग्रेज़ी भाषा में ग्यारह कविता-संग्रह तथा हिन्दी-अंग्रेज़ी द्विभाषिक में
पाँच कविता-संग्रह — ‘जीवन : जैसा जो है’, ‘चाँद, मेरे प्यार!’, ‘कविताएँ : मानव-गरिमा के लिए’, ‘गौरैया एवं अन्य कविताएँ’, ‘मृत्यु और जीवन’ — उनकी दीर्घ साहित्यिक यात्रा का परिदर्शन कराते हैं, जिनमें जीवन, मानवता, प्रेम, निस्संगता, देश-प्रेम, आज़ादी तथा वैश्विक अनुभवों को कथ्य की परिधि
में रखकर कविता रचित है। बचपन में मैंने कई श्रद्धालुओं को स्वामी प्रभुपाद रचित ‘यथार्थ गीता’ (गीता:एज़ इट इज़) पढ़ते हुए देखा। इस ग्रंथ की यह ख़ासियत
थी कि इसमें गीता के श्लोकों के एक-एक शब्द का अर्थ हिन्दी और अंग्रेज़ी में दिया
हुआ था ताकि पाठक क्लिष्ट संस्कृत शब्दों के संधि-विच्छेद वाले सरलार्थ आसानी से
हृदयंगम कर सके। ठीक इसी तरह, साहित्यिक कृतियों में ये
तीनों कविता-संग्रह ‘जीवन : जैसा जो है!’ (लाइफ : एज़ इट इज़), ‘कविताएँ : मानव गरिमा के लिए’ तथा ‘चाँद, मेरे प्यार!’ मेरे लिए यथार्थ गीता की तरह
अनुपम व अनोखे थे, जिनमें एक तरफ़ उनकी हिन्दी
कविताएँ तो दूसरी तरफ़ उन कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवाद दिए हुए थे। ये संग्रह न केवल राष्ट्रीय वरन् अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर
भी सराहे गए। ये संग्रह अंग्रेज़ी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेज़ी के अन्योन्याश्रित
संबंध व साहचर्य के उल्लेखनीय उदाहरण हैं। हिन्दी के कठिन शब्दों को अंग्रेज़ी भाषा
से तथा अंग्रेज़ी के कठिन शब्दों को हिन्दी के प्रचलित शब्दों के माध्यम से आत्मसात
कर उनकी कविताओं का हिन्दी व अँग्रेज़ी के दोनों पाठक आनंद ले सकते हैं। कवि वैसे
भी शब्द-प्रेमी होता है, उसके पास अथाह शब्द-भंडार होता है। पाठकों का
शब्द-भंडार और समृद्ध होता जाता है, जब इसमें विदेशी भाषा के
शब्दों का विपुल भंडार जुड़ता जाता है।
‘जीवन : जैसा जो है!’ (लाइफ़: एज़ इट इज़) कविता-संग्रह
में कवि ने अपने जीवन के अधिकांश पहलुओं व अनुभूतियों पर अपनी संवेदनाएँ अभिव्यक्त
की हैं। उदाहरण के तौर पर समय, अपेक्षा, पूर्वाभास, प्रार्थना, प्रबोध, भाग्य, इच्छा, चाह, एकाकीपन, मर्माहत, संबंध, विस्मय, पटाक्षेप, घटना-चक्र, मजबूरी, कामना, गलतफ़हमी, दृष्टिकोण, व्यक्तित्व, वेदना, विक्षोभ, आस्था, विश्वास, विपर्यय, ऊहापोह, ईर्ष्या, संकल्प, विकल्प, पुनर्जन्म, सहारा, स्वप्न, गंतव्य जैसे जीवन के अनेकानेक यथार्थ स्वरूपों को कवि ने कविता के माध्यम
से प्रस्तुत किया है। उनकी इन कविताओं में जीवन-धर्मी और जन-धर्मी लय पूरी ऊर्जा
के साथ संचरित हो रही है। डॉ॰ महेंद्र एक स्थितप्रज्ञ की भाँति जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी सभी परिस्थितियों
में तटस्थ रहकर अपने अर्जित तथा प्रारब्ध से प्राप्त अनुभवों को विद्रूप व विरूप
समय में, ह्रास
होते सामाजिक मूल्यों व सांस्कृतिक पतन से जनसाधारण को परिचित करवाकर अपनी
जीवन-धर्मी चेतना का उत्तर-दायित्व निभा रहे हैं। वे प्रगतिशील कवियों की प्रथम
पंक्ति के कवि हैं, जिनकी रचना-धर्मिता ने प्रगतिशील
कविता के फलक को अत्यंत व्यापक बनाया है। उनकी अनुभूति समकालीन कवि केदारनाथ
अग्रवाल, त्रिलोचन या नागार्जुन जैसी रही है, मगर कवि-कर्म पूरी तरह से मौलिक। ‘यथार्थ’ के बारे में कवि का मानना है कि हक़ीकत की
दुनिया में संघर्ष-ही-संघर्ष है। जीवन की मंज़िल पाने के रास्ते इतने सहज नहीं हैं। गुलाब की सेज
नहीं हैं उन रास्तों पर। जीवन-स्थितियों और मनःस्थितियों
को पहचानने की योग्यता कवि महेंद्र को तुलसी और निराला की परंपरा से जोड़ती है। दोनों के परस्पर
संबंधों से यथार्थ और अनुभव का निर्माण होता है। यथार्थ हमारी अंतरंगता का दबाव
लिए रहता है जब कि अनुभव जीवन-स्थितियों के प्रभाव से ही संगठित होता है। यथा :
हर चरण पर
मंज़िलें होती कहाँ हैं?
जिंदगी में कंकड़ों की ढेर हैं,
मोती कहाँ हैं ?
मगर कवि ज़िंदगी से निराश नहीं होता है, वह जीवन के हर लमहे को पूरी तरह से जीना चाहता
है; क्योंकि वह नहीं जानता कि कौन-सा लमहा जीवन छीन ले अथवा कौन-सा लमहा आपके जीवन
को ऐतिहासिक बना दें। इसलिए उनकी कविता मुखरित होती है:
हर लमहे को भरपूर जियो,
जब तक
कर दे न तुम्हारी सत्ता को
चूर-चूर वह!
जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब आदमी अपनी स्मृतियों को भूलने लगता है।
श्मशान, रेलवे-स्टेशन और अस्पताल जीवन के क्षणभंगुर
गतिशील परिवर्तनशील पल को दर्शाते हुए मन में वैराग्य-बोध को जगाकर अपने अस्तित्व
को भूलने पर विवश कर देता है, मगर कुछ क्षण के लिए। ध्यान
देने योग्य बात है, जैसे ही कोई आदमी श्मशान से
लाश जलाकर घर लौटता है तो वहाँ की अनुभूतियों से कुछ समय के लिए आया वैराग्य-बोध
फिर से जगत-जंजाल में बदल जाता है। ऐसी ही उनकी एक अनुभूति:
औचक फिर
स्वतः मुड़ लौट आता हूँ
उपस्थित काल में !
जीवन जगत जंजाल में !
उनकी कविताओं की यह विशेषता है कि वह दोहरी ज़िंदगी
नहीं जीते हैं। जैसा उन्होंने अनुभव किया वैसा ही लिखा। उनकी कविताओं को पढ़ते समय
ऐसा लगता है मानो आप अपने माता-पिता, गुरु अथवा आत्मीय संबंधियों के साथ बातचीत करते हुए एक अविस्मरणीय दीर्घ
महायात्रा के तुंग पर किसी कवि के पारदर्शी व्यक्तित्व में सहजतापूर्वक झाँक रहे
हों। पढ़ते-पढ़ते आपको लगेगा कि उनकी कविताओं का जन्म स्व-अनुभूतियों व गहन अनुभवों
के आधार पर हुआ है। इसी कारण, अभिव्यक्ति की शैली उल्लेखनीय बन पड़ी है। अपनी अग्रज
कविता पीढ़ी और समकालीनों की तरह अपनी कविताओं में अत्यंत साधारण लोग, उनके जीवन-चरित्र, जिजीविषा, मानव-गरिमा, प्रेम को उद्देश्य बनाकर गहन संवेदना और सच्ची
सहानुभूति के साथ प्रस्तुत हुआ है। कवि की भाषा सहज, सार्थक और आत्मीय काव्य-भाषा है। हिन्दी-गद्य की बोलचाल के उपयोगों के
अलावा वे बीच-बीच में तुक और छंद के प्रयोग से काव्य-भाषा का आस्वाद बदलते रहते
हैं।
1॰ आ जाती जीवन-प्यार लिए जब संध्या की बेला
हर चौराहे
पर लग जाता अभिसारों का मेला
2॰ एक कण प्रिय नेह का
एक क्षण
सुख देह का
मन-कामना वर दो! (याचना)
3. रिक्त उन्मन उर-सरोवर भर दिया
भावना-संवेदना
को स्वर दिया! (कौन तुम)
4॰ रंग
कोमल भावनाओं का भरा
है लहरती देखकर धानी धरा (गीत में तुमने सजाया)
4. रीझा
हुआ मोर-सा मन मगन
बाहें विकल, काश भर लूँ गगन
कैसे लगी विरह की अगन (रूपासक्ति)
कवि की चिर-वंचित, जीवंत, अतिचार, पूर्वाभास, अवधूत, सार-तत्व, निष्कर्ष, तुलना आदि कविताओं में जीवन
के एकाकीपन, दुख-दर्द, ताश के पतों की तरह टूटते निपट स्वार्थ के संबंध, अस्तित्व-हीनता, स्थितप्रज्ञ होने की
आवश्यकता, जीवन की असारता, निर्लिप्तता और अनिश्चितता का विषयवस्तु में उल्लेख आता है। कहीं-कहीं कवि
महेंद्र की कविताओं में मोह-भंग और स्वप्न-भंग होता हुआ प्रतीत होता है। शायद, कवि
जिन अपेक्षाओं से आज़ादी लाने के लिए प्रयत्नरत थे, वे पूरी नहीं हुईं। एक तरफ़ जनता के टूटे सपनों से उपजी निराशा और कुंठा, दूसरी तरफ़ इस निराशा और कुंठा को सनातन सत्य और
मानव-मूल्य बनाने के उनके प्रयास यह स्पष्ट करते हैं कि जब स्वाधीनता के साथ समाज
के अंतर्विरोधी स्वर तीखे होते गए, तब कवि ने अपनी कविता को
भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों में विभाजित कर सामाजिक सहानुभूति की कसौटी पर अपनी
भावानुभूतियों को सहज-बोध से लिखना शुरू किया। जहाँ प्रगतिशील कवि जनता के टूटे
सपनों और संघर्ष-भावना को वाणी दे रहे थे, जहाँ प्रयोगवादी कवि सामाजिक चेतना को झूठ और पाखंड बता रहे थे, वहाँ मानव-धर्मी कवि महेंद्र अपने आत्म-चेतना के
अलौकिक धरातल पर जीवन की सार्थकता, मानव-गरिमा और प्रेम-काव्य
का प्रतिपादन कर रहे थे। कवि महेंद्र जानते हैं कि विचार जितना स्पष्ट होता है, अनुभव जितना संबंधों से पुष्ट होता है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही सटीक और संप्रेषणीय
होती है। भक्त-कवियों से कबीर, जायसी, मीरा, तुलसी से अच्छी कविता लिखने का दावा बड़े-से-बड़ा समकालीन कवि नहीं कर सकता।
भक्त-कवियों की रचना साधारण लोग भी समझते हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र यह बात जान गए
थे कि जनसाधारण के ह्रदय में उतर जाने वाली बात अमर हो जाती है। कवि महेंद्र भी
अपने अनुभव को साधारणीकृत करके कविता में व्यक्त करते समय अपनी भाषा और अभिव्यंजना
पर विशेष ध्यान देते हैं। एंग्लेस ने एक आइरिश लोक-कवि का यह कथन उद्धृत किया था
कि भाषा और आज़ादी में चुनना हो तो वह भाषा को चुनेगा; क्योंकि भाषा रही तो वह आज़ादी
ले लेगा, लेकिन अगर भाषा मिट गई या छीन ली गई तो आज़ादी
नहीं बच सकेगी। जैसे कुछ पंक्तियाँ :
1 – हर ज्वालामुखी को
एक दिन सुप्त होना है !
सदा को लुप्त होना है ! (पूर्वाभास)
2 – वस्तुतः
जिसने जी लिया संन्यास
मरना और जीना
एक है उसके लिए
विष हो या अमृत
पीना
एक है उसके लिए ! (अवधूत)
3 – लेकिन
निश्चित रहो –
कहीं न फैले दुर्गंध
इसलिए तुरंत लोग तुम्हें
गड्ढे में गाड़/दफ़न
या
कर संपन्न दहन
विधिवत कर देंगे ख़ाक/भस्म
ज़रूर ! (सार-तत्त्व)
4 – सत्य –
कर्ता और निर्णायक तुम्हीं हो
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से। (निष्कर्ष)
5 –कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए
कब एक झटके में सब बिगड़ जाए ! (तुलना)
उपर्युक्त कविताओं की पंक्तियाँ पढ़ने पर ऐसा
लगता है मानो कवि यथार्थ जीवन जीने के लिए गीता के श्रीकृष्ण की तरह उपदेश दे रहे
हो। रह-रहकर जीवन की असारता के बारे में याद दिला रहे हो, निर्लिप्त रहकर कर्म करने का उपदेश दे रहे हो। प्रसिद्ध समकालीन ओडिया कवि
रमाकांत रथ की तरह जीवन तथा मृत्यु के प्रति संचेतना के स्वर कवि महेंद्र में
मुखरित हुए है। जहाँ रमाकांत रथ अपनी कविता ‘जहाज आएगा’ में जीवन के अस्थायित्व की
ओर ध्यान आकर्षित करते हैं:
आज वह जहाज आएगा
जिससे एक दिन इस जगह पर
उतरा था मैं
आज उस जगह को छोड़कर उसमें
चला जाऊंगा मैं
तुम जल होते हुए भी
अग्नि की तरह मेरे चारों तरफ़ मौजूद हो
तुम हलाहल हो
तुम रसातल हो
तुम एक गोदाम हो
अस्थायित्व के !
कवि महेंद्र की तरह रमाकांत रथ का भी वही
दृष्टिकोण अधिक गोचर होता है, जो हर समय मृत्यु को अपने नज़दीक
देखता है। कवि महेंद्र की ‘अनुभूति’ कविता में मनुष्य जीवन की सारी मूर्खताओं, ग़लतियों तथा समाज द्वारा थोपे गए रीति-रिवाज़ों
के तले दबकर जीवन जीने का ढंग भूलकर अपनों पर अविश्वास और परायों पर विश्वास कर
छद्म मुखौटे पहने धूर्तों से लूटे जाने का उल्लेख है। मगर जब आँखें खुलती हैं तो
सिवाय पछताने के और कुछ नहीं बचा रह जाता है। इसी तरह ‘यथार्थता’ कविता में कवि ने आलंकारिक
भाषा का प्रयोग करते हुए जीवन जीने का अर्थ दो नावों की सवारी, पैरों के नीचे विष-दग्ध दुधारी तलवार, गले की फांस, बदहवास, भगदड़, मारामारी, लाचारी और अमावस्या की अँधेरी
रात बताया है। क्या यह बात सही नहीं है? दुनिया में ऐसा कौन होगा जिसने जीवन में कभी कष्ट नहीं उठाया होगा और जीवन
में हमेशा पुष्पों की सेज-शैया का सुख पाया होगा? शायद, कोई नहीं। इसी तत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कवि महेंद्र ने अपनी कविता
‘खिलाड़ी’ में बिना अगल-बगल देखे जीवन की निरंतर दौड़ में थकते-गिरते-उठते-बैठते बिना
किसी प्रतिस्पर्धा के अविरल दौड़ते जाने तथा जीवन के ऊष्ण समुद्र में हाथ
झटकते-पटकते बिना हार माने मछली की तरह अविरत तैरते जाने को गतिशील जीवन कहा है, क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी अमर आत्मा के
सामने हृदयघात, पक्षाघात यहाँ तक कि सारा मृत्युलोक दूर भागता है। इसलिए वे मृत्यु पर विजय पाने के
लिए जीवन-पर्यंत श्रमजीवी रहने का संदेश देते है। इस प्रकार कवि की दृष्टि नितांत
एक नए ढंग की है। यह उसकी कविता को ऊर्जा और स्फूर्ति देती है। सूक्ष्म, सधे और प्रच्छन्न रूप से। कहते हैं, अच्छे कवि में अपने समय के स्वरों के अलावा आने वाले कल की भी छाप होती
है। आज में रखा हुआ कविता का आइना अपने दोनों ओर के कल को देखता है। वैसे भी
वर्तमान को बेहतर और भविष्य को सुंदर बनाने की कोशिश ही समकालीन साहित्य को
सर्वकालिक बनाती हैं। कवि का सतत सृजन-कर्म, उसकी इसी अप्रतिहत विकास-यात्रा के प्रति आश्वस्त करती है। ‘राग-संवेदन’ कविता में रिश्तों की दहकती आग में संवेदना अनुभूत आत्मीयता से सिक्त राग
के कुछ क्षणों को यादगार बनाया गया है। शेष तो कुछ याद नहीं रहता। ‘ममत्व’ के बारे में आधुनिक समाज की यथार्थता का वर्णन किया है – न दुर्लभ हैं/न हैं अनमोल/मिलते ही नहीं, इहलोक में, परलोक में /आँसू .... अनूठे प्यार के/आत्मा के/अपार-अगाध-अति-विस्तार के! ‘जिजीविषु’
कविता में जीवन में अत्यंत दुख-दर्द, दाह, झुलस, कड़वाहट होने के बावज़ूद संसारी मायाजाल में प्राणी फँसकर और जीने की उम्मीद
करता है। ओ, आत्महंता/द्वार वातायन करो मत बंद/शायद समदुखी कोई भटकती जिंदगी आ/
कक्ष को रँग दे/सुना स्वर्गिक सुधाधर गीत! इस तरह की अन्य कविताओं में ‘वरदान’, ‘स्मृति’,‘बहाना’, ‘दूरवर्ती से’, ‘बोध’, ‘निष्कर्ष’, आदि हैं। ये प्रेम, सांत्वना, मनुहार, रूठना, अहसास, कामना, संगीत आदि संवेदनाओं पर आधारित हैं। ‘प्रतीक’ कविता में प्रेमिका जब पुष्प-गुच्छ प्रेमी के
कमरे में छोड़कर चली जाती है तो वह भाव-विभोर हो जाता है और उसके जीवन का अर्थ पूरी
तरह बदल जाता है:
जीवन का अर्थ
अरे , सहसा बदल गया,
गहरे-गहरे गिरता
जैसे कोई सँभल गया!
भर राग उमंगें
नयी-नयी!
भर तीव्र तरंगें
नयी-नयी !
‘तुम’ कविता में जीवन-साथी का जीवन की पगडंडी पर साथ निभाने, ‘अकारथ’ कविता में प्रेमिका का प्रेम पाने के असफल प्रयासों, ‘सहसा’ व ‘एक रात’ में उसकी स्मृतियों, ‘संसर्ग’ में मन को आकाश में उड़ने की ख़्वाहिश, ‘संस्पर्श’ कविता में अंगुलियों के स्पर्श की मधुर संवेदनाओं को उकेरा गया है। ‘सहपन्था’ कविता में बीहड़ ज़िंदगी की लंबी राह, जीवन-संगिनी के साथ शांतिपूर्वक पार कर
आने पर मन भर आया, यह कहते हुए –
तर-बतर
करते रहे तुम सफ़र
थामे हाथ/ बाँधें हाथ,
साथ-साथ
पार कर आए अजनबी
ज़िंदगी की राह/ लंबी राह !
‘निकष’,‘समवेत’,‘सुलक्षण’,‘पुनरपि’,‘तिघरा’,‘प्रधूपिता से , निवेदन’,‘अंगीकृत’, कविताओं में कवि ने हृदय की विभिन्न संवदनाओं जैसे प्रेम पाने की चाह, जीवन की तृष्णा, रोमांच, उल्लास, राग, हर्ष, उत्सुकता, आसक्ति, सपने, उपहास, स्नेह, रुदन, शृंगार, आलिंगन, अभिशाप, सभी को काव्यमय भाषा में सँवारा है। ‘कौन हो तुम’ कविता में विरह-वेदना को अभिव्यक्त
करते हुए कवि ने अचरज प्रकट किया है कि अँधेरी सुनसान रात में मेरे विषधर तिक्त
अंतर में मधुर सद्-सांत्वना का संगीत किसने घोल दिया! कवि चाँद से अत्यधिक
प्रभावित है। उन्होंने ‘मेरे चाँद’, ‘चाँद और पत्थर’, ‘चाँद, मेरे प्यार’, आदि कविताएँ लिखीं। चाँद को आधार बनाकर अपने हृदय की बात ‘मेरा चाँद मुझसे दूर है!’ प्रस्तुत की है। ये आँखें क्षितिज पर/ आस से, विश्वास से/ निश्छल देखती/ हर रश्मि को उल्लास से,/ क्योंकि यह सत्य है/ उसमें
चाह मिलन ज़रूर है/ मेरा चाँद मुझसे दूर है! जबकि दूसरी कविता ‘चाँद और पत्थर’ में चाँद को पत्थर दिल बताया
है कि न तो तुममें सत्य आकर्षण है, न ही सभ्य मधुवर्षण है।
तुमसे प्यार करना व्यर्थ है और तुम्हारी मनुहार करना भी व्यर्थ है। फिर उसी शीर्षक
से दूसरी कविता में उसके विपरीत अहसास प्रकट किया कि तुम पत्थर हृदय नहीं हो तुम
तो किसी का प्यार-बंधन या जीने की आशा हो, मगर दुख इस बात का है कि तुम इस धरती पर नहीं हो। जबकि कविता संग्रह ‘चाँद मेरे प्यार’ की शीर्षक कविता में चाँद को देखते ही कवि को किसी मासूम मुखड़े की याद ताज़ा हो जाती है। कवि कहता है :-
क्या कह रहे हो ?
ज़ोर से बोलो –
‘कि पहचाना नहीं !
.हुश! प्यार के नखरे न ये अच्छे तुम्हारे
अब पकड़ना ही पड़ेगा
पहुँच किरणों के सहारे !
देखता हूँ और कितनी दूर भागोगे
मुझे मालूम है कि
तुम बिना इसके न मानोगे !
कवि की कुछ कविताएँ मानव-मन की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को स्पर्श
करती हैं, जिसमें ‘नींद’, ‘आकुल अंतर’,‘विवशता’,‘मृगतृष्णा’,‘आकर्षण’,‘स्मृति की रेखाएँ’’,‘दुराव’, ‘आत्म-स्वीकृति’ प्रमुख हैं । कवि के रचना-कर्म में अपने-परायों से धोखा
खाने, जीवन के दुखों को झेलने और निस्संगता की चेतना को भोगने की प्रमुखता मिली है। अनेक
कविताएँ जीवन के एकाकीपन की वेदना को दर्शाती हैं, जैसे –
ऐसा कौन है
परिचित तुम्हारा?
अजनबी हैं सब
अपरिचित हैं
इतने बड़े फैले नगर में!
कोई कहीं
आता नहीं अपन
नज़र में।
जैसे-जैसे आदमी नई-नई ऊँचाइयों के कीर्तिमान स्थापित करता है, वैसे-वैसे वह भीतर-ही-भीतर खोखला होता जाता है, दुनिया उसे अपरिचित लगने लगती है, सब अपने सुख-दुख में लिप्त हैं, किसके साथ बातचीत की जाए, ऐसा कोई नज़र नहीं आता। उनकी ‘अकेला’ कविता इसी बात को प्रस्तुत करती है। जैसे ही शाम होती है, तय है, कोई मिलने नहीं आएगा। यह सार ‘पटाक्षेप’ कविता का है। नीरस-नीरव जीवन से ‘मर्माहत’ कवि अपने अंदर-अंदर ‘खंडित मन’ से दहकते अंगारों की शैया
पर कराहते हुए मर-मर कर जीने के लिए विवश
है। उसे लगता है, अपने ही लोग उसके साथ कुटिल विश्वासघाती खेल खेलना शुरू कर देते
हैं।जिनसे वह न बच सकता है और न ही आत्महत्या कर सकता है। केवल
अकेले-अकेले मानसिक संताप की नरकाग्नि में जलता है वह। साथ-ही-साथ, टूटे विश्वास के कारण निरर्थक जीवन की गहनतम
वेदना अपने भीतर समेटे चुपचाप अपने अस्तित्व का विसर्जन करता है। कवि भावुक बहुत
है। जीवन की वेदनाओं से उसे अत्यंत प्यार है। वेदना-धर्मी तरंगों द्वारा गुदगुदाने जाने पर अपनी आहत चेतना को जागृत करता है वह। उसे तो
जीवन के खारे समुद्र में सिर्फ़ शोकाकुल तरंगें, रिसते घाव, पल-पल पीड़ा के अनुभव महसूस होते हैं। ‘अंतिम अनुरोध’ कविता में ऐसे ही स्वर प्रस्फुटित हुए हैं :
यों तो
अंतिम क्षण तक
तपना ही तपना है,
यात्रा-पथ पर
छाया-तिमिर घना है !
एकाकी –
जीवन अभिशप्त बना
हँसना रोना सख़्त मना !
कविता में विचार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती
है। जीवन में बौद्धिक चेतना जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कविता की रचनात्मकता खिल उठती है। आज विचारशून्य कविता की
संभावना नहीं हो सकती है। कविता मनुष्य के रागात्मक और सौंदर्य-बोधगम्य अस्तित्व
की झलक देती है। इंद्रिय-बोध, भाव और विचार तीनों का
संतुलन कविता को श्रेष्ठ बनाता है। यही कारण है, कवि महेंद्र की कविताओं की सपाट बयानी नई कविता के लिए महत्त्वपूर्ण
प्रतिमान स्थापित करती है। जबकि मुक्तिबोध की कविताएँ सीधे-सीधे विचारों से निर्मित होकर आवेगों के
फूटे हुए निष्कर्ष हैं। यथा-
कविता में कहने की आदत नहीं है
पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूँजी से जुड़ा हृदय
बदल नहीं सकता।
कवि महेंद्र की ‘अभिप्रेत वंचित’, ‘अप्रभावित’, ‘आत्म-निरीक्षण’,‘वास्तविकता’,‘बोध’,‘सच है’, ‘घटनाचक्र’,‘आत्म-संवेदन’,‘सामना’ आदि कविताएँ सीधे विचारों से उत्पन्न होने के बावजूद भाव-उद्वेग व अंतस् आवेग से भी समृद्ध हैं। मानो पीड़ा कवि को लिखने के लिए
बाध्य कर रही है। कवि महेंद्र की इन कविताओं की एक अन्य विशेषता यह भी रही है कि वे अपने जनधर्मी, जीवनधर्मी और बदलते परिवेश के प्रति सजगता-चेतना भी लिए हुए हैं। साथ ही, इस सीमा-रेखा को लाँघकर उनकी काव्य-रचना कविता के सनातन विषयों की ओर
भी अग्रसर हुई, जैसे प्रेम, प्रकृति, जीवन और मृत्यु आदि। स्वतन्त्रता आंदोलन के शुरूआती दौर में कविताओं से जो
आवेग-संवेग था; उनकी कविताओं में उसकी प्रतिध्वनि सुनाई नहीं देती। कवि
महेंद्र की कविताओं में सतही अथवा सपाट बयानबाज़ी नहीं है। भले ही, उनकी कविताओं में बिम्ब, उपमा, अलंकार आदि का प्रयोग कम हुआ हो अर्थात शिल्प, भाषा, काव्य-शैली की दृष्टि से वे क्लिष्ट न हों; मगर अनुभव-जन्य अंतर्वस्तु के कारण कविताओं की
सारगर्भिता, प्रांजलता और प्रशान्ति की वजह से उन्हें किसी कृत्रिम भंगिमा को बनाए रखने के लिए
बाह्यडम्बर के प्रयोग की ज़रूरत नहीं है। उनकी ‘मूरत अधूरी’,‘मजबूरी’,‘चाह’,‘जीने के लिए’,‘आग्रह’,‘कामना’,‘कविता-प्रार्थना’,‘पहचान’,‘चरम बिन्दु’, आदि कविताएँ जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सचेतनता और सहनशीलता दर्शाती हैं। हिंदी की महत्त्वपूर्ण समकालीन कविता
मानवतावादी विचारधारा की दृष्टि से नागार्जुन-केदार-त्रिलोचन के अलावा जिन कवियों के दृष्टिकोण को प्रासंगिक मानती है, उनमें डॉ॰ महेंद्रभटनागर व रघुवीर सहाय प्रमुख है। कवि महेंद्र प्रकृति और
मनुष्य के आपसी संबन्धों में स्वतन्त्रता चाहते हैं। वे किसी भी प्रकार के आधिपत्य को स्वीकार नहीं करते। ‘मुक्तिबोध’ (freedom spree) शीर्षक कविताओं में व्यक्ति-स्वाधीनता की झलक पाएंगे। यथा :
शुक्र है –
अब मुक्त हूँ हवा की तरह
कहीं भी जाऊँ
उडू, नाचूँ, गाऊँ!
शुक्र है
उन्मुक्त हूँ लहर की तरह!
जब चाहूँ –
लहराऊँ, बलखाऊँ,
चट्टानों पर लोटूँ
पहाड़ियों से कूदूँ
वनस्पतियों पर बिछलूँ!
इसी शृंखला की अन्यतम कविताओं में ‘अतृप्ति भेंट’, ‘इतवार का एक दिन’, ‘विश्लेषण’, ‘निष्कर्ष’,‘विक्षेप’, ‘गंतव्य-बोध’, ‘विराम’ हैं; जो कवि के आन्तरिक विवेक को प्रमुखता देती हैं। यह बात भी सत्य है कि नागार्जुन और धूमिल
दोनों प्रखर राजनीतिक चेतना वाले कवि हैं। दोनों राजनीति को सामाजिक हितों के
प्रश्न से अलग करके नहीं देखते। उनके कविताओं के विषय जाति-बिरादरी, सामंती उत्पीड़न, पूँजीवादी शोषण और क्रांतिकारी परिवर्तन हैं। मगर कवि महेंद्रभटनागर इसकी जड़ तक जाते हैं। वे आदमी को राजनीति और सामाजिक क्रान्ति का केंद्र मानते
हैं। उनके विशिष्ट कविता-संचयन ‘कविताएँ: मानव-गरिमा के लिए’ में समाविष्ट कविता ‘दो ध्रुव’ इस खाई को सामने रखती है:
हैं एक और भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न ।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब !
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत !
दूसरी तरफ़ –
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त...... त्रस्त,
अनपढ़, दलित, असंगठित,
खेतों गाँवों / बाज़ारों – नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शक्तिहीन !
इस खाई को भरने के लिए वे समता का सपना देखते है:
लेकिन विश्व का इतिहास साक्षी है –
परस्पर साम्यवाही भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी,
न मानेगी पराभव !
लक्ष्य तक पहुँचे बिना
होगी नहीं विचलित,
न भटकेगा / हटेगा
एक क्षण अवरुद्ध हो लाचार
समता-राह से मानव!
मगर सब कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद भी
आज आदमी अपनी आदमीयत खो बैठा है। विषय-वस्तु और भाषा-गठन के प्रति सचेत रहकर कवि ने
आज के साहित्यिक-संस्कार और शब्द-संकोच की सीमाएँ तोड़ी हैं। वे इसमें सफल हुए हैं; क्योंकि यथार्थ को
स्थानीकृत करके देखते समय न वे ‘जड़ों’ में प्रवेश करके भरे-पूरे मानवीय परिवेश से आँख
चुराते हैं, न विहंगावलोकन की पर्यटक भाव-भंगिमा अपनाते
हैं। वे पूरी सहृदयता और विनम्रता से, रक्त-संबंधों की आत्मीयता से उस जीवन के पास गए हैं। इसलिए वे यह देख सके
हैं कि आस्था और विश्वास की सतह के नीचे आदमी का सजीव संसार है। अपनी कविता ‘आदमी’ से :
किन्तु अचरज
आदमी है
आदमी से आज
सर्वाधिक अरक्षित
आदमी के मनोविज्ञान से
बिलकुल अपरिचित
आदमी
आदमी से आज
कोसों दूर है,
आत्मीयता से हीन
बजता खोखला
हरदम
सिर्फ़ ग़रूर है ।
ऐसी ही संवेदना का संचार युवा ओडिया कवि अनिल
दास की कविता ‘बड़ा आदमी’ में भी देखने को मिलता है :
हमारे गाँव का गँवार
आपसे अच्छा
किसी के मरने पर घाट तक तो जाता है
लकड़ी पुआल इकट्ठा करता है
शादी-ब्याह में पानी ढोता है
दरी बिछाने में मदद करता है
मेलों और उत्सवों में
यथाशक्ति चन्दा देता है
आप तो अमावस के तारे की तरह
न बारिश होने देते हो
न एक घड़ी उजियारा करते हो ।
कवि महेंद्र का ओड़िया कवियों जैसे रमाकांत रथ
और अनिल दास के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर मैंने पाया कि कुछ संवेदनाएँ
सार्वभौमिक होती हैं। वे स्थान, भाषा, परिस्थिति, वातावरण , उम्र और काल सभी से
अपरिवर्तित रहकर मानव-हृदय में सर्वदा उद्वेलित होती रहती हैं। जहाँ सारी विश्व-व्यवस्था उत्पीड़क और उत्पीड़ित की ‘दो पंक्तियों’ से निर्मित हुई हो, वहाँ तटस्थ रहकर कवि अपना
संसार नहीं बना सकता। संबंधों के दमनकारी रूप को समझाना, उनके प्रतिरोध और निषेध
की वैकल्पिक चेतना अर्जित करना, जीवन-संग्राम के बीच रोज़-रोज़ ढलती हुई भाषा से दमन, प्रतिरोध और विकल्प की सारी प्रक्रिया को अभिव्यक्त करना एक कवि के लिए काफ़ी चुनौती भरा काम है। यह काम केवल भाषिक
युक्तियों से नहीं होता; कवि को सामाजिक संबंधों की
जटिलता, अंतर्द्वंद्व और गतिशीलता को आत्मसात करके अपना
कर्तव्य निश्चित करना पड़ता है और अपनी पक्षधरता पर दृढ़ता से क़ायम रहकर पूरे परिदृश्य को समेटना पड़ता है। डॉ॰
सत्यनारायण व्यास के अनुसार डॉ॰ महेंद्रभटनागर के काव्य का आधार सामाजिक है और
अधिरचना साहित्यिक। उनकी सोच जनवादी है और भाषा स्तरीय। वे अनपढ़-अनगढ़ जन की बात को
भी साहित्य की तराजू में तौलकर कहते हैं। इस मामले में वे अन्य जनवादी कवियों से
भिन्न हैं। भाषिक शिल्प की उत्कृष्टता
को संभवतः उन्होंने अपनी रचनात्मक अस्मिता से इस क़दर जोड़ लिया है कि वे फुटपाथ के संघर्षरत
सर्वहारा की तकलीफ़ को भी असाहित्यिक अंदाज़ में नहीं कह सकते। डॉ॰ महेंद्रभटनागर की
कविताओं से गुज़रते हुए इस बात पर पूर्णतया यक़ीन हो गया कि वे एक आस्थावान, दायित्व-संपन्न, समय-सजग और साहित्य के क्षेत्र में आवश्यक हस्तक्षेप करने वाले ताक़तवर रचनाकार है, जो मात्र कवि कहलाने के लिए कविताएँ नहीं करते हैं। महेंद्रभटनागर की कविता मात्रा
और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टियों से भारी और श्रेष्ठ हैं। वे किसी ख़ास किस्म की विचारधारा से ‘प्रतिबद्ध’ या अंधभक्त नहीं हैं। हाँ, प्रभावित ज़रूर हैं – समाजवाद हो, मार्क्सवाद हो, प्रयोगशील और प्रगतिशील आंदोलन हो। सावधान और सूक्ष्म अनुशीलन से उनकी कविता
सहज भाव से मानवता में ही संपन्न और परिणत होती है, न कि किसी वाद विशेष में। यह किसी भी अच्छे कवि की रचनात्मक स्वाधीनता और
स्वायत्तता का प्रशंसनीय पहलू है। यह सारी बातें आप उनकी प्रतिनिधि कविताओं जैसे ‘विपर्यस्त’, ‘आत्मबोध’,‘विडम्बना’, ‘प्राणदीप’, ‘गंतव्य’, ‘वरदान’, ‘वेदना’, ‘जीवनधारा’, ‘आँसुओं का मोल’ आदि में पा सकते हैं। उनकी ‘वैषम्य’ कविता में :
हर व्यक्ति का जीवन
नहीं है राजपथ –
उपवन सजा, वृक्षों लदा
विस्तृत अबाधित
स्वच्छ समतल स्निग्ध!
एक विशेष पहलू महेंद्रभटनागर की कविता में है —
मानव-जिजीविषा। जो मरना नहीं जानतीं अर्थात् जीवन के प्रति अकुंठ राग उनकी कविताओं को नया वितान प्रदान करता है। अनुभव
को कविता बनाने में संघर्ष का एक स्तर भाषा है, दूसरा स्तर सपना। वह हमारे मानवीय स्वरूप और आंतरिक संवेदना पर भी असर
डालता है। इसलिए यह पूरे जीवन का नियमन करता है। प्रतिरोध करने का कोई भी प्रयास
तभी सार्थक हो सकता है जब वह भी पूरे जीवन को दृश्य-परिधि में रखे। इसलिए जीवन को आधार
बनाकर उन्होंने अनेक कविताएँ लिखी हैं :
ज़िंदगी
बदरंग केनवस की तरह
धूल की परतें लपेटे
किचकिचाहट से भरी
स्वप्नवत है
वाटिका पुष्पित हरी!
पर जी रहा हूँ
आग पर शय्या बिछाये!
पर
जी रहा हूँ
कटु हलाहल कंठ का गहना बनाए!
ज़िंदगी में बस जटिलता ही जटिलता है
सरलता कुछ नहीं।
यह सहजता से कहा जा सकता है कि कवि महेंद्र की
कविता की संरचना अत्यंत ही सुगठित है। हर
चीज़ संबद्ध है। शिल्प-संवेदना का यह एकीकरण
रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन-दर्शन की याद दिलाता है, जो उपनिषदों, भागवत और पुराणों के
सारगर्भित व सार्वभौमिक उपदेशों का निचोड़ है। मगर विषय-वस्तु में डॉ॰ महेंद्रभटनागर का
अपना अलग स्थान है। संबंध और स्वतन्त्रता के अंतर्द्वंद्व को उकेरने में ही जीवन का
मर्म छिपा हुआ है। संगठन की ताक़त एकरूपता में नहीं है, बल्कि जीवन के विविध पक्षों को सँजोकर आत्मसात करने में है। विशिष्ट ख्याति
लब्ध साहित्यकार डॉ॰ शिवकुमार मिश्र की महेंद्रभटनागर की कविता पर की गई टिप्पणी
इस बात की पुष्टि करती है। “एक लंबे रचनाकाल का साक्ष्य
देती इन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की बहु-आयामी मनोभाव और मनोभावनाओं की बहुरंगी
प्रस्तुति है। इनमें युवा मन की ऊर्जा, उमंग, उल्लास और ताज़गी है तो उसका अवसाद असमंजस और बेचैनी भी।
ललकार, चेतावनी, उद्बोधन और आह्वान है तो वयस्क मन के पके अनुभव तथा उन अनुभवों की आँच से तपी निखरी सोच
भी है। कहीं स्वरों में उद्घोष है तो कहीं वे संयमित हैं । समय की विरूपता, क्रूरता और विद्रूपता का कथन है तो इस सबके खिलाफ़ उठे प्रतिरोध के सशक्त स्वर भी। समय के दबाव हैं तो उनका तिरस्कार करते हुए प्रखर होने वाली
आस्था भी। परंतु इन कविताओं में मूलवर्ती रूप में सारे दुख-दाह और ताप-त्रास के
बीच जीवन के प्रति असीम राग की ही अभिव्यक्ति है। आदमी के भविष्य के प्रति
अप्रतिहत आस्था की कविताएँ हैं ये,और इस आस्था का स्रोत है कवि का इतिहास-बोध और
उससे उपजा उसका ‘विज़न’। कवि के उद्बोधनों में आदमी के जीवन को नरक बनाने वाली शक्तियों के प्रति,
उसकी ललकार में एवं आदमी के उज्ज्वल भविष्य के प्रति उसकी निष्कम्प आस्था में उसके
इस ‘विज़न’ को देखा जा सकता है।" इस विज़न को अपनी कविता ‘प्रतिक्रिया’ में इस प्रकार
उजागर किया है:
अणु-विस्फोट से
जाग्रत आत्मा महात्मा बुद्ध की बोली –
सुनिश्चित शांति हो,
सर्वत्र
सद्-गति-सतग्रह की कान्ति हो !
सुरक्षित –
सभ्यता, संस्कृति, मनुजता हो,
दुनिया से लुप्त दनुजता हो !
अंत में, डॉ॰महेंद्रभटनागर कविता को जीवन या जीवन को कविता में, अवतरित करते हुए उसे बृहत् पारिवारिक जीवन में
अंगीकार करते हुए, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की
अवधारणा पर, समग्र मानवीय रिश्तों को स्वस्थ, हँसमुख और लोकतांत्रिक बनाने का आग्रह करते हैं।
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दिनेश माली
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M- 9438878027
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