मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

                               

संस्मरण
सक्रिय रचना-धर्मी गुरुवर महेंद्रभटनागर
डॉ. लक्ष्मणसहाय

ही इतनी बोधता थी ही अबोधता, ही जिज्ञासा और ही महत्त्वाकांक्षा। यह अवस्था थी मेरे आठ-नौ वर्ष के बचपन की। इस अवस्था में प्रायः मैं कई विद्वानों के बीच नाना  महावीरप्रसाद जी के छोटे पुत्र शम्भूनाथ जी को हँसते, ठहाके लगाते, बतियाते, गंभीरता से विचार-विनिमय करते देखा करता था। इनमें मैंने गुरुवर महेंद्रभटनागर जी को भी सर्वप्रथम सहज हँसते, बतियाते और गंभीरता से विचार-विमर्श करते देखा। वहाँ हम बच्चों को जाने नहीं दिया जाता था। बस, यह मेरा उनसे बचपन का परिचय था; जो मेरे नेत्र-पटल पर आज भी स्पष्ट उकर आता है। समय कब बीत गया पता ही नहीं चला।

प्रारम्भिक जीवन में अनेकशः संघर्षों के भँवर से बचते हुए मैंने एम. . हिन्दी में प्रवेश सन् 1969 . में लिया। इस समय मैं विगत छह वर्षों सेनगर निगम ग्वालियरमें सर्विस कर रहा था। इस कालाविधि में प्रयवेट एम. . नहीं होता था, इसलिएमहारानी लक्ष्मीबाई कला-वाणिज्य महाविद्यालयमें प्रवेश लिया। सुबह सात बजे से कॉलेज और साढ़े-दस बजे से नौकरी। फिर विवाह हो जाने के बाद घर-परिवार की समस्याएँ। इस असम-विषम स्थिति में पत्नी प्रमिला जी का कदम-कदम पर साथ मिला लिखने-पढ़ने में सहयोग दिया।

एम॰ ए॰ में कथा-साहित्य प्रीवियस में ही था; जिसमें प्रेमचंद जी पढ़ने थे। इसके लिए विषय-विशेषज्ञ प्रोफेसर ने दो-तीन ख्यातिलब्ध आलोचकों की पुस्तकें पढ़ने के लिए लिखाईं। उनमें समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंदभी थी। साहित्य-जगत में उन दिनों इसकी सर्वाधिक चर्चा थी। पुस्तक के लेखक डॉ. महेंद्रभटनागर थे। इस पुस्तक के माध्यम से मेरा परिचय फिर महेंद्र जी के गंभीर ज्ञान से हुआ, किन्तु व्यक्तिगत रूप में नहीं।

सन् 1970 में एम. . करने के बाद मेरी प्रबल इच्छा थी पीएच.डी. करने की। इस समयजीवाजी विश्वविद्यालयमें केवल दस निर्देशक पीएच. डी. कराने के लिए मान्य थे। इन सबके कई बार चक्कर लगाए। सभी नेमेरे पास जगह नहीं हैकहकर मना कर दिया।

महेंद्रभटनागर जी से मेरी पहली भेंट स्थानीय प्रोफेसर शिवनाथ उपाध्याय जी ने करवाई थी। उनके कहने पर ही महेंद्र जी ने निर्देशक बनने की स्वीकृति दे दी थी। फलतः मैंने उन्हें गुरु के रूप में स्वीकारा। महेंद्र जी इन दिनों, ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैनसे सम्बद्ध मंदसौर के शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष थे। चूँकि वे ग्वालियर के मूल निवासी थे, उनका स्थाई निवास ग्वालियर था अतः उनका ग्वालियर  आना बना ही रहता था। निकट भविष्य में उनका स्थानान्तरणकमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियरहो गया। ग्वालियर में प्रायः रोज़ ही सुबह-शाम उनसे मिलता। घर-परिवार, शिक्षा-अध्ययन पर चर्चाएँ होतीं। इस प्रकार मैं उनके परिवार का सदस्य हो गया था इस कालाविधि  में मुझे उनके स्वभाव, रहन-सहन, लेखन, रुचि, यात्रा-भीरुता विषयक जानकारियाँ प्राप्त हो गईं थीं। गुरुवर महेंद्रभटनागर जी अपनी बात सोच-समझ कर धीरे-धीरे समझाते हुए कहते; जिसके कारण उनके विचारों को समझने में कठिनाई नहीं होती।

घर में वे बहुत सादे कपड़ों में रहते। प्रायः आधी बाँह की बनियान और तहमद। कॉलेज पेण्ट-बुशर्ट में। प्रायः साइकिल या लेम्ब्रेटा का उपयोग कॉलेज जाने में करते। कॉलेज से सीधे निवास पर आते। सबसे पहले डाक देखते। डाक बहुत आती। उनका पत्राचार व्यवस्थित था। आज वे इंटरनेट से अपने मित्रों से सम्पर्क में रहते हैं। कॉलेज से लौटते वक़्त वे ग्वालियर के केन्द्रीय स्थान बाड़े से मौसमी फल लाते। उन्हें आम बहुत पसंद हैं। आज भी घर में आम आने पर गुरुवर का स्मरण हो आता है। मैं कई बार उनके साथ गर्मियों के दिनों में बाड़े पैदल गया हूँ।

गुरुवर यात्रा करने से बचने की कोशिश करते हैं। मैंने दो बार उनके साथ दतिया एवं छतरपुर यात्राएँ की हैं। यात्रा से उन्हें शारीरिक-मानसिक परेशानियाँ प्रायः हो जाती हैं। मजबूरी में ही वे यात्रा करने निकलते हैं। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से पीएच. डी. की मौखिकी लेने के पत्र आते हैं। किन्तु वे नहीं जाते। देश के कितने ही बड़े पुरस्कार, साहित्यिक सम्मान से क्यों नवाजा जाए, वे लेने नहीं जाते।हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयागने अपने पुरी-अधिवेशन में उन्हेंसाहित्य वाचस्पतिकी उपाधि से सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया; किन्तु वे नहीं गये!

ग्वालियर ऐतिहासिक नगर में प्रायः साहित्यिक कार्यक्रम होते हैं। इन कार्यक्रमों में शिरकत करने ख्यातिनाम साहित्यकार आते हैं। अधिकांश उनसे मिले बिना नहीं जाते। मैंने उनके साहित्य ख्याति की चर्चा साहित्यिक सम्मेलनों में सुनी है गोवा, प्रयाग, जयपुर, वाराणसी, शांतिनिकेतन, धारवाड़ आदि के साहित्य-समारोहों में पधारे साहित्यकारों द्वारा। उनकी चर्चा सुनकर मेरा मन गदगद हो जाता है और तन प्रफुल्लित। मेरा सौभाग्य है कि मैंने ऐसे उच्चतम कोटि के साहित्यकार के निर्देशन में शोध-कार्य किया। सम्प्रति, उनका निवास मेरे निवास से काफी दूर हो जाने के कारण उनसे मिलना कम हो गया है; किन्तु मन-दर्पण मंजूषा में उनके दिए गुरुमंत्र आज भी सुरक्षित हैं।
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लक्ष्मीगंज, ग्वालियर — 474001 (. प्र.)

फोन: 9826905758_

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